पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/४७९

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। । १ । । प्रकाशपथिक ४१३ श्रीकुट्टी हिंसा आकाशपथिक--संज्ञा पुं० [सं०] सूर्य (को०] । अाकाशमलिलै-सज्ञा पुं॰ [मं०] १ वृष्टि । २ प्रोम (को०] । आकाशपुष्प--संज्ञा पुं० [सं०] प्रकाश का फूल । प्रकाशकुसुम । अाकाशस्फटिक---सया पु० [मं०] १ ना । चनौरी । २ = १ का | खपुष्प ।। या चद्रात मति (को०] । विशेष- यह से नव वातो के उदाहरणो में से हैं । प्रकाशास्तिकाय- सहा पु० [भ] जनसम्प्रानुगा हे प्रकार के अाकाशफल--मज्ञा पुं० [सं०] संतान या लडका लडकी । | द्रव्यो मे गे एक । यह एक उगी पदार्थ है जो नोक श्रीर अाकाशवेल, आकाशबेलि---सज्ञा स्त्री० [सं० प्रकाश + हिं० वेल] अलोक दोनों में है और जीप तथा पुद्गन दोनों को थान या अमरवेल । अवश देता है । कि त । अाकाशभाषित-संज्ञा पुं० [सं०] नाटक के अभिनय मे एक सकेत । विनों काशी--सझा मी० [सं० प्रकाश + ई० (य० ] वह चाँदनी किसी प्रश्नकर्ता के अापसे आप वक्ता ऊपर की अोर देखकर जो धुप ग्रादि से बचने के लिये नानी जाती है । किसी प्रश्न को इस तरह करता है, मानो वह उमसे किया जा अाकाशीय-वि० [मं०] १ प्रानयधी। प्राT7 मा । २ ॥1॥ रहा है और फिर वह उसका उत्तर देता है । इस प्रकार के कहे में रहनेवाले । अाकाशस्थ । ३ प्रकाश में होनेवादा। ? हुए प्रश्न को 'प्रकाश भापित' कहते हैं । दैवागत । अाकस्मिक । विशेप--भारतेंदु हरिश्चंद्र के 'विपस्य विषमौषधम्' में इसका प्रयोग कास -मज्ञा पुं० [सं० श्राकाश] ६० 'ग्राफग' । उ०—न का राज बहुत है । उ०--हरिश्चंद्र--अरे सुनो भाई, सेठ, साहूकार, । विभीपन राजे ध्रुव अवाम विराजे,। गुर०, १ । ३६ । महाजन, दुकानदारो, हम किसी कारण से अपने को हजार मोहर झाकासवानो --मय मी० [हिं०] १० 'ग्राकाशवाणी' ४०-मूर पर बेचते हैं । किसी को लेना हो तो लो । (इधर उधर फिरता अाकासवानी भई त तहे, यः वैदेहि है, शरु जुहार ।-भूर०, है। ऊपर देखकर) क्या कहा? 'क्यो तुम ऐसा दुष्कर्म करते ६। ७६ ।। हो ?" अर्य, यह मत पूछो, यह सब कमें की गति है । (ऊपर प्राकिचन-सुशा १० मि० श्राचिन]न । निर्धनता । अकिवनना देखकर) क्या कहा ? “तुम क्या कर सकते हो, क्या समझते | (ौ । इसका क्या पूछना है। स्वामी जी किचन --वि० दे० 'ग्राचिन' । उ०-प्राचिन इद्रियदमन, रमन कहेगी वह करेंगे, इत्यादि ।-सत्य हरिश्चद्र । | राम इकतार । तुनगी ऐसे मत जन, थिरने या मगर ।