पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/४३३

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

अश्रांति अश्वगति चंद्रमा नभ में हैंमता या वाज रही थी वीणा ग्रंथात --- अश्लिष्ट---वि० [सं०] १ एलपशून्य । श्लेषरहित । २ असंबद्ध। झरना, पृ० ७१ ! प्रमगत । । प्रश्राति--संज्ञा स्त्री० [सं० प्रश्रान्ति] थाति या यकावट का अभाव । अश्लील" -वि० [म ०] १ फूहडे । भद्दा । २ नज्जाजनक। उ०--ससारयात्रा में स्वपति की वे अटल अश्राति है। अश्लील-मज्ञा पु० १ माहित्यशास्त्र के अनुसार काव्यादि में ऐसे । –भारत०, पृ० ५९ । शब्द का प्रयोग जिनमें ब्रीदा जुगुप्मा २ अमगन की अमि- अश्राव्य-वि० [सं०] १ न सुनने योग्य । २ न कहने योग्य [को०)। व्यक्ति होती हो । २ गॅवाको मापा ।। अश्रि-संज्ञा स्त्री॰ [सं०] १ (कोठरी, घर अादि का ) कोना । २ अश्लीलता- सज्ञा स्त्री॰[म०]फूहड़पन । भद्दापन । गाउन । लज्जा अस्त्र शस्त्र की नोक 1 ३ धार । | का उल्लघन | निलज्जतः । उ०-यो भक्ति में भी सुन गया। अश्री-सज्ञा झी० [सं०]१ अलक्ष्मी । दरिद्री । २. दे० 'अधि' [को॰] । अतीन्नता की नीद मे ।-मारत०, पृ० १२३ । अश्रीक-वि० [स०] १.शोनाहीन । जिमभे श्री न हो। २. भाग्य- विशेष--काव्य में यह दोप माना जाता है । हीन । अभागा [को०] । अश्लेप--वि० [सं०] धनेषरहित । एकनिष्ठ । उ०—द्विम्व मात्र अश्लेष अभ्र-सज्ञा पु०[म०]मन के किसी प्रकार के प्रावैग के कारण ग्रोवो में ब्राह्मण जानि अजेय रामच०, पृ० १६० । में आनेवाला जल । अमू । २ काव्य में अनुभव के अतर्गत अश्लेषासज्ञा प्री० [म०] १. राशिचक्र के २७ नक्षत्रों में से नव सात्विक के नौ भेदों में से एक । नक्षत्र । अश्रुकला-सज्ञा स्त्री० [सं०] अश्रुविंदु [को०] । विशेष--यह नक्षत्र चक्राकार छ नक्षत्रो से मि नकर बना है। अश्रु गैस--मज्ञा स्त्री० [सं० अश्रु+अं० गैस] एक प्रकार की गेम | इमका देवता मर्य है और यह केतु 7ह का जन्म नक्षत्र है। जिसका प्रयोग अनियमित भीड़ को तितर बितर करने के लिये २.अनगाव । विच्छेद । विश्लेप [को०] । शासन द्वारा किया जाता है। अश्लेपाभव --नज्ञा पुं॰ [ न०] केतु ग्रह। अश्रु तै--वि० [सं०]१ जो न सुना गया हो । अज्ञात । २ जिमने कुछ अश्वत---वि० संज्ञा पुं० [म अश्दन्त] दे॰ 'अश्मत' [को०] । देखा सुना न हो । नातजर्वे कार । ३. अशिक्षित ! प्रशास्त्रज्ञ अश्व-सज्ञा पु० [स ०] १ घोडा । तुरग । २ मात की भव्या (को०] । मूर्ख (को॰] । ३ पुरुप की एक जाति [को०] । अश्रुतपूर्व--वि० [सं०] १ जो पहले न मुनी गयी हो । २ अद्भुन । अश्वकदा---मज्ञा स्त्री० [स०अश्वन्दा] अश्वगंधा [को०] । विलक्षण । अनोखा । अवक-यज्ञा पुं॰ [स०] १ छोटा घोडा । २ नाबारिन घोडा । ३ घोडा । ४ खराव जानि का घोडा । अश्रुति---वि० [म०] १ बिना कानवाला । श्रुति या श्रवणरहित ।। त। अश्वकर्ण-मज्ञा पुं० [म०] १. एक प्रकार का माल वृक्ष । २ लेना अश्रुति-संज्ञा स्त्री० १ न मुनना । अश्रवण । २ विम्मृति [को०] ।। माल । ३ पोहे का कान (को०)। ४. चिकित्सा शास्त्र में वर्णित अश्रतिबर--वि० [म०] १ वेदो को न जाननेवाला । ध्यान में एक प्रकार का अस्थिभग [को०] । | मुननेवा । ध्यान न देनेवाला (को०] ।। अव्व'कनो-मुन्ना मी० [न ०] अश्विनी नक्षत्र (कौo] । अश्रुपात-सझा पुं० [म०] असू गिराना । रुदन् । रोना । अवकुटी–नज्ञा स्त्री॰ [स०] घडनाव (को०) । अश्वमुख-वि० [सं०] १ अमु मे भरा हुग्रा। रोता हुग्रा । २. अश्वकुशल---वि० [सं०] घोडा फेरतेवाला नैवीर । अश्वज्ञियकाको]। रोनी मूरत का रुग्रमा । अश्वकोविद-वि० [म०] दे० 'अश्व फुजन'। अथ मुख-सज्ञा पुं० ज्योतिष के अनुनार जिम नक्षत्र पर मगन का अश्वकंद-मज्ञ, पु० [म० अश्वन्द] १ एक प्रकार का पक्षी । २ उदय होता है, उसके १० वें, ११ वे, या १० वे नक्षत्र पर | देवसेना का नायक (को०] । यदि उसकी गति वक्र हो तो वह ( बक्रगति ) प्रमुख अश्वक्राता-सज्ञा पौ० [म० अश्वक्रान्ता] नगीत में एक मुर्छन । कहनाती है । इसका स्वराम यो है--7 म प ध नि म रे ग म प ध नि । अश्रय-वि० [म० अश्रेयस्] १ बुरा । वराव । २. कल्याणकर अश्वखरज--संज्ञा पुं० [सं०] वच्चर वो०] । व्यर्थ । निकम्मा [को०] । अव्वखुर-सज्ञा पुं० [स०] १ नव नामक मुगवि द्र१ । २ घोडे की सुर्म [को॰] । प्रश्रय-सच्चा पुं० १ बुराई । खरावी । २ अकल्याण । ३. अव्वखुरा-नज्ञा स्त्री० [१०] अपराजिता पौधे को नाम (को॰] । दु ख [को०] ।। अश्वगंधी-सज्ञा स्त्री० [म० अश्वगन्धा] असंगध । प्रश्नष्ठ-वि० [सं०] १ जो श्रेष्ठ या उत्तम नै हो । ३. दुरी अश्वगति-सज्ञा पुं॰ [सं०] १ छत्र.शास्त्र में नील वृत्ता का दूसरा निकृष्ट [को०] । नाम । यह पाँच भगण और एक गुरु का होता है, जैसे-मी अश्रौत--वि [सं०] जो श्रुति या वेदस मत न हो कि०] । शिव मानन गौरि जवै मन लाय लखी। ले गई ज्यों सुर्डि मश्लाघ्य-वि० [सं०]१ जो श्लाघ्य न हो । अप्रशमनीय । जो सर। भूपण घारि वितान सखी । २, चित्र काव्य के एक चक्र जिसमें हने योग्य न हो । निम्न । निः । ६४ खाने होते हैं। ३. घोड़े की चाल (को०) ।