पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/४७८

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अकिाशकक्षा श्रीकशिनीम जिमने विश्व के छोई बडे सत्र उदार्य, व, , प्र37 ! । आकाशकल्प--सज्ञा पुं० [सं०] ब्रह्म [को०] । अादि स्थित हैं और जो मत्र पदार्थों के भीतर प्राप्त है । शकिाशकुसुम-सज्ञा पुं० [सं०]१ अाकाश का फूल । खपुष्प । अन् विशेष---वैशेषिककार ने प्राकाम को द्रव्यो में गिना है। उसके होनी बात । अस मव वात । अनुयायी भाष्यकार प्रशम्तपाद ने अाकाश, कान और दिशा प्रकाशगंगा--संज्ञा स्त्री० [सं० आकाशगड़ा] १ बहुत से छोटे छोटे को एक ही माना है। यद्यपि मूत्र के १७ गुणो में शब्द नहीं है, तारी की एक विस्तृत समूह जो प्रकाश में उत्तर-दक्षिण । तथापि भाष्यकार ने कुछ और पदार्थों के साथ माद को भी ले फैला है । लिया है। न्याय में भी प्रकाश को पचभूतो में माना है और विशेष—इसमे इतने छोटे छोटे तारे हैं जो दुरवीन के ही सहारे उससे श्रोत्रंद्रिय की उत्पत्ति मानी हैं। साग्रकार ने भी प्रकाश को प्रकृति का एक विकार और शव्दतमात्रा से उत्पन्न माना दिखाई पड़ते है । खाली अखि में उनका समूह एक सफेद सडक है और उसका गुण गवई कहा है। पाश्च त्य दार्शनिको में से की तरह बहुत दूर तक दिखाई पड़ता है। इसकी चौडाई बराअधिकांश ने प्रकाश के अनुभव और दूसरे पदार्थों के अनुभव वर नही है, कहीं अधिक कही बहुत कम है । इसकी कुछ के बीच वही भेद माना है जो वर्तमान प्रत्यक्ष अनुभव और शाखाए” भी कुछ इधर उधर फैली दिखाई पड़ती हैं । इसी से व्यतीत पदार्थों या भविष्य स भावनाओं की स्मृति या चिंतन पुराणों में इसका यह नाम है। देहाती लोग इसे अाकाशजनेऊ, प्रमून अनुभव में है । काट दि ने प्रकाश की भावना को हाथी की इहर या केव न डहर अथवा दूधगंगा कहते हैं । अत करण से ही प्राप्त अर्थात् उसी का गुण माना है। उनका | २ पुराणानुसार वह गगा जो प्रकाश में हैं। कथन है कि जैसे रगो का अनुभव हमे होता है, पर वास्तव में पर्या०—मदाकिनी । वियद्गगा । स्वर्ग गए । स्वर्णदी । सुरदीधिका । पदार्थों में उनकी स्थिति नहीं है, के वन हमारे अत करण में है, आकाशग'- वि० [सं०] प्रकाश चारी [को० । उमी प्रकार प्रक्रिया भी है । आकाशग---सज्ञा पुं० पक्षी [को०] । यौ०.-प्रकाशकुसुम । अाकाशगगा । अाकाशचारी । अाकाशचोटी। आकाशगा—सज्ञा स्त्री॰ [सं०1 अाकाशगगा [को॰] । अाकाशजले । भाकाशदीपक । अाकाशधुरी। प्रकाशध्व। अाकाश । अाकाशचमस--सज्ञा पुं० [स०] चद्रमा (को०)। नीम । प्रकाशपुष्प । प्रकाशभापित । अाकाशफल । आकाशवेल। अकाशचारी-वि० [सं० आकाशचारिन्] [स्त्री० आकाशचारिणी अाकाशमडल । प्रकाशमुखी । आकाशमूली । प्रकाशलोचन । प्रकाश में फिरनेवाला। कामगामी । किाशवल्ली । अाकाशवाणी । अाकाशवृत्ति । आकाशव्यापी । आकाशचारी-मज्ञा पुं० १ सूयदि ग्रह नक्षत्र । २. वायु। ३. पक्षी। ग्राकाशास्तिकाय ।। ४ देवता । ५. राक्षस । पर्या०--यौ । छु । अभ्र । व्योम । पुष्कर । अ वर । नभ । अाकाशचोटो---सज्ञा पुं० [सं० आकाश + हिं० चोटी] शीर्पविदु । वह अ तरिक्ष । गगन । अनत। सुरवत्र्म । ख। वियत् । विष्णुपद । कल्पित विदु जो ठीक सिर के ऊपर पड़ता है। तारापथ । मेघावा। महापिल । विहायस। मरुद्वमं । मेघवेश्म । प्रकाशजननी-वि० प्रकाशजनपिन्] दुर्ग अादि के प्रावीर मे मेघवत्र्म । कुवाभि अक्षर। विविष्टप। नाक । अनग। बने झरोखे या छिद्र (को०) ।। मुहा०-अाकाश की कोर = क्षितिज 1 प्रकाश बुलना=ग्राममान का माफ होना । वादन को जाना । बाद 7 हटना । जैसे,—दो प्रकाशजल-संज्ञा पुं॰ [सं०] १ वह जल जो ऊपर से बरसे। मेहू का दिन की बदली के पीछे अाज अाकाश खना है। श्री काश छु पानी । या घूमना = बहुत ऊँचा होना । जैसे,—काशी के प्रांगाद प्रकाश । विशेष—मघा नक्षत्र में लोग वरमे हुए पानी को बरतनों में भर छूते हैं । आकाश पाताल एक करना=(१) भारी उद्योग करना। | कर रख लेते हैं । यह औपत्र के काम आता है । ३ श्रोस । जैसे,—जव तक उसने इस काम को पूरा नहीं किया, श्री काश आकाशदीप-सज्ञा पुं० [सं०] ग्रीकागदीया । पानाल एक किए रहा । (२) आदोलन करना 1 हलच न करना। आकाशदोया-सज्ञा पुं० [सं० प्रकाश +f० दीया] वह दीपक जो धूम मचाना । जैसे,--वे जरा मी वान के नये प्रकाश पातान कातिक मै हिंदू लोग कडील में रहकर एक ऊँचे वसि के मिरे एक कर देते हैं । आकाश पाताल का अ तर = वड़ा ऋतर । वहून पर बाँधकर जाते हैं । फर्क । न ०–तो भी इनमें उनमें प्रकाश और पाताने का असर । विशेष--क्राति के माहात्म्य के अनुसार २१ हाथ की ऊँचाई पर हैं । प्रेमघन०, भा० २, पृ० २०३। आकाश बाँधना= अनहोनी दिया जलाना उत्तम है, १४ हाई पर मध्यम प्रौर ७ हाथ पर बात कहना । असभव बात कहना। उ०—कहा कहति डरपाई निकृष्ट है । कछु मेरो घटि जैहै । तुम वधति अाकाश वात झूठी को स है । अाकाशधुरी--मज्ञा स्त्री॰ [म० अाकाश + हि० घुरी] खगोन का ध्रव । —सूर (शब्द०) । प्रकाश से बातें करना= बहुन ॐ वा होना। अाकाशद । जैसे,-माधवराव के धरहरे आकाश से बातें करते हैं । ४ अबरमा । अभ्रक । ५ छिद्र । विवर [को०]। ६ (गणित में) प्रकाश धव--सज्ञा पुं॰ [सं०] प्रकाशधरी ।। शून्य [को०] । ७ प्रकाश । स्वच्छता [को॰] । ८ व्रह्म को]। आकागनदी--संज्ञा स्त्री॰ [मं०] अाकाशमगा । प्रकाशकक्षा- सज्ञा स्त्री० [स०] अाकाश मे वह मडल जहाँ तक सूर्य प्रकाशनिद्रा---सज्ञा स्त्री० [सं०] खुले हुए मैदान में सोना । की किरणों का संचार है । सूर्य सिद्धात के अनुसार इस मेडल प्रकाशनोम--सनः जी० [सं० श्री काश+ हि० नीन] एक प्रकार को की परिधि १८७१२०६६२००००००००योजन है । पौधा जो नीम के पेड पर होता है । नीम का वाँदा ।