पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/४५०

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अस्तेय बता है ) [को०] । ३ अवाम । घर (को०] । ४ ममाप्ति । अस्तरी--सज्ञा स्त्री० [स) स्त्री] नारी । श्री। उ०—-माया माता मृत्यु [क]। पिता, अति माया ग्रस्तरी मुतः ।--कवीर ग्र०, पृ० ११५। शै०- सूर्यास्त । शुक्रास्त । अस्तंगत ।। अस्तव्यस्त---वि० [म०] उलटा पुलटा । छिन्न भिन्न । तितर वितर! विशेष-सब ग्रह अपने उदय के लग्न से सातवे लग्न पर अस्त उ0--प्रेस्तव्यस्त है । वह भी ढक ले कौन सा अग, न जिसमें होते हैं। इसी से कुडली में मानवें घर की सझा 'अम्त' है ।। कोई दृष्टि लगे उसे ।--झरन, पृ० २२।। बुध को छोड़कर अन्य ग्रह जब सूर्य के साथ होते हैं, तब अस्त्र प्रस्ताघa rap1aनिया जीवन अस्ताघ-वि० [स०] अतिशय ग भीर । वहुत गहरा की । | कहे जाते हैं। अस्ताचल--संज्ञा पु० [सं०] एक कल्पित पर्वत जिसके संबंध में लोग प्रस्तक-संज्ञा पुं० [सं०] १ मोक्ष । २ घर को०] । का यह विश्वाम है कि ग्रस्त होने के समय मूर्य इसी की अडि अस्तकाल- संज्ञा पुं० [सं०] दे॰ 'अस्तसमय' । में छिप जाता है। पश्चिमाञ्चन । ३०-~प्रस्ताचल जाते ही अस्तगमन----सज्ञा पुं० [म०] १ दूर्वना। लोप । २ मृत्यु । जीवन का दिनकर के, सब प्रकट हुए कैने ।--3म0, पृ० ११ । अन को०) अस्ताद्रि–पज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अस्ताचल' । अस्'गिरि---पच्चा पुं० [सं०] अस्ताच । वह पर्वत जिसके पीछे सूर्य । | अस्ति--सज्ञा स्त्री० [सं०] १ भाव । मत्ता । २ विद्यमानता । वर्न| ग्रस्त हो जाता है कि । मानता । ३ जरसी की एक कन्या जो कम यो ब्याही अन्जन(+--सल्ला पु०म० स्तर] दे॰ 'स्त' । ३०--कपट करि व्रजहि । गई थी। पूतना आई । अनि मुरूप, विप अस्तन लाए, राजा कम कम अस्तिकाय--प्रज्ञा पु० [0] जं नशास्त्रानुसार वे सिद्ध पदार्थ जो पठाई।--सूर०, । १०१५२ ।। प्रदेश या स्थानों के अनुसार कहे जाते है । अस्तनी-सज्ञा ली० [सं०] वह स्त्री जिसके मन बहुत ही छोटे ग्रौर विशेष-- पाँच हैं--(क) जीवास्तिक।य, (ख) पुद्गनास्तिकाय, नहीं के समान हो । (ग) धर्माभितक्राय, (घ) अधमस्तिक और ( च ) अस्तप्राय--व० [सं०] लग भग डुवा हुप्रा । अाकाशस्तिकाय ।। अस्तवन- सुज्ञा पुं० [अ०] घुडमाल । तत्रे न । अस्तिकेतुसज्ञा--सज्ञा पुं० [सं०] ज्योतिष में वह बेतु जिमका उदय अस्तव--'व० [म०] १ जो स्तब्ध न हो। अचकित । २ चेचन ।। ३ विनयी किो॰] । पश्चिम भाग में हो और जो उत्तर भाग में फैला हो । इम की अस्वभवत--संज्ञा पुं० [म०] उतिप के अनुसार उदय के लग्न से । मूति रुक्ष होनी है और इसका फन भयप्रद है । सप्तम लुग्न [को०] । अस्तित्व--संज्ञा पु०[सं०]१ भत्ता का भाव । विद्यमानता । मौजूदगी । उ---सिर नीचा कर किमकी मत्ता मव करते स्वीकार यहाँ, अस्तमत-सज्ञा स्त्री० [सं०]१ सरिवन का पेड़ । सातिवा 1 शालपण । अस्तमन-सज्ञा पुं० [स०] १ अस्त होना । तिरोधान। २ सूर्यादि सदा मौन हो प्रवचन करते जिसका वह अस्तित्व वहाँ । ग्रहों का तिरोधान या अम्त होना। फामायनी, पृ० २६ । २ मना । माघ । उ०—निज अस्तित्व यौ०-अस्तमनवेला । बना रखने में जीवन अाज है था व्युम्न ।--कामायनी, अस्तमननक्षत्र--संज्ञा पुं० [सं०] जिम नक्षत्र पर कोई ग्रह अस्त हो । पृ० ३३ । अस्तिनास्ति---वि०[]सदेहपूर्ण । हाँ नही । कुछ झूठा कुछ सच्चा वह नक्षत्र उम ग्रह का अम्तमन नक्षत्र कहलाता है। अस्तमनवेजा- - सच्चा स्त्री० [म ० अस्तमनवेला सापकाले । सध्या [को०] । का समय। | अस्तिमान्--वि० [अ० अन्तिमत्] धनवान् । धनाढ्य [को०] । -वि०स०]१ तिरोहिन । छिपा हया २ नष्ट। मृत । अस्तीन-ज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'आस्तीन' ।। ६६९मज्ञा पुं० [फा०, मि० म ० श्रा+म्त प्राच्छादन, तह या प्रस्तु-प्रदय ० [सं०] १ जा है। चाहे जो हो । -प्ननु, सुत्रत । आस्तर १ नीचे की तइ ग्रा पृल्ला। मितल्ला । उपल्ले के कहो कहाँ फिर तुम रही, मेरे जाने बाद - रु०) नीचे का पला । २ दोहरे कपड़े में नीचे का कपडा । ३ नीचे पृ० ३१ । २ बैर। भन्ला । अच्छा । उ०----2म्नु स मी तुम ऊपर रखकर सिन्ने हुए दो चमडों में से नीचेवाला चमडा । शक्तिहीन हो गए --करुण० , पृ० ३२ ।। ४ वह चइन का तेन जिसपर भिन्न भिन्न मुगधों का अारोप प्रस्तुनि"--"आज्ञा स्त्री॰ [ ] निटा। अपकनि ।। कर है पतर बनाया जाता है । जमीन । ५ बह गई। जिसे प्रस्तुति ---ज्ञा जी० [स स्तुति दे० 'ति' । उ०-०-निद्रा स्त्रियां वारीक साड़ी के नीचे लगाकर पहनती हैं । अँतरौटा । अम्तुति उभय स म ममता मम पद का न |----मानम ७॥ ३८ ॥ प । ६ नीचे का रग जिमपर दुमरा में चढ़ाया जाता प्रस्तुरा- ज्ञा पुं० [फा० उम्तT, मि० अ० अरू T] वाग्न बनाने है । ७ खच्चर [को०)। की छु । कार--सा मी० [फा १ चने को नपाई । सफेदी । कलई । अस्ते ---- [सा०] १ चोरी का रेयान । चोरी न करना । २ २ गचफारी । पलम्तर । पन्ना लगाना । योग के प्राठ अगों में नियम न । म भग का तोमा भेद । यह अन्तरबट्टी--सज्ञा स्त्र[हिं०]पत्थर की वह वट्टी जिससे तसवीर का तैय अथति बन्न से या एवं ति में पर 10 घन या अपहरण करने जमीन घोटी जाती है को०] । का उलटा या विरोधी । इसकी फल योगशास्त्र में सेव रत्नों

  • हलाती है।