पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/४३८

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अति असंधि ३७१ प्रमंव--वि० [हिं०] दे० ' अप' । उ०—मधुर उठती हैं तान असंगम-संज्ञा पुं० [सं० सईगम] १.नंग कां से रवि । ३ अनाने अगम् |--झरना, पृ० ४४ । सक्ति । ३ वेमेलपन [को॰] । असन्य--- वि० [सं० असण्य] जिसकी गिनती न हो सके । ग्रन: असगम-वि० १ अलग । २ बेमेन (को०) ।। निन । बेशुमार । वहुत अधिक । उ----लहरें व्योम चूमती असगी–वि० [म असगिन् १ fiना लगाउ का। अमेट्स । १. वती, चपलाएँ अमय नचती ।-कामायनी, पृ० १६ । | संसार मे विरक्त [को०)। असम्यक्र--वि० [सं ० असइख्यक] दे० 'असख्य' । उ०—चन से असचय"..-सज्ञा पुं० [म० अञ्चय] एमात्र करने की मामी । स चंय अमम्यक प्रार्य यो इसलाम में लाये गये ।-नारत०, पृ० ७६। का अनाव [को॰] । अमपात --वि॰ [२० अङ्याव] सखुपातीत । जो गिना न जा , य०...असचयशील=मचर्य करने की जिम की आदत न हो या सके [को०] । | जो सचय न करता हो। प्रम व्येवा--वि० [१० अ सड़ रुपैय] भरुयातीत । अनगिनत फिी०] । असचय- वि० श्रावश्यक वस्तुग्रो से हीन । म भार रहित (को०] । अस ये--सच्चा पुं० १ अत्यत बड़ी संख्या । २ शिव का एक । असचयिक -वि० [सं० अञ्चयि क] जो गनप न करे (को०] । नाम । ३ विष्णु को॰) । अस–वि० [सं० अङ्ग] १ विना साय का । अकेला । एकाकी । प्रसवयो-वि० [सं० प्रसञ्चयिन्] सवय न करनेवाचा [को०)। ' २ किमी मे वरम्ती न रखनेवाला । न्यारा । निनप्ने । माया- असचर-- सा पु० [असञ्चर] वह मार्ग जिस पर मप लोग नहीं चलते । सर्वसाधारण के लिये निविद् पय अय वा थान [2] रहित । उ०—(क) मन में यह वात ठहराई । होइ अंमग । असजोग--सज्ञा पु० [सं॰ असयोग ] स ब ध या मवर्क का अभाव । भज जदुर राई । ---सूर ० (शब्द॰) । (ख) भम्म अग मर्दन असवध । उ०--प्रम नोग ते वाहू' कह” एक अर्थ कविराई नग, सेनत अमग हर । सीस गग, गिरिजा अधग, भूपन भिखारी ग्न ०, मा० २, पृ० ७ । । मुग्रनवर |-- नसी (शब्द०) । ३ जुदा । अलग । पृथक् । उ०—चद्र कला में परी, असग गग हैं पूरी, भजी 'माजि असज्ञ--वि० [सं०] संज्ञा रहित । चेतनारहिन [को०] । ग्र गरी, वैरगी के धरत ही ---देव (शब्द॰) । असंज्ञा-संज्ञा स्त्री० [सं०] १ मजाहीनता । २ मा मजस्से का अम'--सभा १.पुं० पुम्प । आत्मा । ३. सपक भिाव निलिप्तता [को०]। अभावि (को०] । असमचारी-वि० [स० असङ्गचारिन्] आजादी से घूमनेवाला (को०] । असज्वर-वि० [सं०] क्रोध, शोक, ढेप, रोग, प्रादि विकारो से असंगत--वि० पुं० [म० असङ्गत १ प्रयुक्त । वैठक। २' अनुचित । | रहित (को०)। उ०--भ्रम 'भोयौ मन भयौ पखावज चन्नत असगत चाल असत-वि०[सं॰ असन्त] बुरा । खन । दुष्ट । उ०—-मन-मन भेद नूर ० १ । १५३ । ३ असमान। वेमेल (को०] । ४. जो विलगाई । प्रनतपाल मोहि कहहु बुझाई ।—मानस, ७॥३७॥ प्रमगविरुद्ध हो । अप्रामगिक (को०) ! ५ असस्कृत,। गंवार । असतति----वि० [सं० असन्तति] जिसे मतति या वाले बच्चे न हो । उजड्ड (को०)। असंगति--सच्चो वी० [स० असङ्गति] १. असक्छ । वे सि बसिनापन । ' नि संतान ।।

