पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/४५२

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स्थिति ३६५ अस्फ अस्थिति----ज्ञा स्त्री॰ [म०] १. दृइना या मिथरता का प्रभाव । चव- अस्थिसार-सञ्ज्ञा पुं० [सं०] मज्जा [को०)। लता । डॉ बाहोलपने । २ अच्छे शऊर ये सलीके की कमी को०] अस्थिस्नेह--तज्ञा पुं० [सं०] ६० प्रस्थिम(र' को । अस्थितु इ-संज्ञा पुं० [म० अभ्यतु 'ड] १ 17ी । २ इइडी की तरह अस्थूल-वि० [सं०] जो स्थूल न हो । सूक्ष्म । कड़ी चोचला पक्षी (को॰] । अस्थूल -वि० [सं० म्यूल] दे॰ 'स्यून' । अस्यितेज़ - सज्ञा पुं० [स० अस्थि जिस्] मज्जा (को०)। अस्थैर्य-सज्ञा पुं० [सं०] दृढता का अभाव । अस्थिति । डाँवाँडोलपन । अस्यितेल–सम्रा पु० [सं०] हड्डी का ते 7 [को०] उ०- दिया नृप को वशिष्ठ ने धैर्य कहा-यह उचित नहीं अस्थिवन्वा--सज्ञा पुं० [स० अस्थिपन्] शिव [को०] । अस्थैर्य -साकेत, पृ० ४२ । अस्थिपंजर--संज्ञा पुं० [सं० अस्थिपञ्जर] शरीर का ढाँवा। हड्डी अस्नान-सज्ञा पुं० [सं० स्नान] दे॰ 'स्नान' । करि अस्नान नद घर पमली । ककान । उ०-धधक रही सव शोर भूख की अाए ।-सूर०, १०।२६० । ज्वाला है घर घर में । माम नहा है। बाप रहा वम माम स्यः अस्नाविर - वि० [मं०] जिसे स्नायु नै हो । दुबन्नी देह का (व्यक्ति) पजर में ।-पथिक, पृ० ४१ । । | को॰] । अस्थित्रक्षेप - महो। पुं० [सं०] गा या अन्य किसी पवित्र नदी या गावा_वि० [स०] १. जो स्निग्ध या चिकना न हो। २ कठोर। सरोवर में मृत व्यक्ति की अस्थि को प्रवाहित करना । निर्दथे । हृदयहीन (को०] । अस्थिविसर्जन [को०] । अस्थिवर्धने--प्रज्ञा पुं० [अ० अस्थिबन्धन] स्नायु [को०] ! अस्निग्धदारु-पज्ञ पु० [म०] देवदारु वृक्ष की जानि का एक वृक्ष [को०]। अस्थिभने–संज्ञा पुं० [स० अन्यभङ्ग] हड्डी टूटना [को०] । अस्थिभक्ष--संज्ञा पुं० [स०] हड्डी खानेवाला । कुता को०] । । अस्निग्धदारुक--मज्ञा पु० [A] देवदारु की जाति का एक पेडे । अस्थिभुक्--सज्ञा पुं० [सं० अस्थिभज] दे॰ 'अस्थि मक्षी' [को॰] । अस्नेहन--सज्ञा पुं० [सं०] शिव (को०] । अस्थिभेद-मज्ञा पुं० [स०] दे॰ 'अस्थिभंग' [को० ।। अस्पज-सज्ञा पुं० [यु० इस्फ न] म्पंज । मुर्दा वाद न (को०] । अस्थिभेदी --वि० [म० अन्य दिन] १ हड्डी काटनेवाला । २. अस्पद---सज्ञा पुं० [ स० अस्पन्द ] जिममै स्पदन यो कान न हो । अस्पद | अत्यत तीक्ष्ण [को०)। गतिहीन [को०] ।। अस्थिमाली--सुज्ञ १० [स० अस्थिमालिन् शिव ।। अस्पताल-सद्मा पु० [अ० हॉस्पिटल प्रौपधालय । चिकित्सालय । अस्थि ।'