पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/४७५

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४०८ अकवत मुहा०—ाई गई करना = (१) वीसी को बिसारना । (२) सहस द्वादस पचमत में कछुके है अब उ –तुलमी ग्र०, टाल जाना। उपेक्षा करना। आई गई होना = (१) घटित पृ० ४२२ । होकर गुजर जाना । २ अनुपस्थित होना । | ग्राउज-सज्ञा पुं० [सं० श्रावोद्य प्रा० प्रा प्रोज, प्रज्ज] ताशा । आई+---संज्ञा स्त्री० [स० श्रयिका, प्रा० अज्जिा ] १ पितामही । उ०-घटा-घटि पखाउज-ग्राउज झाझ बेनु दफ-तार । नूपुर धुनिदादी । ३ माँ । | मजीर मनोहर व रक कन-झन फार |--तुलसी ग्र०, २३५ ।। आई--प्रत्य० [हिं०] १ एक प्रत्यय जो भाववाचक संज्ञा बनाने के उझG) -सज्ञा पुं० [सं० भातोद्य, प्रा० भावेज्ज] दे० 'उज' । लिये विशेषण शब्दो के अत मे जोडा जाता है, जैसे, आउट-- वि० [अ०] खेत में हारा हुमा । बहि त । ‘कठिन' से 'कठिनाई', वडा' से 'वडाई', 'छोटा' से ‘छुटाई', विशेप-यह क्रिकेट आदि खेत में बोला जाता है। जब बल्लेबाले 'मीठा' से 'मिठाई' अादि । २ एक प्रत्यय जो धातुग्रो किसी खिलाडी के सेवते ममय गेंद विकेट में लग जाती है वो में लगकर भाववाचक संज्ञाएँ बनाता है । जैसे, ‘पढ' 'पढाई', बल्ले से मारी हुई गेंद सेक ली जाती है, तब वह ग्राउट लिखा से ,लिखाई', 'लड से' लडाई ‘भिड' से 'भिट्टाई' ग्रादि । समझा जाता है, और बल्ला ना देता है । आईन-सज्ञा पुं॰ [फा०][वि० अाईनी] १ नियम । विधि । कायदा। उवाउ -सज्ञा पुं॰ [सं० वायु > ग्राउ अनुव०] अंड बड बात । जाब्दा । २ कानून । राजनियम ।। अनर्थक शब्द । प्रेम द्धि प्रताप ।। यौ०-आईनद--वकील । कानून जाननेवाला । क्रि० प्र०-वरुना। उ०-मानम में तीन करतत्र कनिमेन पी जीह आईना---सज्ञा पुं० [फा० श्राई नह.] १ आरसी । दर्पण। शीशा । हू ने जपेउ नाम बकेउ ग्राउबाउ ६ ।–तुलमी ग्र०, पृ० ५८८ । यौ०-झाईनादार । अाईनावदी। आइनासाज । श्राइनासाजी । अाउस- सज्ञा पुं० [सं० आशु बैग० धाउन] धान का एक भेद जो मुहा०--आईना हो । = स्पष्ट होना । जैसे,—यह बात तो आप वगाल में मई जून मे वो जाता है और अगम्त मितवर में पर आईना हो गई होगी। आईने मे मुह देखना--अपनी काटा जाता है । यह दो प्रकार का होता है-एक मोटा, योग्यता को जाँचना । ( यह मुहावरा उस समय बौला जाता। दूसरा महीन या लेपी । भदई । ग्रोसहन । है जब कोई व्यक्ति अपनी योग्यता से भी अधिक काम करने अाऊपा--संज्ञा स्त्री॰ [० अायुष्य] उम्र । अवस्था । ३०-उनामिए की इच्छा प्रकट करना है, जैसे,—पहले अइिने में अपना मुह तो पुत्री अवतरी । तिन शाऊपा पूरी करी ।