पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/४३५

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अश्वैवेद्य ३६६ अश्ववैद्य-संज्ञा पुं० [म०] घोडो का वैद्य [को०)। विशेष—तीन नक्षत्रों के मिलने से इसका रूप घोडे के मुख के अश्वव्यूह-सज्ञा पुं० [म०] वह व्यूह जिसमे कवचधारी ( लोहे की सदृश होता है । पारवर वाले ) घोडे मामने और साधारण घोडे पक्ष और कक्ष अश्विनीकुमार--संज्ञा पुं॰ [म०] त्वष्टा की पुत्री प्रभा नाम की स्त्री से उत्पन्न मूर्य के दो पुत्र ।। अश्वशकु—सझा पु० [स० अश्वशड कु] घोडा बाँधने का खूटा [को०] । विशेष --एक वार सूर्य के तेज को महन करने में असमर्थ होकर अश्वशक-सज्ञा पुं० [सं०] घोडे की लीद को०]।। प्रभा अपनी दो सतति यम और यमुना तथा अपनी छाया अश्वशाला--संज्ञा स्त्री॰ [सं०] वह स्थान जहाँ घोड़े रहे। घुड़साल । छो डकर चुपके से भाग गई और घोडी बनकर तप करने लगी। अस्तवन । तवेला । इस छाया से भी सूर्य को दो संतति हुई। शनि और ताप्ती । अश्वशास्त्र-सज्ञा पु० [म ०] वह शास्त्र जिसमे घोडो के शुभाशुभ लक्षणो जव छाया में प्रभा की संतति का अनादर प्रांरभ किया, तब एवं उनके रोगादि का वर्णन रहता है । शालिहोत्र [को॰] । यह बात खुल गई कि प्रभा तो भाग गई हैं। इसके उपरांत सूर्य अश्वसाद-सज्ञा पु० [सं०] घुइ पवार [को०] ।। घोडा बनकर प्रभा के पास, जो अश्विनी के रूप में थी, गए । अश्वसादी -सज्ञा पु० [म० अश्वसदिन्] ३० ‘अश्वसाइ' [को॰] । इस स योग से दोनो अश्विनीकुमारो की उत्पत्ति हुई जो अश्वसूक्त-मज्ञा पु० [सं०] वेद का एक सुक्त जिसमे धोडो का देवता के वैद्य हैं। वर्ण । है । । पर्या--स्ववेद्य। दन्न । नामस्य । अश्विनेय । नासिक्य । अश्वस्तन--वि० [पु०] वर्तमान दिवम संवत्री । केवल आज के दिन । | गदागद । पुष्कर व्रज। अश्विनीपुत्र। अश्विनीसुत । अश्वियुगल--सज्ञा पुं० [म०] दो कल्पिन देवता जो प्रभाव के समय से सवध रखनेवाला ।। घोडों या पक्षियों से जुते हुए नौने के रथ पर चढ़कर अाकाश अश्वस्तन’----संज्ञा पु० [वि0 अश्वस्तनिक ] वह गृहस्थ जिसे केवल एक मे निकलते हैं। दिन के खाने का काना हो । केन्द्र के लिये कुछ न रखनेवानी । विशेप-कहते हैं कि यह लोगो को सुख मौमाग्य प्रदान करते हैं और उनके दुख तथा दरिद्रता ग्रादि हरते हैं ।