पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/४७४

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४०१७ आई प्रसू-सज्ञा पुं० [सं० अश्र, पा० प्रा० अस्सु, प्र अ सु] वह जन जो आ ही--प्रव्य [हिं० ना+हां ] नही । आँख के भीतर उम स्थान पर जमा रहता है, जहाँ से नाक विशेप-यह शब्द किसी प्रश्न के उत्तर मे जीभ हिलाने के ५ । की अोर ननी जाती है। उ०--जो घनीभूत पीडा थी मस्तक | से बचने के लिये वोला जाता है स्वर और ऊष्म, विशेषकर में स्मृति मी छाई, दुदिन में अमू वनकर वह आज बरसने ‘ह' के उच्चारण में बहुत कम प्रयत्न करना पड़ता है। अाई ।-अभू, पृ० १४ । । श्रा--अव्य० [42] एक अव्यये जिस का प्रयोग सीमा, अभिव्यक्ति, विशेप--यह जल ग्राख की झिल्लियो को तैर रखता है और ईपत् और अतिक्रमण के अर्थों में होता है। जैसे ---(क) हेले पर गर्द या तिनके को नहीं रहने देता, धोकर साफ कर सीमा-असमुद्र = समुद्र तक । अामरण = मरण तक। देता है । अाम भी यूक की तरह पैदा होता रहता है और आजानुबाहू = ज्ञानु तक लेबी वाहूवाला । जन्म = जन्म से । बाहरी या मानसिक अाधात में बढ़ता है। किमी प्रवत्र मनोवेग (ख) अभिव्याप्ति-ग्रापातलि = पाताल के अत+गि तक । के समय, विशेषकर पीड़ा और शोक में अमू निकलते हैं। क्रोध और हर्ष में भी प्रासू निकलते हैं। अधिक होने पर ग्रास गालो आजीवन-जीवन भर । ( ग ) ईपत् ( थोड़ा, कुछ पर वहुने लगता है और कभी कभी भीतरी ननी के द्वारा नाक प्रापिंगल == कुछ कुछ पीला। ऋकृष्ण = कुछ काला । (ध) में भी चना जाता है और नाक से पानी बहने लगता । अतिक्रमण--ग्राकानिक = वेमौसम का । क्रि० प्र०-- |-- गिरना ।-गिराना ।--चलना । —रुकना। --उप० [सं०] यह प्राय गत्यर्थेक धातुओं के पहले लगता है । --टपका TT |---डानना ।---ढालना --निकालना।--बहना । उनके अर्थों में कुछ योडी सी विशेषता कर देता है, जैसे, 1 ।। --वहार ।। अधूर्णन, प्रारोहण, अकिपन ,अघ्रिाण । जब यह 'गम् (जान । यौ०- अ सू की घार । अ सू की लड़ी । ‘या’ (जाना), 'दा' (देना) तथा 'न' (ले जान!) धानुको - मुहा०-- सू गिराना = ना । जैसे,—प झ झ ञासू गिराते पहले लगता है, तब उनके अर्थों को 3 देता है, जैसे 'गमन । हो । शासू डवडवाना = ञासू निकलना । रोने की दश। होना। (जाना) से अागमन (ग्राना), 'नयन' (ले जान।) मे ‘नयन जैसे -यह सुनते ही उसके शानू डेवडवा अाए । प्रा से (लाना), 'दान' (देना) से 'दाम' (लेना) । ढालना = असू गिराना । रोना । जैसे,—परगट ढारि सके श्रा--संज्ञा पुं० [सं०] ब्रह्मा। पितामह । नहि ग्रासु । घुट घुट मॉम गुपत होय नासू ।—जायमी प्रइिदा- वि० [फा० माइदेह,] अनेवाला । अगितृक । भविष्य (शब्द०) ।