आकाशमडल--सज्ञा पुं० [सं० प्रकाशमडल] नभमडल । खगोल । | तुजसी ग्र०, पृ० १२ । अाकाशमासी--सज्ञा स्त्री० [सं०] क्षुद्र जटा ममी [को०] । प्राकिल-वि० [अ० प्राकिलो बुद्धिमान् । ज्ञानी । ग्रे नमः । प्रकाशमखी-सज्ञा पुं० [सं० श्राकांश +fgo मुखी] एक प्रकार के साधु शामिलखानीया Vo Tus प्राकिल+फी० प (नाम) 1 एक जो अाकाश की ओर मुंह करके तप करते हैं । ये लोग अधिकाश शैव होते हैं । | प्रकार का रंग जो का नापने लिए लाल होता है । एक प्रकारे आकाशमूली संज्ञा स्त्री० [सं०] जलकु भी। पाना । का खैरा या काकरेजी रग । अाकाशयान- संज्ञा पुं० [सं०]१ वह जो प्रकाशमार्ग से गमन करे । 4 . आकाण कोण---वि० [सं०] १ व्याप्त । पूग्णं । न हुआ।। २ विवरा या "व" [५] । प्राप्त । ५ । नहुमा । । २ वायुयान । बलून (को०) । | फैला हुआ । [को०] । अाकाशयोधी-सज्ञा पुं० [सं० प्रकाशयोघिन्] वह लोग जो इवी यौ०---केटककीर्ण । जनाकीर्ण । जमीन या टीले पर से लड़ाई कर रहे हो । फिौ] । अाकाण'--समा पु० माइ [फा०] । काशरदक्षी--सज्ञा पु० [सं० श्राकाशरक्षिन्] वह जो किले की बाहरी अकिंचन–मज्ञा पुं० [सं० अाकुचन] [वि॰ अकुचनीय शाकु चिन] दीवार या बुर्ज पर खड़ा होकर पहरा दे [को । १ सिकुडना । वरना । निमटनी। संकोच । १. वैशेषिक श्रीकाशलोचन--सज्ञा पुं० [सं०] वह स्थान जहाँ से ग्रहों की स्थिति शाम्त्र के अनुसार पाँच प्रकार के कर्मों में पदयों का सिकुडने । या गति देखी जाती है । मान मंदिर । बजरवेटरी । ३ ढेर लगाना [को॰] । ४ टेवा करना (को०] । ५ सेना का अाकाशवचन--सज्ञा पु० [सं०] दे० 'प्रकाश भापित' [को०] । एक विशेष प्रकार की वढाय किो०] । आकाशवर्म-सज्ञा पुं० [सं०] १ वायुमडल । अाकुचनीय–वि० [सं० शाकुन्चनीय] सिकुइने योग्य । सिमटने योग्य । अकाशवल्ली--संज्ञा स्त्री० [सं०] अमरवेल । अकु चित-वि० [सं० प्रकुन्चित] १ मिगुडा हुआ । सिमटा हुप्रा । आकाशवाणी-सज्ञा स्त्री० [सं०] १ वह शब्द या वाक्ये जो प्रकाश से। २. टेढा । कुटिल । वक्र । देवता लोग बोलें । देववाणी । २ वेतार की युक्ति से प्रसारित कु ठन--सज्ञा पुं० [सं० शाकुण्ठन] [वि० कु दिन] १ गुठला वाणी या ध्वनि । रेडियो ।। | होना । कु द होना । मज्जा । पार्म ।। आकाशवृत्ति-सज्ञा स्त्री० [सं०] अनिश्चित जीविका । ऐसी आमदनी कु ठित--वि० [सं० कुण्ठिन] १ गुठला । कु द । २ लज्जिते । जो बँधी न हो । शर्माया हुश्रा । ३. स्तब्ध । जड। जैसे,—उनकी बुद्धि अकु ठित आकाशवृत्ति--वि० [सं० आकाशवृत्तिक] १ जिसे प्रकाशवृत्ति का हो गई है । ही सहारा हो । २ (खत) जिसे प्रकाश के जल ही का आकुट्टी हिंसा-सा स्त्री० [प्रा० अकुट्ठी+सं० हिंसा उत्साहपूर्वक सहारा हो, जो दूसरे प्रकार से न सोचा जा सकता हो । ऐसा निपि कर्म करना जिससे किसी प्राणी को दुख हो ।