पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/४४९

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असैग ३६३ यौ०-- असृष्टान्न = जो भोजन का वितरण न करे । निश्चित । वेकिक । उ० •-भावौ , मन मवहीं विधि पोच।। असेगी -वि० [सं० असह्य न सहने योग्य । असह्य । कठिन ।। अति उनमत, निरकुम, मैगल, चिनारहित असोच !-- ५ असेचन, असेचनक-वि० [सं०] खूबसूरत ! जिसे बार बार देखने सूर०, १ । १०२ ।। को जी चाहे को०)। असीज-सज्ञा पु० [म० अश्वयुज, प्रा० असोय] अाश्विन । क्वार असेत –वि० [सं० प्र=नहीं +श्वेत, प्रा० से, अप० सेत्त ] असोढ --वि० [सं०] १ असह्य । २ जो वश में न किया जा सके । अश्वेत । काला । बु।। उ०—कीन्ही तुम सेत, मैं असेत कृति उद्धत (को०) । कीन्ही तुम धर्म अनुराग्यो मैं अधर्म अनुराग्यो है --द्मिाकर असोस--वि० [अ + शोष] जो सूखे नही । न सूखनेवाला । ग्र०, पृ० २४६ । उ०—(क) कविरा मन का भाँहि ना अव ना वहै असोस । असेवन-[स०] १ नेवा न करनेवाला । २ अनुगमन न करने देखत ही दह में पर देय किमी को दोम |--कबीर (शब्द०) । | वाला [को॰] । (ख) गोपिन के अमुवनु भरी सदा असोम अपार । ४ र ४गर असेबन- सज्ञा पुं० अवज्ञा । ध्यान न देना (को॰] । | नै ह्व रही बगर बगर के वार --विहरी र०, पृ० २९३ ।। असेबा --सज्ञा स्त्री० [स०] दे॰ 'असेवन-२' को) असोसिएशन-सज्ञा पु० [अ० एसोसिएशन] ममिति । समाज । मया। असेवित -वि० [स०] १ परित् ।। उपेक्षित । २ अव्यवहृत (को०]।। असौदर्य--मुज्ञा पुं॰ [स० असौन्दर्य ] अमुदरता । कुरूपन। [को०] । असेष -वि० [हिं०] दे॰ 'अशेप' । उ०--रावत न लेम अब विपन। असौंधी --संज्ञा पुं० [सं० अ = नहीं + हि० सव= सुर] दुर्गंध । | असेप को ।-भिखारी ग्र ०, भा० १, पृ० १६५ । । असेस(G)-वि० [स० अशैव, प्रा० असे ] अनते । बहुत । उ०--जात बदबू । उ०-- जहँ अागम पौनहिं को सुनिए । नित हानि असौधहि को गुनिए !--केशव (शब्द॰) । | भो रसातले असेस कमल भेदि ।- रामचद्र०, पृ० १३५ | असौच--सज्ञा पुं॰ [स० अशौच] दे॰ 'अशौच' । उ०—हौं अनौच, असेसमेट-संज्ञा पुं० [अ० एपेसमेंट] १ मालगुजारी या गान अक्रिय अपराधी, सन मुख होर ले जाउ ।-सूर०, १ । १२८ । लगाने के लिये जमीन का मोर ठहराने का काम । बदोवस्त । असौधा-- वि० [हिं० अध] १ दे० 'अमर' । २ मुगधविहीन । २ कर वा टॅक्स लगाने के ये बही खाते की जाँव का काम।। असेसर-संज्ञा पुं० [अ० एनेसर] १ व अति जो जज को फौजदारी । असौम्य--वि० [सं०] जो सौम्प न हो। अमुदर । कुरूप को०] ।। के मुकद्दमे में फैपने के समय राय देने के लिये चुना जाता है। असौष्ठव--सज्ञा पुं॰ [स०] १ निकम्मापन् । गुणहीनता । २ सुष्टुता २ बह जो वही खाता जाँच कर