  • अनुपयुक्तता । नमुनासिबते । ३. एक काव्याल कार जिसमें असतानप° [२५

पलकार जिसमे असतान–वि० [स० असन्त] सेनानविहीन । भिमे पुन या पुत्री न 11 1[मापान । [जम पुन या पुत्रा न कार्यकारण के बीच देश-कान-सवधी अन्यथात्व दिखाया जाय, हो को०] । अर्थात् सृष्टिनियम के विरुद्ध कारण केही बताया जाय और असंतुष्ट-वि [सं॰ असन्तुष्ट] १ जो मनुष्ट न हो । ३ प्रवृ । कायं वही किसी नियत समय में होनेवाले कार्य का किसी जिसका मन न भरा हो। जो अधाया न हो। ३. अप्रसन्न । दूसरे समय में होना दिखाया जाय। उ०—'हत कुसुम अतुष्टि सल्ला स्त्री० [सं० प्रसन्तुष्टि] १.म तो । का प्रमाव । २. छवि कामिनी, निज अगन सुकुमार मार करत यह कुसुमसरे, अतृप्ति । ३ अप्रसन्नता । युवकन कहा विचार ।' यहाँ फूलों की शोभा हरण करने का असतोप–संज्ञा पुं० [सं० आसन्तोष] [वि० असनोपी] १ सतोप का दोप स्त्रियों ने किया, उसका दई उनको न देकर कामदेव ने | अभाव । अधैर्य । २.अतृप्नि। ३ अप्रसन्न । मुवा पुरुषो को दिया । असतोपी-वि० [म० असन्तोपिन्] [वि॰ रत्री० असन्तोदिणी] जिसे विशेष—कुवलयानद में और दो प्रकार से असंगति का होना सतोप न हो । जिसका मन न भरे । जो तृप्त न हो। माना गया है । एक तो एक स्थान पर होनेवाले कार्य के असदिग्ध-वि० [सं० सन्दिग्ध]१ सदेह से परे । जिनके विषय में दूसरे म्थान पर होने से, जैसे-'तेरे मैंग की अगनी, तिलक सदेह या माणका की गुजाइश न हो । २ निश्चित (फो०) । लगायो पानि' । दूसरे, किसी के उस कार्य के विरुद्ध कार्य करने अधि---वि० [सं० पसन्ध] १.जिम में जो न हो । ३. अमीलित । से जिसके लिये वह उद्यत इमा हो, जैसे-‘मोह मिटावन हेतु ३ जिसके वह या टुकड़े ने इए हो । प्रभु, लीन्हो तुम अवतार ! उलट मोहन रूप धरि, मोहयो सव अजनरि।' अधि'--वि० [स० असन्धि] १.जिनमें प्रापन में मध न हुई हो जातप्रर्दशन--सी पुं० [म० असगाप्रबन] १. सर्क के क्रम में सधिहीन (३०, । २. मन मिल । रुपनर [] प्रत मे ऐमी बात कह देना या ऐसे निष्कर्वे पर पहूचना जो मू । असधि---संज्ञा दी 1 मंन्त्रि का प्रभाव । २, ३ ' या नद्र५ ।। प्रतिपाद्य का विरोधी हो । २.दोष दिवाना। मभाव (फौ। सुद भने।