पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/४६१

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३६४ अडीर प्रांशुक बल श्राडीर-वि० [सं० अण्डोर] १ वहुत अडोवाला । २ लवान । प्रौढ़ अातवेंशिक से प्रश्न हुआ, वितनी नई दासियाँ अत पुर में पाई। ( जैसे, वैन ) (को॰] । हैं ।-- इ०, पृ० ४७ ।। आंत-वि० [सं० आन्त] [वि० जी० आती] अतिम [को०] । श्रोतवेंश्मिक-वि० [सं० प्रान्तवें श्मिक] घर के अंदर या भीतरी भाग प्रातर-वि० [सं० अन्तर] छिपा हुआ। भीतरी। गुप्त । उ०— से सबंध रखनेवाला [को०] ! इसके वाह्य और अतिर सौंदर्य के भेद करना मेरे विचार से अतिका–सच्चा स्त्री॰ [ स० प्रान्तिका ] बड़ी बहन को०] । असगत है --जय० प्र०, पृ० ३८ । अत्रि-वि० [ सु० आन्त्र } अति का । अति मवधी (को०] । प्रातर--सज्ञा पुं० १ भीतरी स्वभाव । अत प्रकृति । २ जिगरी । अत्र--संज्ञा पुं० अति को०] । | दोस्त । ३ हृदय [को०] । आत्रिक-वि० [ म० अन्त्रिक ] त सवधी की । आत पुरिक'--वि० [सं० प्रान्त पुरिक] अत पुरम बधी [को०] । अांदोल-सझा पुं० [सं० आन्दोल] १ हि जना डुलना । 'भूतना । २ प्रात पुरिक--सझा पु० अत पुर की वार्ता या कार्य [को०] । काँपना । करन (को॰] । प्रातरज्ञ-वि० [स० अन्तरज्ञ] प्रातरिक या गुह्य तत्व को जानने- प्रादोलक-मज्ञा पुं॰ [ म० आन्दोलक ] झूला। | वाला [को०)। शादोलन-सज्ञा पुं० [सं० आन्दोलन] १ बार वार हिलना हुलना । प्रातरतम्य-सज्ञा पुं० [सं० अन्तरतम्य] घनिष्ठ या निकट सवध, जैसे इधर से उधर हिनना । केपिना। भूलना । उ॰—अलोक दो अक्षरो का (को०)। रश्मि से बुने उपा अचल में अदोलन अमद ।-कामायनी, पृ० तर प्रपच---संज्ञा पुं० [सं० अन्तर+प्रपञ्च] भ्रम के कारण उत्पन्न १६८ । २ उथल पुथल करनेवाला सामूहिक प्रयत्न । हलचल । | धारणा (को०] । धूम, जैसे, शिक्षा के प्रचार के लिये वहाँ खूब दोन हो रहा आतरागारिक-वि० [म० प्रान्तरागारिक] भाडार या भाडागारिक के है । उ०-इसके पीछे तो खड़ी बो के लिये एक आदोल। कर्तव्यों से माध रखनेवाला [को०] । ही खड़ा हुआ ।इतिहास०, पृ० १०६ ।। श्रातरायिक---वि० [सं० शान्तरायिक] १ अतर से उपस्थित होने दोलित-वि• [ सं• आन्दै लित][वि०० माद लिता]हिलता डुलता वाला । २ समय समय पर उद्धत [को०] 1 प्रातराल?--वि० [ स० अन्तराल ] अतर की प्रकृति की जानकारी हुआ झोके खाता हु । उ०—इन कवियों के मन मे एक अघी | रखनेवाला को०] । उठ रही थी जिसमे अादोलित होते हुए वे उडे जा रहे थे ।