महसून या कर की रकम का अभाव । भद्दापन को०] । निश्चित करता है । ३ वह जो जमीन का मोल ठहराकर लगान असौष्ठव'-वि० अमुदर । भद्दा । विरूप [को०] । या मालगुजारी की रकम निश्चित करता है। कर नगानेवाला । अकादत-व० [सं० प्रकार अस्क्रदित-व० [स० अस्कन्दिन] १ अक्षरित । न बहा हु प्रा । २ न असैनिक--वि० [स०] १ जो स नि क नै हो । जो सेना से सबंध न गया हुअा । ३ यताक्रार । ४ अविस्मृत अनुपेक्षित--जैसे रखता हो । ममय अथवा प्रतिज्ञा (को०) । असला --वि० [सं० अ = नहीं + शैली = रोति] [स्त्री॰ असली] अस्क--सज्ञा पुं॰ [देश॰] नैनीताल में बु ताक को कहते हैं । यह एक १ रीति नीति के विरुद्व कर्म करने वाला । कु मार्गी । उ०-- छोटी सी नयू की और लटकन जिसे स्त्रियाँ नाके में पहनती हैं । सभा-सरवर, लोक-कोकनद-कोकगन प्रमुदित मन देखि अस्कन्न-वि० [स०] १ न फटा हु प्रा । ३ ने खु | दु । ३ दिऊँ । दिनभनि भोर हैं । अदुत्र असे ले मन में ले महिल भए कछु । ४ न उँडेला हुप्रा को०] । उलूक कछु कुमुद चकोर हैं । तुलसी ग्र ०, पृ० ३०७ । २ अस्कर--पज्ञा पुं॰ [ ५०] फी न । सेना को०] । शैली के विरुद्ध । अनुचिन । रीतिविरुद्ध । उ०-- मुनी अस्करी--सज्ञा पुं० [१०] सैनिक । योद्धः (को०) । बातें असली जे कहि निमिच नीच । क्यो न मारे गाल वैठो अश्खल---सज्ञा पुं० [स०] अगि । अग्नि [को०) । काल डाढनि वीच ।—तु नसी ग्र ०, पृ० ३७४ ।। अस्खलित-वि० स०] १. च्युत न होने वन्न । अच्यु । २ विचलित प्रेस-क्रि० वि० [सं० इह = ममय या अस्मिन् समय का सक्षिप्त | न होनेवाला । अडिग । ३ विशुद्ध । ४ शुद्ध उच्चारण करने | रूप] इस वर्षं । इस साल ।। वाला (को॰) । असोक --सज्ञा पुं० [सं० अशोक] दे॰ 'अशोक' । ३०-तव असोक अरतग-वि० [स० अस्तङ्ग] १ अस्त को प्राप्त । नष्ट ।२ अवनत। पादप तर राखिसि जतन कराइ --मानस, ३। २३ । हीन । मोक -वि० [सं० अशोक1 शोकर हित। उ०- जहे असोक तहुँ अस्त'–वि० [सं०1१ छिपा हुआ । तिरोहित। २ जो दिखाई न सोक वस है न सियहि निज वोध - पद्माकर ग्र०, पृ० ४६ । पढे । अदृश्य । डूबा हुआ, जैसे--- सूर्य अस्त हो गया।' ३० असोकी)---वि० [हिं॰ असोक = ई (प्रत्य०) ] शोकर हित । नष्ट । ध्वस्त, जैसे-मुगलो का प्रताप प्रौरगजेब के पीछे उ०—-प्रभुहि तथापि प्रसन्न त्रिलोकी । मौगि अगम वह होउँ अस्त हो गया' (शब्द०) । ४ फेंका हुआ । सिम्त [को॰] । ५. असोको ।—मानस, ११६४ । समाप्त किो] । ६ भेजा हुआ [को॰] । असोच- वि० [सं० अ +ोच] १ शौचर हित । वितारहित । अस्त--संज्ञा पुं० [सं०] १ तिरोधान । लोप । प्रदर्शन, जैसे- दस्त के ३०-२६ असोच वन प्रभू पोसे ।—मानस, ४।३ । ३. पहले भी जाना(शब्द०)। २. पश्चिम मेरु (जिसके पीछे सूर्य