पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/४५

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गृहीत शब्द निकाले न जाये, प्रत्युत नए शब्द अथवा यूरोपीय और व्दिसागर में इनमें से प्रथम प्रकार के शब्द ही व्यावहारिक दष्टि से भारतीय भापा और बोलियों के प्रयोग, जो प्रथम संस्करण के बाद अग्रहीत दिए गए हैं। प्रचलन में ग्रा" हो, समाविष्ट किए जायें । | ( छ ) विदेशी भापा के उन शब्दो की सकलन भी किया गया है। (३) विभिन्न व्यावसायिक घघो के जनसाधारण में प्रचलित जो हिंदी में प्रयप्ति प्रचलित हो गए हैं। वर्तनी के सबध में परिनिरित विशिष्ट शब्द को ग्रहण किया जाये और यथासंभव उनके उद्गम स्रोतो या मुख्य रूप प्राय सर्वत्र शब्दसागर में प्रयुक्त किया गया है पर का निर्देश किया जाय । यथावश्यकता जहाँ एक से अधिक वर्तनी प्रचलित है, वहीं अति (४) जहाँ कहीं अावश्यक और सभव हो, अर्थ को स्पष्ट करने आवश्यक होने पर उन्हें भी दे दिया गया है। के लिये विशेष विवरण दिए जायें। व्याकरणनिर्देश के प्रसंग में शब्दप्रकार या उसका उपभाग दिया (५) हिंदी के उन पुरानै शब्दों को भी ग्रहण किया जाय जो गया है, जैसे, उप० ( उपसर्ग ), सर्व० ( सर्वनाम ) । शब्दों के कभी प्रचलन में थे । अल्पप्रचलित या बहुप्रचलित विशिष्ट अर्थों में वैशिष्ट घनिर्देशन के लिये भी व्यवस्था की गई है, जैसे संगीत शास्त्र के लिये ( सर्गत ) और इन उद्देश्यों की पूर्ति के लिये विभिन्न पुस्तकालयो, कोश शालाग्री वनस्पतिशास्त्र के लिये । १२० ) । प्राचीन शब्दरूप, मुख्यतया अपभ्रंश एव सदर्भग्रंथों का गभीरतापूर्वक अध्ययन किया गया तथा अपने में शब्द के पुत्रपर रूपक्रम का उल्लेख है तथा विकारी रूपो, बहुवचन साधन एव सामथ्र्य की सीमा को परखा गया और शब्दसागर के अादि का निर्देश भी किया गया हैं । पुन’ सपादन के लिये निम्नाकित तत्वों को प्राधार बनाकर कार्य र म किया गया रूपविज्ञान, जिसके अंतर्गत निरुक्ति या ध्युत्पत्ति है, बहे कोष्ठ [] शब्द मुज्य शाब्द, उप शब्द, समस्त पद तीन बगों में विभक्त किया मे देने की व्यवस्था की गई है और जहाँ घाब्द की व्युत्पत्ति निश्चित गया । मुख्य शब्द के अतर्गत ( क ) सभी स्वतन्त्र शब्द, मूल या है वहाँ मूल रूप का निर्देश किया गया है। अन्य भाषाओं के रूपातरित व्युत्पन्न, ( ख ) वे सभी समस्त पद, जो अर्यगत या इतिहासगत वैशिष्ट्य ब्दिो के व्युत्पत्तिनिर्देश के सवध में ध्वनिपरिवर्तन, वर्गलोप, विकार, के कारण पृथक् स्यान के अधिकारी हैं ( जैसे, अन्नपूर्णा, अग्निवर्ण विरुद्ध अर्थ या भ्रातिमूलक योजना के आधार पर उसके मूल शब्द को मादि)। उपशब्द के अंतर्गत ( क ) मुख्य शब्द के विविध और उल्लेख किया गया है। ( ग्रोव्सौलीट ) रूप, विगडे या बिगाहे हुए शब्द, सदिग्ध शब्द या कुप्रयुक्त शब्द, और समस्त पद के अतर्गत वे समस्त शब्द