--वि० [सं०] १ जो स्थिर न हो । स्वं चल ! चलायमान । दवाखाना । डीवीडोल । उ०-दावाग्नि-प्रखर लपटों ने कर दिया सघन वन अस्पर्श-वि० [सं०] १ जिसमे स्पर्श न हो । २ जो छूने योग्य न हो अस्थिर १-कामायनी, पृ० २८१ । २वे ठौरठिकाने का ! [को०] । गमका कुछ ठीक न हो । उ०—यो ही लगा वीदने उनका अस्पर्स--संज्ञा पुं० [सं० स्पर्श दे०‘स्पर्श' । उ॰—भएँ अस्पर्श देवन जीवन अस्थिर दिन दिन ।---कामायनी, पृ० ३३ । धरिहै । मेरी कह्यो नाहि यह टरिहै 1-सूर० ८।। अस्थिर --[ स ० स्थिर ] जो चचन्न न हो । स्थिर उ०-भक्तनि सन अस्पष्ट-वि० [म०] जो साफ या स्पष्ट न हो। अप्रकट | अम्फुट । अर ' होट बँछि अस्थिर ह्व, हरि नग निर्मन लेहि काम-क्रोध मद इ०-अस्पष्ट एक निपि ज्योति मग्री, जीवन की प्राँवो में | लोभ-मोह तू सकल दलाली देहि ।-सूर०, १ । ३१०।। भरते |--कामायनी, पृ० ६४ । । अस्थिरता--सनी , सज्ञा अ०ि [सं०] चंचलता, व्यग्रता । व्याकुलता । अस्पृश्य--वि० [सं०] जो छूने योग्य न हो। ३०--गिर जाय कुछ अस्थिविग्रह-वि० [सं०] दुबला पतला (व्यक्ति या जीव) जिसका गगाबु भी अस्पृश्प नाली मे कभी, तो फिर उसे अपवित्र ही शरीर मूखकर हड्डी का ढाँचा मात्र रह गया हो [को०] । वतन्नायँगे निश्वय सभी ।-भारत, पृ० १२३ । • Tी व स्यविग्रह-सज्ञा पुं० [सं०] शिब का भृ गी नामक गण (को०] । जाति का । अत्यज । अप-वि० [१०] क कालशेष । जिसके शरीर में हड्डियाँ ही रह अस्पृश्यता—-सज्ञा झी[सं०] १ अस्पृश्य होने का भाव या दराः । अछुतरने । संचय-सज्ञा पुं॰ [सं० अस्थिसङ्ख्य) भस्मात या अत्येष्टि सस्कार अस्पृष्ट-वि० [सं०] जिसपर हाथ न लगाया गया हो। अछता के अनतर की एक क्रिया या संस्कार जिसमें जाने से बची हुई (को०] । हड्डियाँ एकत्र की जाती हैं। अस्पृह---वि० [सं०] नि स्पृह । निम्। जिम में लालच न हो।. यसाध संज्ञा स्त्री० [सं० अस्थि हन्चिहडिडयो का जोई । । अस्फटिक -सज्ञा पुं॰ [सं० स्फटिक] दे० 'स्फटिक' । उ०-fनन की स्यसभर्व--सज्ञा १० [सं० अस्थिसम्भव] १ मज्जा । २ वर्षे वनी अवनी अमन अपटिक मनि पटीन मो -7 में 71०, मा० १, पृ० १२० ।। पण-संज्ञा पु० [स०] १ हड्डियों को नदी में प्रवाह । अस्फी--सज्ञा पुं० [फा० अस्प + ई (प्रत्य०)] घुडसवार । अपारोही। | अस्थिविसर्जन को । उ०–मु अम्फी धने दु दुती हैं धुकरे । म घराने प? fig भारे ।—पद्माकर ग्र ९, पृ० २७८ } | गई हो (को॰] । [को०] । ४६.