पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/४७६

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कवत प्रदेश ४०६ होना । (२) अजाम बिगड़ना। बुरा परिणाम होना - अकरी--संज्ञा पुं० [सं० प्रकिरिन] दे० 'आकरिक' । विगाड़ना ।। आकर्ण--वि० [सं०1 कान तक फैला हुआ। मुहा०—कबत मे दिया दिसाता= परलोक मे काम आना । यौ -कर्णचक्षु । कर्णकृष्ट । प्राकवत देश-वि० [अ० कवन 4-फा० ग्र देश परिणाम सोचने- कर्णन-सज्ञा पुं० [सं०] [वि॰ अरुणित] सुनना ! कान करना। बाना । अग्रसोची । दूरदेश । दीर्थदर्शी । अकनना। प्रकवतग्न देशी- सच्चा स्त्री० [ प्राकृवत + फा० अ देशी] परिणाम आकणित--वि० [सं०] सुना हुया । का विचार । परिणामदशिता । दीर्घदशिता । दूरदेशी । आकर्ष-संज्ञा पुं० [सं०] १ एक जगह के पदार्थ का बल से दूसरी जनक्रि० प्र०—करना । जाना। खिचाव । कशिश । प्राकवतीलगर--सज्ञा पुं० [अ० प्राकव्रत +फा० ई० (प्रत्य०)+हिं० क्रि० प्र०--करना-खीचना । उ०-तैसे ही भुवभार उतारन है। लगर] एक प्रकार का लुगर जो जहाज पर अगले मस्तूल की रस्सियो या रिंगिन के पाम बीच के टूटक मे रहता है और हलघर अवतार। कालिदी आकर्प कियो हरि मारे । अफित के वक्त डाला जाता है। अपार --सूर । (शब्द०)। अाकवाक--संज्ञा पुं० [प्रा० *क्कइ>1बक मे अनुव्व] अकबक । २ पासे का खेल । ३ विसात जिसपर पासा खेला जाय अनवड वात । ऊटपटींगबात । उ०--(क) कबाक बकति चौपडे । ४ इद्रिय । ५ घनुप चलाने का अभ्याम् । ६ कसौटी। बिया में वृद्धि बुडि जाति पी की सुधि अाएँ जी की सुधि बुधि । ७. चुवक । खोइ देत ।- देव (शब्द॰) । (ख) 1 शाकवाक वकि और की। पाकर्षक'--वि० [सं०] १ वह जो दूसरे को अपनी ओर खीचे । वृथा ने छाती छोल [मुदर ग्र०, भा० २, पृ० ७३७ । । अाकर्पण करनेवाला । खीचनेवाना। २. सुंदर । ग्राकर--संज्ञा पु० [१०] १ पानि । उत्पत्तिस्थान । -सहा. अाकर्षक:--सज्ञा पुं० चवक [को०] ।। मुमन फन सहित भव, द्रुम नव नाना जाति । प्रगटी सुदर मैल अाकर्षण- सच्चा पुं० [सं०] [वि॰ आकवित, आकृष्ट] १ किसी वस्त पर, मनि ग्राफर बहु +fति ।--मानस, १५६५। २ खजाना। की दूसरी वस्तु के पास उसकी शक्ति या प्रेरणा से 4 मडार। जाना । २ खिंचाव । ३ तत्रशास्त्र का एक प्रयोग जिसके als यौ०--गुणाकर । कमलाकर। कुसुमाकर । करुणाकर। रत्नाकर। दूर देशस्य पुरुप या पदार्थ पाम में आ जाता है । ३ भेद । विस्म । जाति । उ०—ाकर चार लाख चौरामी क्रि० प्र०—करना। होना। जाति जब जल यल न भवासी ।