श्रा स तोड - कुममय की बप (ग)। प्रास । जैसे,—ाइदा जमाना । थमना= असू फुकना। रोना बंद होना । जैसे,- जब से । अाइदा’--सज्ञा पुं० भविष्य काल । अानेवाला समय । जैसे - इदं । उन्होने यह ममाचार सुना है, तव में उनके असू नही थमते के लिये खवरदार हो रहो। है। उ०-यमते थमते यमेगे अमू । रोना है कुछ हँसी नही | आइदा-क्रि वि० अागे । भविष्य में । जैसे,—हमने समझा दिया है। --मीर (शब्द॰) 1 आसू पीकर रह जाना= भीतर ही अाइदा वह जाने उसका काम जाने । भीतर रोकर रह जाना। अपनी व्यथा को रोकर प्रकट ने य०-प्राइदे। प्राइदे को। इदे में। प्राइदे से । ये सबके करना । मन ही मन मसोसकर रह जाना । जैसे,—(क) मेरे क्रि० वि० के समान प्रयुक्न होते हैं। देखते उसने बच्चे पर हाथ चलाया था, और मैं अासू पीकर आइ -सा सी० [सं० यु] १ आयु । जीवन । उ०--जे । रह गया । (ख) इतना दु ख उस पर पहा वह असू पीकर । सुमाय चितवहि हितु जानी । सो जाने जनु अाइ खटानी रह गया । असु पुछना=आश्वासन मिलना । ढारम वैधना । --मानस, १।२६६ । जैसे,--उस बेचारे की भारी संपत्ति चली गई पर घर वच आइटम--सा पुं० [अ०] मद। उ०- बजट बनाने लगता है, तो हर। जाने से ग्रासु पुछ गए ।-(शब्द॰) । असू पोछना = (१) एक अाइटम में दो चार लाख जादा लिखा देता है।-रगभूमि बहते हुए ग्रामू को कपड़े में सुखाना । (२) ढारस बँधाना । | भा० २, पृ० ६०५।। दिलासा देना । तमत्ती देना । अाश्वासन देना । जैसे--(क) माइडियल-वि० [अ०] श्रेष्ठ । प्रादर्श । उसका घर ऐमा मग्रानाश हुआ कि कोई प्रासू पोछनेवा ना। श्राइना--संज्ञा पुं॰ [फा० अाइनह,] दे॰ 'आईना' । उ०-है निराल मी न रहा । (व) हमारा मारा रुपया मारा गया, अँसू पोछने के लिये १००) मिले हैं।—आसू भर आना = ग्रासू निकल प्रभू-कला जिसमें बमी, वह निराल अाईना है फूटता चोवे० पडना । असू भर लाग= रोने लगना । जैसे,—यह सुनते ही पृ० २३ । वह ग्रासू भर लाया । आसु का तार बँधना=बराबर असू आइस--सज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'आयमु' । बहना । सुग्रो से मुंह धोना = बहुत अमू गिराना । व इत। | इसु- सझा पुं० [हिं०] दे० 'अयमु' । रोता । अत्यत वि नाप करना । अाई--सच्चा स्त्री॰ [म० श्रायु] १ अायु । जीवन । उ०-सतयुग र । सूढाल---सज्ञा पुं० [हिं० स +ढालना] घोड़ो और चौपायो की वर्ष की प्राई, श्रेता दश सहस्र कह गाई ।---सूर (शब्द॰) । २ एक बीमारी जिसमें उनकी आखो से असू बहा करता है । मृत्यु । मौत (त्रा०) भरा कटोरा दवा का, ठडा करके पी । ते आ हड--सञ्ज्ञा पुं० [सं० अ + भाँड] वरतन । अाई मैं मरू', किसी तरह तू जी ।--(शब्द॰) । हड वीहँड-वि० [प्रा० अहंड=ोजना, भटकना+विहड= आई–क्रि० अ० ‘श्राना' का भूतकाल झी० टूटना, विवरना] तितरवितर । ऊबडबावडे । । यो०-ई गई = आकर गुजरी हुई बात ।