-- तराल-सज्ञा पुं० [ स० अन्तराल 1 एक दार्शनिक स प्रदाय । इतिहास ०, पृ० ६५० । २. कंपनयुक्त । हलचल से भरा । आतरिक वि० [ स० अन्तर+इक (प्रत्य०) ] १. तर या हृदय अघिस-सज्ञा पु० [ स० आन्घस ] मड । माड (को०)। सबधी उ०—जव एक व्यक्ति अपने मातर सत्य को प्राप्त करने । माघसिक-सा पुं० [स० अन्धसिक] पाचक । पाककार । रसोइया के लिये अपनी सारी शक्तियो को केंद्रीभूत करता है --मुशी को०)। अम० अ०, पृ० ४७ । २ घरेलू । भीतरी । उ०-नद प्रातरिक | प्राधसिक–वि० भोजन या खाना बनानेवाला [को०] । विग्रह के कारण जर्जरित हो गया था ।-चद्र०, पृ० ३२ ।। आध्य-वि० [सं० आन्ध्य] १ अघता । अधापन् । २ अधकार[को०]। आंतरिकता–संझा स्त्री० [सं० तरिक+ता (प्रत्य०)] घनिष्ठता । अध्'-सज्ञा पुं० [सं० आन्ध्र ] १ ताप्ती नदी के किनारे का 'देश । आत्मीयता । उ०—वह कुछ सकुचाया और फिर जैसे उसने २. भारत का तेलुगु भाषी प्रदेश या राज्य । मुझे सह लिया और प्रातरिकता भी बढ़ गई ।भस्मावृत०, अन्न-वि० अघ्र देश का निवासी । पृ० १० || आब--संज्ञा पुं० [सं० आम्ध] अम्न का एक प्रकार या भेद (को०] । तरिक्ष वि० [म० आन्तरिक्ष] [वि॰ स्त्री० आंतरिक्षो] १ अतरिक्ष | आबष्ठ-सज्ञा पुं० [सं० आम्बप्ठ] अॅवष्ठ देश का निवासी व्यक्तिको०] । सव' । २ अतरिक्ष में उत्पन्न [को०] । विकेय-सञ्ज्ञा पुं० [सं० आम्बिकेय] अविका का पुत्र । १ धृतराष्ट्र । प्रातरिक्ष-- ज्ञा पु० १ पृथ्वी और प्रकाश के बीच का स्थान । २ २ कातिकेय [को॰] । वर्षा की जले [को॰] । वुद - वि० [ स० अग्युव ] अबुद या वृदिल संबधी [को० ॥ अतिरीक्ष-दि०, सच्चा पुं० [सं० अन्तरीक्ष] दे॰ 'आतरिक्ष' [को०] । अभिस----वि० [अ० अम्भस] [वि॰ स्त्री० आभसी] १ जल स्वघी । तरीय–वि० [सं० अन्तर+ईय (प्रत्य॰)] आतरिक। भीतरी । २ द्रव । तरल [को०)। हादिक । उ०- यदि आतरीय कष्ट न हो तो भी ।-प्रेम अभिसिक-वि० स० अम्भसिक] जन में रहनेवाला। जलचरको० । घन॰, भा० २, पृ० १६० ।। अभिसिक-सझी पुं० मछली [को०] । तिर्गहिक–वि० [सं० अन्नहि रु] [विः स्रो० नहि ] घर के आभसी-सज्ञा स्त्री॰ [ स० अम्भसी ] घेरड सहिता में वर्णित पाच भीतर का। घर के भीतर उत्पन्न [को॰] ।। | धारणा मुद्राशो में से एक । जलचरी मुद्रा । प्रतिवेदिक-वि० [ म० अन्तर्वेदिक ] वेदिका या वेदी के भीतर का आशिक-वि० [सं०] अशसवल्ली। प्रण विषयक । कुछ। थोड़ा । शुक जल-संज्ञा पुं० [सं०] किरण दिखोया हुआ पानी । वह जल तर्वेशिक- सच्चा पुं० [म० श्रान्तर्देशिक] दे० 'अतर्वेशिक' । उ०: जो एक ताबे के बर्तन में रखकर दिन भर धूप में और रात [को०] ।