पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/४६०

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मांडो -हिंदी वर्णमाला का दूसरा अक्षर जो ‘अ’ का दीर्घ Kा है। आगिरस सत्र-सज्ञा पुं० [म० आङ्गिरस +मत्र] यज्ञ विशेष । बृहस्पति| प्राकिक-संज्ञा पुं० [ म० श्राङ्किक 1 सख्याता । गणक | गणना सत्र [को०) । | करनेवाला ।। मागूप--संज्ञा पुं० [सं० श्राडगूप ] स्तुति । ऋचा । स्तोत्र (को०] ! प्राकृशिक—सधा पुं० [म० डुकुशिक] अकुश से आघात करनेवाला अग्ल- वि० [अ० ऐ ग्लो] अँगरेजी में सबधित । अँगरेजी ।। (वै] । प्राचन---संज्ञा पुं० [म० अञ्चन] कांटा, वाण या इसी प्रकार की कोई प्राक्षी–सच्चा स्त्री॰ [ मं० प्राङ्क्षी ] एक प्रकार का वाद्य [को॰] । नुकीली चीज शरीर से बाहर निकालना (को०] । ग'---वि० [सं० प्राङ्ग][वि० स्त्री० ग्रनी ]१ अन या शरीरसंबधी । अाचलिक--वि० [स०अञ्चल] अचन या स्थान विशेप का । २ शब्द के अाधार या ग्रग मे सब I रखनेवा ना (व्या०) । ३ प्रचलिकता-संज्ञा स्त्री० [सं० अवनि क +त्रा (१०)] क्षेत्र विशेष अ या अवयवयुकान या उसमे म वध रख नेत्रा ना । ४ गए यो से सवध रखने वाली स्थिति । निम्न पानों से संबंध रखने वाला (नाट्य०)। ५ वेदो के अगे छन-संज्ञा पुं० [सं०ग्राञ्छन] टूटी हुई हड्डी बैठाना । उतरा हुआ से सवध रखनेवाला । ६ अग देश में पैदा किया हुआ था पैर या जो ठीक करना [को०] । उत्पन्न [को०] । अजिन-वि० [सं०ञ्जन]१ जन संवधी या अजनयुक्त । २ स्थू न । | अन-सज्ञा पुं० १ अग देश का राजकुमार । २ सुकुमार शरीर । | मोटा (को०] । : अग । गर । आजन-संज्ञा पुं० १ ख का अजन । २ अजना के पुत्र हनूमान्। मक'--वि० [५० प्राङ्गक][ वि० श्रागकी प्रग देश में उत्पन्न [को०] मारुति ।। किल्ला पु० १ अग देश का निवासी व्यक्ति । २ अग देश का अाजनिक्य-संज्ञा पुं० [सं० श्राञ्जनिय]अखि का अजन बनाने में काम मासक [को०] । आनेवाली चीज [क्री०] । गदा--सज्ञी स्त्री० [सं०अाङ्गदी] राजा अगद की राजधानी [को०)। अाजनी-मज्ञा स्त्री० [सं०शाजनी] १ अाँख का अजन । २ अजन की विद्य-वि० [सं० प्राङ्गविद्य] १. अगविद्या मवधी । २. अगविद्य। डिविया (को०] । " का जानकार या ज्ञानी (को०) । प्रजनीकारी-सज्ञा स्त्री० [सं०ञ्जनकारी]अजन तैयारी करनेवाली प्रागार-नशा पु० [ स० अङ्गार] कोयले का ढेर या समूह [को०] । या लगानेवाली स्त्री [को०] । मरिक-वि० [सं० प्राङ्गारिक] कोय ना सु नगाने या जे नानेबानाको०] अगिक'--वि० [ मं० प्रडिक] [स्त्री० आगिकी १ अंगमवधी । अग। जिनेय-ज्ञा पुं० [म०प्राञ्जनेय] अजना के पुत्र हनूमान् । उ०कैा । २ अग की चेष्टा द्वारा व्यक्त या प्रकट किया हैं ग्रा, जैसे आजनेय को अधिक कृती उन कार्तिकेय में भी ले खो । - आगिक अभिनय (नाट्य०) । साकेत, पृ० ३८२ ।। ता पुं० १ चिन के भाव को प्रकट करनेवाली चेष्टा, जैसे आजनिक-सजा पु० [H० आननि ह] एक प्रकार का अर्थ वद्राकार भ्र विक्षेप, हाव अादि । ३ रस में कायिक अनुमाव । ३ नाटक वा को॰] ।। | में अभिनय के चार भेदो मे से एक ।। भाजलिप--आज्ञा पुं० [स० आज़लिय] नम्रता में प्रजन या हाथ विश्व-चार भेद ये हैं—(क) आगिक = शरीर की चेष्टा बनाना, जोइना [को॰] । । हाथ, पैर हिलाना आदि । (ख) वाचिक = वातचीत आदि की जिल्यक-संज्ञा पुं० [सं० अञ्जल्यक] करबद्ध होना । हाथ जोइना नकल । (ग) श्राहार्य = वेशभूपा आदि बनाना । (घ) । [को॰] । सात्विक = स्वरम ग, कप, वैवण्र्य अादि, की नकल । प्राजस-वि० [सं० आजस] [ वि० जी० आजसी ]सद्यस्क । तात्का लिक । क्रमिक (फो०] । ४ मृदग या ढोल का वादक (को०)। ५ वाँहदार या बँहोलीदार पुरुपों का परिधान जो घुटनों के नीचे तक पहुचता था । रीचे तक पता था । जिन्य-सा ५°। जिनेय-सज्ञा पुं० [सं० अरन्जिनेय १ एक प्रकार की छिपक नी (को०। अगा [को०] । अडि--वि० [सं० अण्ड] अडे से उत्पन्न (को॰] । से 'सी पुं० [म अङ्गिरस] [वि०ी• आगिरती] १ अगिरी प्राड-संज्ञा पुं० १ ब्रह्मा । हिरण्यगर्म । २ प्रडो का ढेर है । के पुत्र वृहम्पति, तथ्ष और सवर्त । २ अगिरा के गौत्र का ३ अडकोश [को०)। पुरुप । ३ अथर्व वेद की चार ऋचामो का सूक्त जिसके द्रष्टा आडज-वि० [स आग्डज] अडे से उत्पन्न [को०] । अगिरा थे । अडिज--सझा पु० १ पक्षी । २ पदी का शरीर । ३ सई (को०] । नामवि० [ म० श्राद्धरस] १ अगिरासवधी । अगिरा को ।। । २ अगिरा में उत्पन्न [को०] । झाडिक, पाडीक-वि० [म० आण्डिक,प्राण्डीकडक] ग्रइयुत (को०] । झाडी--संज्ञा स्त्री० [ रा० अण्डो ] अडकोप को॰] । = = = = यौं०--श्रागिकाभिनय ।। |