पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/४५१

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अस्तेयन्त ३८४ अस्थित का उपस्थान या प्राप्ति है । ३ जैन शास्त्रानुसार अदत्तदान का मुस्त्रशस्त्र- सज्ञा पुं॰ [सं०] अस्त्र और शस्त्र । हाथ में लिए हुए तथा त्याग करना । चोरी न करने का व्रत । हाय से फेंककर प्रहार करने योग्य हरियार (को॰] । अस्तेयन्नत--संज्ञा पुं० [स०] अपनी आवश्यकता से अधिक संग्रह का अस्त्रशान-सज्ञा पुं० [अ०] वह स्थान जहाँ अस्त्र शस्त्र रखे जायें । त्याग । वह व्रत जिसमें जरूरत से ज्यादा संपत्ति रखने को अस्त्रागार । पिलहवी न । चोरी जैसा पाप कर्म समझा जाता है को०] । अस्त्रशास्त्र- सज्ञा पुं० [सं०] १ अस्त्र चालने की शिक्षा देनेवाला शास्त्र अस्तोदय--संज्ञा पु० [स० अस्ल+उदय] १ डूबना उगना । २ । यो विद्यः। २ धनुर्वेद [को०] । विगडना बनना [को॰] । अस्रागार- सज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अस्त्रशाला' । अस्त्यान--प्रज्ञा पुं० [स०] १ परदोष कथन । निंदा । २ झिड की । अस्त्री --संज्ञा पुं॰ [स० अस्त्रिन्] [स्त्री० अस्रिणी] अस्त्रधारी मनुष्य ।। भत्र्सना (को०] ।। | हथियारबद आदमी ।। अस्त्र-- संज्ञा पु० [सं०] १ वह हथियार जिसे फेंककर शत्रु पर चलावे, अस्त्रीक--वि० [सं०] १ पत्नीही न । २ विना स्त्री का किो। जैसे--बाण । शक्ति । २ वह हथियार जिससे कोई चीज अस्त्रैण--वि० [सं०] १ विना स्त्री का । जिसे स्त्री न हो । ३ जो फेंकी जाय, जैसे---धनुप, बदूक । ३ वह हथियार जिससे शत्रु स्त्री सवधी; न हो। ३ जो स्त्री का गुलाम न हो । ४ जो स्त्री के चलाए हथियारों की रोक हो, जैसे--ढाले । ४ वह द्वारा गौरवान्वित न हो (को०) । हथियार जो मत्र द्वारा चलाया जाय, जैसे जू भास्त्र । ५ वह अस्थल - संज्ञा पुं० [स० स्थल] दे॰ 'स्यल' । उ०—–अस्थल लीपि हथियार जिससे चिकित्सक चीर फाड करते हैं । ६ शस्त्र । | पात्र सव धोए, काज देव के झीन्ह !-—मूर० १॥ ७८ ।। हथियार । अस्थाई --वि० [सं० स्थायी] २० स्थायी' । यौ०--अस्रशस्त्र । अस्थान --संज्ञा पुं० [म० स्थान] दे० स्थान' । उ0---प्रति अस्त्रकटक - सज्ञा पुं० [१० अस्र कण्टक] वाण । तीर (को०) । ऊँचे भूवर नि पर भुजगन के प्रस्थान । तुलसी अति नीचे सुखद अस्त्रकार --सज्ञा पुं॰ [सं०] हथियार बनानेवाला कारीगर । ऊख, अन्न अरु पान ।—तुलसी ग्र०, पृ० १२ । अस्त्रकारक-- संज्ञा पुं० [२०] दे० 'अस्त्र कार' [को०] । अस्थान--संज्ञा पुं० [सं०] १ अनुपयुक्त अथवा बुरा स्थान ।