-अधं० पू० ५७ । देख लो, फिर बान करना । कप--सज्ञा पुं० [सं० श्राकम्प] ३० । कपन' (को०] । २ किवाडे का दिनह। । वि० दे० 'दिलहा' । प्राकपन--सझा पुं० [सं० शाकम्पन] [वि० रुपि न करना । हूँ की । यौ०--प्राईनेदार = वह किवाडा जिममे अाईना या दिला हो । प्राकपित--वि० [स० कम्पिन] कॉप। हुग्रा । हिला हु प्रा । आईनादार-मज्ञा पुं० [फा०] वह नौकर जो अाईना दिखालाने का | प्राक-सज्ञा पुं० [स० अर्क, प्रा० अक्क] मदार । अको प्रा । अश्वन । | काम करे । नाई । हज्जाम । उ०—(क) पुरवा न्नागि भूमि जल पूरी । ग्राफ जवान भई तम विशेष—दसहरे, दीवाली अदि त्योहारों पर नई प्रोईना दिखाता झूनी ।—जायसी ग्र ०, पृ० १५३ । (ख) विदा चदने वीरवे, है और उसके बदले में लोगो से कुछ ईनाम पाता है । बेधा अाक पलाश । अाप मरीज़ा कर पिया, जो होते उन आईनावदी---सज्ञा स्त्री॰ [फा०] १ कमरे या वैठक में झाड़ पास -- वीर (शब्द॰) । (ग) देत न प्रघात झि जात पात अाक हो के मोनानाथ जोगी अब प्रौढर ढरत है ।-नुनमी फोनूस अादि की सजावट। २ कमरे या घर के फर्श में पत्थर या ईंट की जुडाई । ३. रोशनी करने के लिये तरतीब से टट्टियाँ। ग्न ० पृ० २३७ ।। सोही करना। मुहा०—ा है की बुढिया=(१) मदार का घूग्र। () बहुत आईनासाज-सज्ञा पुं० [फा० आईनह, +साज] प्राईना बनानेवाली। बूढ़ी स्त्री ।। प्राईनासाजी-माज्ञा स्त्री॰ [फा० आई वह साजी] १ कोच की चटर अाकपु-व० [म० x ६ = दुवा] दुशी । ३)--प्राई कर म भेपन के टुकड़े पर कलई करने का काम । २ अाइनामाज का पेशा विदित, ला १ नही मतिर । तु नमी मठ अकबप विठि अइनी-वि० [फा० आईन] कानूनी । राजनियम के अनुकू ।। दिन दिन दीन मलीन ।---स० सप्त F, १० ४७ । आउ स-सज्ञा पुं० [अ०] एक अग्रेजी मान जो दो प्रकार का होता है। प्राकडा--- सज्ञा पुं० [सं० अर्क, हिं: प्राक +डा (उत्प०) } मदार । एक ठोस वस्तु के तौलने में श्रौर दूसरा द्रव पदार्थों के अकौा । अर्क । नापने में काम आता है । तौलने का प्रावस हिंदुस्तानी संवा दो किन--पज्ञा पुं० [न० अाजै ।। = मोइ ।। १ धाप फुप, जिसे तोले के बराबर होता है। ऐसे वारहे ग्राउ सो का एक पाउड | जोते हुए खेत से नि का नकर बाहर फे आते है । २ जोते हुए होता है । नापने का अाउस सोलह ड्राम का होता है और एक खेत से घाम फूप निरालने की क्रिया । चिखुरना । ड्राम साठ वू दो को होता है। | प्राकवत-सज्ञा स्त्री० [अ० अकबत] मरने के पीछे अवस्था । परआउ+---संज्ञा स्त्री० [मै० पु] जीवन । उम्र । ३०-~-एहि वन रहत लोक। जैसे,—वावा, दिया लिपा ही अकवन में काम प्रावेगा। गई हम्ह ग्राऊ । तरि वर च नत न देखा काऊ |--जायसी ग्र०, यौ०-- प्राव वतन्न देश । प्राकवतन्न देशी । पृ० २७ । (ख) से कट मुकून को मोवा जाति जि र रबुराइ । क्रि० प्र० विगड़ना=(१) परलोक विनडना । परलोक नष्ट