पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/४७३

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आधी ४१६ मुं मुहा०—आधी उठाना = हलचल मचना । धूम धाम मचाना । छिलका प्रति वर्ष उतरा करना है कातिक से मात्र तर्क आधी के अम = (१) अधी मे ग्राप से प्राप गिरे हुए ग्राम । इसका फन रहता है जो गोन्न कागजी नीतू के बराबर (२) विना परिश्रम के मिली हुई चीज । बहुत सस्ती चोज । होता है । इगके ऊपर का छिन ।। इतना पता होना (३) थोडे दिन रहनेवाली चीज । है कि उग की नगे दिउाई देती हैं । यह माद में कमै नापन लिए अाँधी-वि० अाधी की तरह तेज । किसी चीज को झटपट करनेवा । हुए होता है । आयुर्वेद में उसे शीतल, हैन ते या दाह दिन चालाक । चुम्त । जैसे,--काम करने में तो वह अधी है । श्रीर प्रमेह का नाण करनेवाला बन नाया है। इसके मेयोग मे मुहा०—-7ीधी होना वहुत तेज चलना ।। फिना, प्रवनप्राण अादि प्रौपध बनने है । प्रायले का मुरब्या अाँवपु०-- सज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'म' । उ०—कने सोहाए मधुर फन, मी यहून अच्छा होता है । अँवले की पत्तियो में चमडा भी | अब गए झकझोरि ।—भिखारी० ग्र०, पृ० १३६ । सिझापा जाता है । इराकी नऊडी पानी में नहीं नडती। इनी अाँबा(+--प्रज्ञा पुं० [हिं०] 'ग्राम'। उ०—प्रौर यह वैष्णव श्रवा लेन से कूम्रो के नीमच ग्रादि इगो से बनने हैं। कौं वजार मे गयो । सो वजार में कहू' अवा न मिले ।--दो ३ विपी को नीचे जाने का कुश्ती के एक पेंच। सौ बावन०, भा० २, पृ० ३४ । विशेष--जब विपक्षी का हाय अपनी गरदन पर है, तब अपना झाँवाहल्दी- संज्ञा स्त्री॰ [हिं०] दे० 'प्रामाहरदी' । भी वही हाथ उमकी गरदन पर नढावे और दूसरे से अयाय--सज्ञा पु० [अनु॰] अनापसनाप । अ डबड । व्यर्थ की बात । शत्रु के उ म हाथ को जो अपनी गरदन पर है झटका देकर अस वद्ध प्रलाप ।। हटाते हुए उसको नीचे लावै । इसका तोड विषम पैतरा करे आव--सज्ञा पुं० [सं० प्राप्त = कच्चा]एक प्रकार का चिकना सफेद लस अथवा शत्रु की गरदन पर का हाब केहूनी पर से हटाकर दार विकृन द्रव्य या मन जो अन्न न पचने से होता है । पैतरा बढ़ाने हुए बाहरी टैग मार गिरावे । । क्रि० प्र०--गिरता ।---पडना । श्री वलापती-मज्ञा स्त्री० [हिं० अंशधला+पती] एक प्रकार की मिनाई अवठ-संज्ञा पुं० [म० ओप्ठ हि० अोठ] १ किनारा । वारी । २ जिसमें पत्ती की नरह दोन अोर तिरले टोके मारे जाते हैं । कपड का किनारा । बरतन की बारी । वलासारगधक--सा ग्मी०[हिं० श्रावला+मं० सार+गधक] बूर्व | वडना--क्रि० अ० [हिं०Vउमड] उमडना । उ०—भरे रुचि साफ की हुई गधक जो पारदर्शक होनी है, यह माने में अधिक मार सुकुमार सरसिज सार सोमा रूप सागर अपार रस खाट्टी होती है । आवड ।- देव (शब्द॰) । श्रीवा-सच्चा पु० [सं० पाक-] वह ग हुई। जिसमे कुम्हार आवडा ---वि० [हिं० उमडना] गहरा । उ०--जेता मेछ। बोलवा, लोग मिट्टी के बरतने पकाते हैं । जैसे,--कुम्हार वा लगा तेता साधु न जान । पहिले थाह दिखाइ के, प्रवडे देसी अनि । कबीर ( शब्द०)। क्रि० प्र०--लगाना । अविडा+--सज्ञा पुं० [सं० आम्नातक प्रा० अ वाडय] एक प्रसिद्ध खट्टा महा०—अव का प्रया’ बिगड़ना = सारे परिवार का विगढ़ना । फल । अमडा। सारे परिवार को कुत्सित विचार होना। वे बिगडना = वन-सज्ञा पुं० [स० अानन = मुह] १ लोहे की सामी जो पहिए के अवे के बरतनो का ठीक ठीक न पकना । उस छेद के मुंह पर लगी रहती है जिसमे होकर घुरी का स-सच्चा स्त्री० [सं० काश-क्षत, हि० गत] मवेदना । दर्द । दडे जाता है । मुहँडो । २ वह औजार जिससे लोहे के छेद को लोहार लोग बढाते हैं। स --सज्ञा पुं० [हिं०] दे॰ 'अश' । उ०-- विरत सुदर अधर है, आवरा --सज्ञा पुं० [सं० प्रमिलक, प्र० अमलय] दे॰ 'अवला'। | रहन न जिहि घट साँस । मुरी मम पाई न हमें प्रेम प्रीति को अस ।—स० सप्तक, पृ० १८७ । उ0--अल्चिा अमिलो अवहुलदी, अनि अावरा साल अफ नदी। स –सा पुं० [सअन्न] असि । उ०प रस पीवत अघात -सुजान०, पृ० १६१। | ना हुते जो तव सोई अब प्रास हृ उरि गिरिवो करे ।आवल---सझा पु० [सं० उल्वम = जरायु । अथवा, अ वर = आच्छादन] | रत्नाकर, भा० १, पृ० १२१ ।। झिल्ली जिससे गर्म में बच्चे निपटे रहते हैं। यह झिली अस?--सज्ञा जी०म० अ शु प्रा० अ सु]1 गुत नी । होरी । २ रेशा । प्राय वच्चा होने के पीछे गिर जाती है । बॅडी । जेरी । साम। मी---सा स्त्री० [H० अ = भाग] १. भाजी । बैना । मिठाई जो यौ०- वल नाल । इष्ट-मित्रों के यहां बाँटी जाती है ।--7+लन बाल के द्वेही आवलगट्टा-सज्ञा पुं० [हिं० वला +f० गट्टा बा गाठ] अँावने का दिना ते परी मन अाइ मनेह की फागी । काम कलोल नि मे सूखी हुग्रा फन ।। मतिर म लगे मनो वटन मोद की असी मतिराम ।विशेष—यह दवा में तथा सिर मलने के काम आता है । (शब्द०) २ भाग । हिस्सा । उ०----नारि कुलीन कुलीननि आवला-सञ्ज्ञा पुं० [सं० मामल क, प्रा० अमलभो] १ एक प्रसिद्ध पेह। लै रमै मैं उन मैं चही एक ने असी ।—भिखारी ग्रं०, भ० २ इस पेड़ का फैन । पृ० १५६ । विशेष—इस की पत्ति । इम जी की तरह महीन महीन होती हैं। सु –सच्चा पु० [हिं०] दे॰ 'असू'। उ०-माता भरतु गोद बैठारे इसकी लकड़ी कुछ सफेदी लिए होती है और उके ऊपर का अाँसु पोछि मृदु बचन उचारे ।—मानस, २ । १६५।