पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/४७०

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आँखामहौचनी ४०३ अर्चना पाता और सव लडके एक नियत स्थान को चूम लेते हैं, तो मुहा०--अगुरी फोरन = उँगलिया घटकाना। उ0-विर्मल फिर वही लड़ का घोर बनाया जाता है। यदि सात बार वही अँगोछी पोछि भूपन सुधारि सिर अँगुरिन फोरि त्रिन तोरि लड को चोर हुआ तो फिर उसकी टाँगे वाँधी जाती हैं और तोरि डारती --भिखारी० ग्र०, भा० २ पृ० १५७ । । उसके चारो ओर एक कु डल या गोइले खीच दिया जाता है। च–संज्ञा स्त्री० [सं० अर्चि = आग की लपट, पा० अच्चि] १. लह के बारी बारी से उस गोडले के भीतर पैर रखते हैं और गरमी । ताप, जैसे,—(क) आग यौर दूर हटा दी, प्राच उस लड़के को 'बुढिया' ‘बुढिया' कहकर चिढाकर भागते हैं। लगती है । (ख) कोयले की अँच पर भोजन अच्छा पकता है । यह चोर या बुढिया वना हुअा लड का मडल के भीतर जिमको । उ०-बौरी घेनु दुहाइ छानि पय मधुर अाचि मे औटिं। छू पाता है, वह चोर हो जाता है। सिरायौ ।—सूर०, १० । १६०० ।। खमिहींचनी+---सज्ञा स्त्री० [हिं० शास+मिहीचनी = मीचना] । क्रि० प्र०—ाना ।-- पहुंचना ।—लगना ।। दे० 'अखिमिचौली' । उ०—-अखिमिहीचनी खेलत मोहि दुई। २ आग की लपट । लौ, जैसे,—चूल्हे में और अँच कर दो, तवे । विधि सोध कहू' नटि जाइ न ---देव ग्र ०, पृ० ११ । तक तो अँच पहुंचती ही नहीं । कोखमीचली --सा स्त्री० [हिं० [सा +/मीच+ली (प्रत्य॰)] । क्रि० प्र०—करना ।—फैलना ।—लगना । दे० 'अखिमिचौली' । उ०—कहू' खेलत मिलि ग्वाल मडली ३ अाग 1 अग्नि, जैसे--(क) अँच जला दो। (ख) जाओ। अाँखमीचली खेल । चढ चढी को खेल सखन में खेलत हैं। थोडी सी अँच लायो । रस रेल 1--सूर (शब्द॰) । मुहा०-- च साना । गरमी पाना । आग पर चढ़ना । जैसे,-- आंखमुचाई, श्राखम्”दाई–सल्ला ओ० [हिं० आँखा+मीच+प्राई । यह बरतन मॅच खाते ही फूट जायगा। आच दिखाना = आग | (प्रत्य०) तया अाँखा +1मूद + आई प्रत्य०]दे० 'अखिमिचौली।। के सामने रखकर गरम करना, जैसे,—जरा अँच दिखा दो। आखा–सज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'ग्राबा' । तो बरनन का सत्र घी निकल अावे । प्राग्वि--संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे॰ 'ख' । उ०—-मो वह अखि मीडि ४ ताव । जैसे,—अभी इस रस में एक अँच की कसर है । (ख) । मीडि के फिर फिरि के देखने लाग्यो ।—दो सौ वावन,' भा० उसके पास सौ च का अभ्रक है । २, पृ० ६ । मुहा०---- च खाना = ताव खाना । आवश्यकता से अधिक। खी ----सज्ञा स्त्री० [हिं०] दे॰ 'अखि' । उ०—-अखी मद्धे पाखी पकना । जैसे,—दूध अॅच खा गया है। इससे कुछ कडा चमकै पाँखो मद्धे द्वार। -कवीर श०, भा०, १, पृ० ५५ । मालूम पडता है । अगq--सज्ञा पुं० [स० अङ्ग] १ अग। उ०-(क) बानिनि चली ५. तेज ! प्रताप । जैसे,—तलवार की अँच । ६ आघात । सेंदुर दिये माँगा। केयथिनि चली समाइ न अगिा ।