२ अनवअस्त्रकारी--सज। पु० [स० अत्रकारिन्] दे॰ 'अस्त्रकार' को०] । सर [को०) । अस्त्रघला वि० [८० अस्त्र + घातक] अम्ने चलानेवाला । | अस्थानीय--वि० [सं०] प्रसग से भिन्न । अनुपयुवत । उ०---उमने अस्त्रचिकित्सक - मज्ञा पुं० [स०] चीर फाड या जरही करनेवाला अपना बहुत सुधार किया है कि जिमका प्राध्यान यहाँ अस्थाचिकित्सक । जर हि [को० । नीय है' ।—प्रेमघन , भा० २, पृ० २६० ।। अस्त्रचिकित्सा -संज्ञा स्त्री० [सं०]१ वैद्यकशास्त्र का वह अश जिसमे अस्थायी'--- वि० [सं० प्रस्थापिन्] [वि० सी० अस्थायिनी] जो स्थायी चीरफाड का विधान है । २ चीरफाड करना । अस्त्रप्रपोग । या टिकाऊ न हो। नश्वर । क्षणमगुर (को०] । ज रही। अस्थायी--मज्ञा स्त्री० [सं० स्थायिन्] गीत का प्रथम चरण या ट्रेक विशेष--इ म अाठ भेद है। (क) छेदन = नश्तर लगाना (ख) | [को०) । भेदन = फाहना । (ग) लेखन = खरोचना । (घ) वेधन = सुई अस्थावर--संज्ञा पुं० [सं०] १ जो स्यावर या प्रवन न हो । जमि। वी नोक से छेद करना । (च) मेपण = धोना। साफ करना । चल । २ कानून मे वह मपत्ति जो वल हो--३१, मवेशी, जेवर श्रादि [को॰] । (छ) हिरण = काटकर अलग करना (ज) विश्रावण = फस्द । खोलना । (झ) सीना= सीना या टाँका लगाना । अस्थि---सज्ञा स्त्री० [म०] १ हड्डी। उ०--ौरी कथा सबै बिसराई लेत तुम्हारे नाम । सूर स्पाम ता दिन है विठुरे, अस्थि रहै के अस्त्रजीवी- सज्ञा पुं॰ [स० अस्त्रजोविन्] १ पेशेवर में निक । २ | चाम ।-सूर०, २।३३०६ । २ फन की गु नी या गिरी [को०] । सैनिक [को॰] । अस्थिकु --संज्ञा पुं० [स० अस्थि कुण्ड पुराण के अनुसार एक नरक अस्त्रधारी---सज्ञा पुं० [सं० अन्त्रवारिन्] सैनिक [को॰] । जिसमे हड्डियाँ भरी हुई है । अस्त्रवध-संज्ञा पुं॰ [सं० अरत्रवन्ध] अनवरत वाणवप। (को०] । विशेर--ब्रह्मवैवत' के प्रनुसार वे पुरुष इस नरक मे पडते हैं जो अस्त्रमार्जक--संज्ञा पुं० [म०] ग्रस्त्रो को माँ जकर माफ़ करनेवाला गया में विष्णाद पर पिंडदान नहीं करते । को०] । अस्थिकृत-सज्ञा पुं० [सं०] १ हड्डी के भीतर स्थित स्नेह । मज्जा। अस्त्रलाघव--सज्ञा स० [स ०] अस्त्र हो । न । ठीक ठीक और फर्नी के ३ वज्र (को॰] । साथ लक्ष्यवेध करने की कुश -ता [को०] । अस्थिज-सज्ञा पुं॰ [स०] १ मजा। २ हड्डी से बना हुमा द्रव्य । अस्त्रविद्या--संज्ञा स्त्री० [स०] १ वाण विद्यः । २ अस्त्रनासन की । ३ वज्र [को०] । विद्यः [को०] । अस्थित--वि० [सं०] जो दृढ या स्थिर न हो (को०]। अस्त्रदेद--सुज्ञा पुं० [सं०]वह शास्त्र जिमने अस्त्र बनाने सौर प्रयोग अस्थित---वि० [स० स्थित] उपस्थित । वर्तमान । स्थित । उ० मे थचन मत्य करि मानौ, छाइ चव मोह। तत्र ल सके। करने का विधान हो । धनुवद । पानी की चुपरी जौ लौ अस्थित होहु ।-सुर०,३५३६ अस्थिमे हृढ़ियाँ अनसार वे पुरुष ते ।