पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/४५७

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अहिंसावादी प्रदिवेल में किसी प्राणी को दु व या पीडा न पहचाना। ३ बौद्व- अहिंजिन- मश १० [१० अहिजत् । इद्र । ३ ।। शास्त्रानुसार ग्रम और स्थावर की दु ग्रं न देना । ४ जैन- अहजिल्ला--सा ० [१०] नागफनी । । शास्त्रानुसार प्रमोद से भी शर्म और स्थावर यो फिी काने अहिटा --मा ५० [ J० ग्रहदी ] वह व्यक्ति ज जमीदार की में किसी प्रकार की हानि न पहुचाना । धर्मशास्त्र अनुसार। मोर ग उग गाभी योग हैन । कुनै के त्रिय वैद्राया शास्त्र की विधि के विरुद्व किमी प्राणो की हिमा न करना ।६ 'नाय जिमने नगान या दैन। न दिया हो । गहुन । कट कपास या हम नाम की घास । ७ सुरदार (को०] । अहित--वि० [१०] १ शत्रु । ३ । विधा । ३ हानिकारक । अहिंसावादी - वि० [सं० प्रहना वादिन् प्रहमा का सिद्धात मानने अनुप फ़ार) । ३०-- ग्रहित छ भनि । चरनि | वाला कि० ।। न जाइ ।-नृर ० १ । १६ ।। अहिंस्र–वि० [सं०] जो हिना न वारे । अहिन के । हित-मज्ञी पुं० बुराई। प्रयाग । ३०-दुग्याना दुर जोन अस्रि--संज्ञा पु० १ एक प्रकार का पौधा । ३ नुकसान न पहचाने- पटयो पार । अनि चिनारी ।- , १ । १२२।। वाला व्यवहार कि० । अहितकर- वि० [१०] अहित करने वा। रानि हर [को०)। अहि- संज्ञा पुं० [सं०] १ गाँ।। २ ।। ३ वागुर। ४ ल । अहितकारी-- वि० [१० हितारिन्] *० 'ग्रहितर' । वेचक । ५ ग्राश्लेषा नक्षन्। ६ पृथिवीं । ७ मुय । ६ थि । अहितु इि - पुं० [न ० रितु]ि १ ।। मन को वश में 6 सीसा । १० मात्रिक गण म ठगण अर्थात् छह मायग्रो के | करनेवा।। २ जादूगर [फो०] । समूह का छठा भद जिममे क्रम से लघु गुरु गुर लघु'। 5 ।' अहिदेव--- मुं० [१०] अापनेपा न६,५ (०] । मात्राएँ होती हैं, जैसे--दयासिंधु । ११ इक्कीन अक्षरों के हिदैवत–स पु० [२०] '२० 'अहिदय' । वृत्त का एक भेद जिनमें पहले छह भगण र अन में मगण अाहिद्वि-ज्ञा पुं० [न० हिद्विप] १ २ । २ नं । ३ मयूर । होता है, जैसे-- मोर ममय हरि गेंद जो नेलते नगे नज़ा ४ गम्छ । } }ग फि० ।। यमुना तीरा । नेद गिरो यमुना दह में झटि कूदि परे ध•ि के अहिनकुनि मग • [न ०] १ बर्ष : नेवन सम्वाभाविक धीरा । वान पुकार को तय नद यशोमनि रोवति ही धाए । पैर । ३ नहज गाना [को॰] । दाऊ हे समुभाय इत अहि नाभि उन दह में अाए |--- अहिनवि--सज्ञा पुं० [न] नपराज । पनाग (०] । (शब्द०)। १२ नाभि [को०] । १३ बादल [को॰] । १४ जन अहिनामभना---- ० [ग ०] बलदेव । एक नाम (को०] । [को०] अहिनाहु-- मग पुं० [ १० हिनायि, प्रा० अहिताह ! पनाग । अहिक'--सया पु० [७] १ अ म । २ ध्रुव तारा [को०] । उ०-7न् विपाहू जग भने । मात्र हि न बरनि गिरा अहिक-वि० [] स्थित रहनेवाला ( यह सम्यवाच शब्द के अन अहिनाई 1-मान म, १॥३६१। । | में लगकर उतने दिनो का बोध कता है ) को०] । अहिनिमक-मज्ञा पुं० [म ०] न प प केवल [को॰] । अहिकात -सज्ञा पुं॰ [ म० अहिहान्न ] पवन । बाबु [को०] । अहिनी---ज्ञा जी० [स०] नपणी । नागिन । उ०-दुष्ट हृदय दारुन अहिका–सजा मी० [अ०] से मन का वृक्ष । | जम ग्रहिनी -मानम, ३।११ ।। अहिकोप–संज्ञा पुं० [सं०] १ नि म हो । गार की चुप । २ छ- अहिप--संज्ञा पुं० [न०] शेषनाग । उ०—प्तहिन महिने जहं नमि विशेष (को०] । प्रभुनाई ।-मानस, २।२५३।। अहिक्षेत्र--संज्ञा पुं० [स०] १ दक्षिण पाचन की राजधानी । २ अहिपनि--पज्ञा पुं० [म ०] १ व मूिहि न । २ नं प्रकार का प्राचीन दक्षिण पाचान । अहिच्छ छ । ग' । ३ शपनाग । उ०-गहि सके नार उदार अहिपति विशेप- यह देश कपिल मे चबन तक या । इसे अर्जुन ने द्रुपद से जीनकर द्रोण को गुरुदक्षिण। मे दिया था। बार बारह मोह ।-भानन, ५ । ३५ ।। अहिगण--सज्ञा पुं० [सं०] पाँव मात्रयों के गण-गण को गाते वाँ अहिपुत्रक -गज। पु० [न ०] एक प्ररि की राति नौर। को भेद जिम में एक गुरु ग्रीन तीन लध होते हैं । iii), जैसे- हिपूनन---ज्ञा पुं० [१०] [नी अहिएतना] च्चो को होनेवाली | पापहर । । एक रोग [ने] । अहिचक्र--संज्ञा पुं॰ [म०] नापिक चक्रविणेप [ो । विगैर-इगमें बच्चो को पनी मा दन्त शाता है। गुदा से सदा अहिच्छत्र--सज्ञा पु० [७] १ प्राचीन दक्षिण पावाल । यह देश मन बहा करता है । गुदा लाल बनी रहती है। धाने पोछने से अर्जुन ने दुदि रा जीतकर द्रोण को गुरुदक्षिणा में दिया था। युजली उठती मोर फोड़े निन्नने हैं। २ दक्षिण पाचन की राजधानी । ३ मेढामीगी। अहिफेन-सज्ञा पुं॰ [सं०] १ मर्प के मुह की लार या फेन । २. अहिच्छत्रक-ज्ञा पुं० [१०] कुकुरमुत्ता [को०] । अफीम। अहिच्छत्रा--सज्ञा स्त्री॰ [फा०] १. अहिच्छत्र नमक देश की राज- अहिवन--संज्ञा पुं० [न०] १ एकाद में रुद्रों में से एक। २ शिव । घानी । २ श कर । ३ मेप गी । मेद्वामिगी [को॰] । ३ उत्तरा भाद्रपद नक्षत्र । ४ एक मरुन् का नाम (को०)। अहिजत--ज्ञा पु० [सं०] श्रीकृष्ण [को०] । अहिबेल(--सज्ञा स्त्री॰ [स० महिवल्लो, प्रा० अहिवेलो 1 नागवेलि ।