पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/४७७

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आकर्षन आकाश ४१० आकर्षन -सज्ञा पुं० [सं० अाकर्षण] दे० 'कर्पण' । का अर्थ दू गरे पद के अर्थशान पर प्राधिन र । नत य । | आकर्षना -क्रि० स० [सं० अर्पण से नाम०] पाँचना । उ०-~ चाहते हैं कि ग पद के शान की 11, गमे,-- माकरज्यो धनु करन लगि, छोटे शर इकतीस ।—तुलसी “दैपदरा प्रया' ४१ याय में प्राय १५ । शान न के (शब्द०)। (ख) कालिंदी को निकट बुनायो जलक्रीट के धान के अधिक है। काज । लियो अाकर पि एक छन मे हलि कति समय यदुराज । ५, जैनियों के प्रमृगार ए मनन । यि। * निगा —सूर (शब्द॰) । | अन्य मनवानो के विभूनि द 3ग माग ** : । आकषिक--वि० [सं०] [वि० मी० आकर्षकी ] ६० 'प्राकर्पक' (को०] । यो --कातिर । आकर्षित--वि० [सं०] खीचा हुप्रा । अाकाक्षित-वि० [१० प्रक्षित] 1 इन्।ि दुनिदिए । अकिलन-सा पुं० [सं०] [वि० अाकलनीय, अकलित १ ग्रहण । वाछिः । २ प्रति । लेना । २ मग्रह । बटोरना । म वय । इकट्ठा करना । ३ गिनती शाकाक्षी--वि० [ने भारन्]ि [वि० ० ८fer १ : फरना । ४ अनुष्ठान । संपादन । ५ अनुराधान। जाच ।। २ । इन्दु । चने 31 1 3 1 111) ६ इच्छा । कामना [को०] । ७ वर्णन यर ना [को०] । का'-- सद्या !]० [३० शाकाय ? ? । उ7। ३ ।। आकलना--सज्ञा जी० [सं०] १ दे० 'प्राकलन' । ३ पूजा ।मति[ो । पजप । ग्राउ ! अकिलनीय- वि० [नं०] १ ग्रहण करने योग्य । लेने योग्य । २ भावा---गा ५० [१० ]ि मावि ।।।। संग्रह करने योग्य । ३ गिनती करने योग्य । ४ अनुप्ठ नाकाप--गधा पुं० [३०] १ रि। 17 f7 । २ f-मः । करने योग्य । ५ जचिने योग्य | पता लगाने योग्य ।। पर ।।11 (3)। कलित-वि० [सं०] १ लिया हुआ 1 पपडा हुआ । २ ग्रथित गूथा झोकार'-- २r ! ५० [१०] F 1 अ । ३ । F7। इग्न । हुआ । ३ गिनी हुअा। परिगणित । ४ अनुन्ठित । पदित । २ र ११ । गद ३ पट्ट। मदन । १ नि।7। कृत ! ५ अनुसंधान किया हुआ । जाँच हुप्रा । परीति । नि । " चैट: । : 'अ' 7। ५ 3 17।। ६ आकली-सज्ञा स्त्री॰ [ सं० श्रीकुल +ई (प्रत्य॰) या म० श्राफल्य = प्रर ! 7ग । ० १ ३ र पान? नमी, प्रति जन हि वीमारी ] अाकुलता । वेचनी । प्रर । जसरह मन बैर विध ] जि, मि त । इर। प्राकली--सा स्त्री॰ [देश॰] चटक पक्षी । गौरैया ।। ---गुर०, १०२३।। प्रकल्प- संज्ञा पुं॰ [सं०] १ वेश रचना। सिंगार करना, जैसे, | यो०--प्रापारगुप्त । प्रोफारगोपन=हुदग या न ? ।। दो | रत्नाकल्प । २ पोशाक 1 पहनावा [को॰] । ३ वीमारी (को॰) । कनि नेप्टा में छिपाना । ४ जोडना । चढाना [को०] । प्राकार-वि० गयाना । । फार। ३०-१६ प्रारह कोई कल्प-क्रि० वि० कल्प पर्यत । निराशर गहू तत्व को घोटि नि नप धा ।---वीर कल्य- सच्चा पु० [सं०] बीमारी 1 अस्वस्थता [को०] । २०, पृ० २८ ।। प्राकष--संज्ञा पुं० [सं०] कसौटी। श्राकारण-सी पुं० [म०१ महान । चुनावः । २ नुनौती [ो । कुसमात+---क्रि० वि० [हिं०] दे॰ 'अकस्मात' । उ०—-पथी अमिरवान--वि० [सं० अफरवत् १ अाएर गई रीवार । महि पथ चनि अायो प्रकिस मात ।--सु दर० ग्र०, 'भा० २, २ सुगठित । सु दर (ले०] । पृ० ७५८ । आकारात-वि० [म० प्रकारान्त] जिसके अत में ‘गा' म्बर हो (२०]। अकस्मात+--क्रि० वि० [हिं०] ६० 'अकस्मात'। शाकारित--वि० [सं०] १ प्रादूत | ३.म्वीत । ३. मग या चाहा आकस्मिक--वि० [सं०] जो बिना किसी कारण के हो । जो अचानक हुअा [को०] । हो । महसा होनेवाला । जिसके होने का पहले से अनुमान आकारी- वि० [सं० प्रकरण = महान ] [ मी० कारिणी ] श्रीहान कर नेय ला। बुग्नानैवान।। ३० र मुख हिम यौ०--प्राकस्मिक अवकाश, आकस्मिक छुट्टी= अचानक काम से फिरण फी जु किरणावली धवत मधुगान हिय पियत रगी। | ली जानेवाली छुट्टी ।। नागरी सफल सकेत अारिणी गनत गुन गननि मति ति आकाक्षक---वि० [सं० श्राकाङ्क्षक] इच्छा रखनेवाला । अभिलापा। पगी --नागरी० (शब्द०)। करनेवाला। आकारीठ(---संज्ञा पुं॰ [सं-आकारण = बुलानात ग्राम। गुद्ध । (३०) आकाक्षा- संज्ञा स्त्री० [सं० अाकाङ्क्षा] [ वि० श्राकाक्षक प्रकांक्षित, अाकाश-सी पुं० [सं०] १. अतरि । प्रा से मान । गगन । ॐनाई पर आकाक्षी] १ इच्छा । अभिनपा । वाछा । चाह । २ अपेक्षा। का बह चारों और फैन हुआ अपार स्थान जो नीना और ३ अनुसधान । ४ न्याय के अनुसार वावयार्थज्ञान के चार शून्य दिखाई देता है। जैसे,--पक्षी प्राथाश में उड़ रहे हैं । प्रकार के हेतुशो में से एक। २ माघारणत वह स्थान जहाँ वायु के अतिरिक्त और कुछ न विशेष---वाक्य मे पदो का परस्पर सदध होता है और इसी हो, जैसे,--वह योगी ऊपर उठा और बडी देर तनः प्राकाश सबध से वाक्यार्य का ज्ञान होता है। जब वाक्य मे एक पद में ठहरा रहा । ३ शून्य स्थान । वह अनत विस्तृत प्रकाश