-कहीं कही यही अश्वस्तनिक--वि० [५०] १. कल के लिये कुछ न रखनेवाला । २. अश्विनी कुमार भी माने गए हैं। कहते हैं कि दधीचि से मधु- | अागे के नये सचय न करनेवाला । विद्य। मीखने के लिये इन्होने उनका सिर काटकर अलग रख विशेष--यह एक प्रकार की ऋषिवृत्ति है । दिया था, और उनके घड पर घोडे का सिर रख दिया था, अश्वस्तर—संज्ञा पुं॰ [१०] घोडे की पीठ पर रखा जानेवाला कपडा और तव उनसे मधुविद्या नीखी थी। वि० दे० 'दधीचि' । [को०] । अश्वियुज्ञ-सच्चा पु० [सं०] ज्योति में एक युग अर्थात् पाँच वर्ष का अन्वहृदय- सज्ञा पुं० [सं०] १ घोडे का चिकित्साशास्त्र । शालिहोत्र । काल जिसमे क्रम से सिंगल, कालयुक्त, सिद्धार्य, रौद्र रदुर्मति बुडमवार [को०] । । संवत्सर होते हैं। अश्वीय-वि० [सं०] अश्वमवधी (को०] । अश्वातक-मजा पृ० [स० अश्वान्तक] कनेर [को०] ।। अश्वीय-संज्ञा पुं० घोडो का समूह (को०)। अश्वाक्ष-संज्ञा पुं० [म०] १ देवमर्षप नामक पौया। २ घोड़े की अषडक्षीण-वि० [स०] जिसे छह अग्दिो ने न देखा हो अर्यात् दो ही अखि [को॰] । व्यक्तियो को ज्ञात अथवा दृष्ट (को॰] । अश्वाजनी--सज्ञा स्त्री० [स०] चावुक । कशा [को०] । अषडक्षीण--सज्ञा पु० रहस्य । राज। (को०] । प्रश्वाध्यक्ष-सज्ञा पु०म०] घुडमवार सेना का अध्यक्ष या नायकको। अषाढ–सज्ञा पुं० [सं० प्रथाढ] वह महीना जिसमें पूणिमा पूर्वापाढ अश्वानीक–मझा जी० [म०] घुइसबार सेना । रिसा ना [को०] । मे तेढे । असाट । अपाळ ।। अश्वायूर्वेद-सा पुं० [म०] दे० 'अश्वशास्त्र' (को०] । अषाढक-सज्ञा पुं० [म० अपाढ़क] 'प्रपाढ का महीना (को०)। अश्वारि-सज्ञा पुं॰ [सं०] १ सा । महिए। २ कग्वीर । कनेर । अप्टग –वि० [सं० अङ्ग] दे० 'अष्टा7'। इ०-कहिय नृपति अश्वारूढ- वि० [सं० अश्वारुढ] जो घोड़े पर सवार हो [को०] । |, अष्ट्रग सुधि । रजि राज फल गान -पृ० र ०, २५१३ । अश्वारोह --वि० [म०] अश्वारूढ [को॰] । अष्टगी--वि० [सं० अष्टाङ्गो] २० 'अष्टा' । अश्वारोह–सझा पु० १ घ्डमवार । २ घुडमवारी (को०] । अष्ट-वि० [सं० अप्टन्] अाट । अश्वारोहक--सज्ञा पुं० [म०] असगंध नामक पौधा किो॰] । अष्ट---सज्ञा पु० अाठ की सस्या । अश्वारोहण --संज्ञा पुं० [सं०] [वि० अश्वारोही] घोड़े की सवारी । अष्टक--सज्ञा पुं० [स०] १. आठ वस्तुओं को भग्र, जैसे-हिग्वष्टक । अश्वारोही--वि० [सं० अश्वारोहिन्] पोडे को मवारी करनेत्रा । । २ वह स्तोत्र या काम जिसमे अाठ नोक हो, जैमे-फुद्राष्टक, अश्वारोही-सद्मा पु० घुडमबार । गगाप्टक । ३ बह ग्रयावयव जिसमें अाठ अध्याय आदि हो । अश्वावतारी-सज्ञा पुं० [सं० अश्या पारिन ३१ माछाप्रो के दो ही ४. मनु के अनुसार एक गण जिसमे पशुन्य, माहस, द्रोह, ईष्र्या, संज्ञा । वीर छद इसी के अंतर्गत है। असूया, अर्थदूषण, वाग्दड और पारुण्य ये अाठ अवगुण हैं । ५. अश्विनी--मझा जी० [] १ व डी । २. २१ न ३ ३ ३ र ? पाणिनि व्याकरण । अष्टाध्यायी । ६ गाठ ऋपियो का नक्षत्र अश्वयुक् । याक्षणी । ३, जटामा । ३१ त छु । एक गण । • •