—मानस, १६ । ४ तलवार । यौ०- आकर्षण मंत्र । अकिर्षण विद्या । आकर्षण शक्ति । के वत्तीम हायो मे से एक । तलवार चलाने का एक भेद । अाकर्षणशक्ति--संज्ञा स्त्री० [म०] भौतिक पदार्थों की एक शक्ति कर-वि० १ श्रेष्ठ । उत्तम । २ अधिक । उ०--चपा प्रीति जो जिससे वे अन्य पदार्थों को अपनी ओर खीचते हैं। तेल है, दिन दिन आकर बाम । गलि गलि आप हेराय विशेष—यह शक्ति प्रत्येक परमाणु मे रहती है। १५ जो, मुए न छोड़े पास - जीयस) (शब्द०)। ३ गणित । कारण, क्या कार्य रूप में सब परमाणु या उनसे गुणा । जैसे, पाच प्राकर, दस ग्राकर । उ०-अरा भी सूर पुरुष उत्पन्न सब पदार्थों की ओर आकृष्ट होते हैं। इसी से द्वयण, । निरमरा । सूर जाहि दस अाकर करा -- जायसी (शब्द॰) । श्रसरेण तथा समस्त चराचर जगत् का संगठन होता है। इस ४ दक्ष । कुशल । व्युत्पन्न । से पापाणादि के परमाणु आपस में जुड़े रहते हैं। पृथ्वी के किरकढा--सज्ञा पुं० [हिं०] १० ‘अकरकरहा' ।। ऊपर ककड, पयर तथा जीव अादि सब इसी शक्ति के बल ५ अकरकरही-सज्ञा पुं० [अ०] एक जडी जिसे मुह में रखने से जीभ ठहरे रहते हैं। जल के चद्रमा की ओर आकृष्ट होने से समुद्र में में चुन चुनाट्ट होती है और मुह से पानी निकलता है। यह ज्वार भाटा उठता है । वडे बडे पिंड, अहमदन, सूर्य, चद्रादि सर्व एक वृक्ष की लकडी है । अाकर कढा। दे० 'अकरकरा'। इसी शक्ति से प्रकाश मडल मे निराधार स्थित हैं और न । करखाना- क्रि० स० [हिं०] दे॰ 'अर्पना'। से अपनी अपनी कक्षा पर भ्रमण करते हैं । पृथ्वी 'मी इम प्राकरिक-वि० [सं०] खान खोदनेबाला ।। शक्ति से बृहत् वायुमडल को धारण किए हुए है। सूर्य से लेकर किरिक-सल्ला पु० वह मनुष्य जी खान को स्वय खोदे या प्रौरो से परमाणु तक में यह शक्ति विद्यमान है। यह शक्ति मिन्न नि | खोदावे और उसमे धातु निकाले । रूपो से भिन्न भिन्न पदार्थों और दशाग्रो में काम करती है। करी--वि० [ म० श्राकर-खान ( धातु और पत्थर आदि की )] मात्रानुसार इसका प्रभाव दूरस्थ और निकटवर्ती समी ६॥ कठोर । उ०- नारी वोले अाकरी तब दुख पावे नाह। सुदर पर पड़ता है । घारण या गुरुत्वाकर्षण, चुवकाकर्षण, संलग्न बोले मधुर मुख तब सुख सौर प्रवाह --सु दर० ग्र०, 'मा० २, कर्षण, केशाकर्षण, रासायनिकाकर्पण आदि इनके • * पृ० ७०७ । प्रभेद है। करी-मज्ञा स्त्री० [सं० प्रकर+ई० (प्रत्य॰)] कान खोदने का आकर्षणी-सा पु० [सं०] १ एक लग्गी जिससे फन फूल तोडते हैं। काम । उ०-चाकरी न करी न वेती न वनिज नीदा जानत अँकुसी । लकसी । ३ प्राचीन काल का एक सिक्का । ३ शर न छर कछु कसब क्या है ।—तुलसी ग्र ०, पृ० ११२ । | पर धारण की जानेवाली विशेष प्रकार की मुद्रा या चिह्न(को०, ५२