—जायसी चोट । ७. हानि । अहित । अनिष्ट । जैसे,—(क) तुम। ग्र २, पृ० ८१ । (ख) कहि पठई जियमावती, पिय प्रावन की निश्चित रहो, तुमपर किसी प्रकार की च न आवेगी । वति । फूली अँगन मैं फिर, अॅग न ग सभात ।- बिहारी (ख) सच को अँच क्या । ३०--निहचित होइ के हुरि। र०, दो० २५४ । २ कुच । स्तन् । उ०-कहै पद्माकर भज मन मे राखे सँच । इन पाचन को बम करे, ताहि न । क्यो अँग न समात ग्रागी लगी कहि तोहि जागी उर में ग्रावे च ।--कवीर (शब्द०) उचाई है।--पद्माकर अ ०, पृ० ८४ । ३ चराई जो प्रति क्रि० प्र०—आना ।—पहुचना । चौपाये पर ली जाती है । ८ विपत्ति । सकट । ग्राफत । सतप । जैसे,--इस अच से । नि- सच्चा पुं० [सं० अङ्गण] घर के भीतर का सहन । धर के । निकल अावें तो कहे। उ०—ाए नर चार पाँच, जानी भीतर का वह चौखुटा म्यान जिसके चारो ओर कोठरिया प्रभ आच, गांड लियो सो दिखायो अच, चले भक्त भाइ और वरामदे हो। चौक । अजिर । उ०--अँगन खेले नद के है ।—प्रिया० (शब्द०) । ६ प्रेम । मुहब्बत । जैसे,---माता नदी --सूर०, १० | ११७ । । । की च वडी होती है । १० काम 1 ताप । प्रागल---सज्ञा जी० [स० अर्गल] अगरी । अगंला । उ0--नैव वाच का–संज्ञा पुं० [देश॰] वह लटकता हुअा रस्सा जिसके छोर पर वाई ने किवाड दै के अँगल मारि दई |--दो सौ बावन०, के छल्ले में से होकर वह रस्मा जाता है जिसपर खडे होकर मा० १, पृ० ३४१ ।। खलासी जहाज का पाने यौनते और लपेटते हैं । अगी@t--सज्ञा स्त्री० [सं० अडिगका प्रा० अ गिश्रा] अँगियो । चुना --क्रि० स० [हिं० प्रच] जाना । तापना । उ0--- उ --उठि ग्रापुही आसन दे रसख्यान सी लाल सो अँगी कोप कृसानु गुमान अवा घट जो जिनके मन अँच न च । कढावति है ।-भिखारी ग्र०, भा० २, पृ० १७४।। तुलमी ग्रंo; पृ० २२६ ।। गी--सज्ञा स्त्री॰ [हिं॰] दे॰ 'अघी' । । चना--क्रि० स० [स० अञ्चन] प्रवृत्त होना । गतिशीन होना। अगर-सज्ञा पुं० [हिं०] मुं० 'अगुन' । उ०—द्वादसे गुर पवन चलतु । उ०—मुद्रा खोनि गोविंद चद जव वाचन आचे। परम प्रेम |: है नाहि सिमटि घर आना ।-जग० बानी, मा० २, पृ० ६५ । रस माचे अच्छर ने परत बचे !-—नद० ग्र०, पृ० २०४। अगुरी —सज्ञा स्त्री॰ [स० अङ्गुली [ उँगली । उo--गयी अचानक प्राचना-क्रि० स० [हिं०] दे० 'अचवना' । उ०--नाचो हे रुद्रताल, अगुरी छाती छैलु छुवाइ -विहारी र०, दो० ३८६ । ।। अचो जग ऋजु अाल ---आराधनी, पु० ५५ ।

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