या पद इसके साथ ही यह भी उल्लेख कर दिया गया है कि वह जिनके अर्थों में कोई वैशिष्ट्य हो, और इनका स्थान मुख्य शब्द के संस्कृत के किस शब्द का तत्सम या तद्भव रूप हैं। यदि वै शब्द फारसी, अतर्गत रहे, प्रतभूत किए गए । मुख्य शब्द का अर्थ समाप्त होने पर अरबी, अंगरेजी, फ्रांसीसी, पुर्तगाली, चीनी आदि भापो के हैं तो समन्त पद देने की व्यवस्था की गई। इनका भी तत्सम यो तद्भव रूप निर्दिष्ट कर दिया गया है। ऐसे शब्दो के सुबघ में जो रचे या निर्मित किए हुए कोशो से लिए गए शब्दसंग्रह में निम्नाकित नियमों का पालन किया गया । हैं, जैसे, ज्योति विज्ञान अादि कोश ( नागरीप्रचारिणी सभा ), प्राग्ल ( क ) व्यक्तिवाचक अर स्यानवाचक संज्ञाओं में से वे ही दिए हिंदी महाकोश ( डा० रघुवीर ), इस्तलाहाते पेशेवाएँ ( डा० जफर गए हैं जिनका अर्थसवधी ऐतिहासिक महत्व है । रह्मान ) आदि का उल्लेख कर दिया गया है। देशज शब्दों के संबंध | ( ख ) क्रियाओं के विभिन्न रूप न देकर केवल धातु रूप दिए । में उनके मूल मौर समस्त पदो का भी निर्देश है। गए हैं। | यह तो मुख्य शब्दों की बात हुई। उप शब्दों के सवध में शब्द का ( ग ) ग्रंथो मे व्यवहृत शब्दो का ही सग्रह किया गया है, विलुप्त य मुख्य रूप या उसके विविध रूप प्रस्तुत किए गए हैं। यदि उनके सामान्यतया कोशी से शब्दसंग्रह वहुत कम किया गया है। वर्तमान रूपों के कारण उनका प्राचीन रूप अज्ञात या अपरिचित है तो (घ ) सज्ञा के विकारी रूप दिए गए हैं। ध्याकरणनिर्दया और व्युत्पत्ति देने के बाद ‘दे०' लिखा गया है। प्रचलित मूल्य शब्द में ऐसे शब्द का अर्यं देखना चाहिए । जहां उप शब्द मुख्य ( ३ ) रासो, विद्यापति आदि के ग्रंथो में अनेक स्थल ऐसे हैं जहाँ शब्द के अनियमित और विवे रूप में ग्रहण किया गया है और यदि पाठदोष के कारण अर्थनिर्धारण में बाधा पहुँचती है। ऐसे स्थलों में, अर्य में परिवर्तन नहीं है तो ऐसे उप शब्दों के लिये भी 'दे०' का ही प्रयोग जह सभव हुआ है, सदिग्ध पाठ के साथ प्रश्नचिह्न देकर नवीन किया गया है। लेखकों या कोशो के संदिग्ध और अशुद्ध, भ्रातिमूलक शब्द या उचित पाठ का निर्देश कर दिया गया है और यथास्थान अर्थ दे जिनका क्वचित प्रयोग ही हुमा हो, उनके अर्थ के लिये भी दे०' देकर दिया गया है। मूल शब्द के साथ ही अर्थ देखने की व्यवस्था की गई है। ( च ) दादू, दरिया आदि के ग्रंथों में फारसी अरवी के शब्दों की हुतायत है । इनका प्रयोग दो प्रकार से हुआ है-- समस्त पदो के अतर्गत सामान्य शब्दों के समस्त रूप ययामभव गहीत किए गए हैं। उनमें प्रत्येक शब्द की वर्तनी पृथक दी गई है, ( १ ) हिंदी शब्दों के माथ मिश्रित रूप में। चाहे वे रूप सुमासचिह्नो अथवा अर्थसवधौ से सयुक्त हो। अति ( २ ) पूरी पक्ति यो पुरे छद में अविकल रूप में। सामान्य समस्त पद, विशेष आवश्यक न होने पर, नहीं लिए गए हैं।