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३३ साद्ध, साधनसाद्धय और श्रासाद्धय है । शब्दसागर के नवीन सस्करण रूप भी शब्दार्थ नियोजन में कठिनाई उपस्थित करते हैं। संज्ञा और में संगृहीन नवीन शब्द अतीत के हिंदी साहित्य के स्रोत से ही अधिकाश क्रिया के नाना रूपों में विशेप रूप । मानकत्व प्रौर मानकीकरण लिए गए हैं । अाधुनिक हि की वाङमय के अपेक्षाकृत नव्य ग्रंथो से कम विवाद का विपर्य है । प्रचलिक बोलियों के प्रभाव से अौर काल, वाच्य, शब्द ही जोडे गए हैं। पाभिापिक, वैज्ञानिक और प्राविधिक वचन, भाव, विधि आदि के कारण क्रियापदों के नाना रूप सामने आई प्रकृति के नवप्रयुक्त शब्दो की इमलिये संग्रह नहीं विया जा सका है जाते हैं । अत उनका ग्रहण संभव नहीं हो पाता। हिंदी में सामान्य कि उसका सर्वसमत अर प्रामाजिक रूप अमी निश्चित नहीं हो पाय। अथवा किया था या के नाकी रात रूपो द्वारा क्रिया पदो की निमपिक है। वैज्ञानिक, प्राविधिक प्रादि सबनी हिदी ग्रंथो के विभिन्न लेख को धातु का निर्देश किया जाता है। इन समस्याओं पर विचार करते हुए द्वारा जो शब्द प्रयुक्त हुए हैं या हो रहे हैं उनमें अत्यधिक अनेकरूपता एक ओर तो सभी को कोणपसमिति ने क्रियाथक्रिया के रूपो को मूल है, सर्वमान्य एकरूपता का अभ व है। अग्रेजी शब्दों के अनुवाद की मानकर उनका ग्रहण किया है। दूसरी ओर ऐतिहासिक, भौगोलिक, भावना से लेखको द्वारा एक अथ के लिये भनेक शब्द चल रहे हैं। भापाशास्त्रीय अथवा तद्भवता से प्रभाविन संज्ञारूपो को अपनाया है। विभिन्न ज्ञान विज्ञान और तकनीकी क्षेत्रों की पारिभायिक और प्राविधिक परतु व्याकरण के कारण सामान्य रूपावली को छ ड देना पड़ा है। शब्दावली भारत सरकार तैयार कर रही है। कुछ विषयो के शब्दो सज्ञ'प्रो और विपणो के प्रसंग में स्त्र लिग के विशिष्ट रूप का निर्देश के रूप और स्वयं का निर्धारण होने के बाद कुछ शब्दावलियो का तत्सम या तत्समाभास रूपो के मैन्ण भी कभी कभी शब्देवद्धि की प्रकाशन भी किया जा चुका है। समस्या सामने आती हैं। 'इतिहास', 'भूगोल' से व्युत्पन्न ऐतिहासिक, | यहाँ कथ्य इतना है कि जीवित भाषा के कोशो की शब्दसख्या भूगोलिक शब्दो के घजाय कुछ लोग 'इतिहासिक, भौगोलिक मे वृद्धि और तदनुरूप अर्थविस्तार एक ऐस क्रिया है जिसकी निरतर आदि शब्द प्रयोग करते हैं। यहाँ तत्सम रूप को ही परिगतिशीलता नितात अपेक्षित है । पदार्थों के सग्रह और त्याग के मर्म को निष्ठित मानने का पक्ष प्रवल है। इस तरह से विदेशी शब्दो पहचान कर ही यह कार्य होना चाहिए । नवीन सस्वरण या नवीन के उच्चारणपून के विभिन्न रूप प्रचलित हैं जैसे, इटली, इतली, परिशिष्टो द्वारा शब्दसख्या की वृद्धि सेदा होती रहनी चाहिए । पेटेवाली इताली' अथवा 'योरप, यूरोप' अादि । हिंदी कोशकारो के लिये पद्धति के उपायों से यद्यपि अनावश्यक शब्द-सख्या वृद्धि से बचा जा | इनमे भी मानकीकरण करना कठिन हो जाता है । ३ सकता है तथापि हिदी कोणो मे उसका प्रयोग तभी समीचीन होगा जब | इस प्रकार के अनेक प्रश्न कासपादन उपसमिति के समक्ष हिंदी के प्रौढ क कारों द्वारा कोई व्यवस्था सर्वमान्य हो जाय । समय समय पर आते हैं । उपसमिति के सदस्यों ने विचार विनिमय मानक रूप के अनतर जो निपचय विए । इसी पद्धति पर संपादन का कार्य चलता रहा। उसकी यथाशक्ति परिणति ही परिधित सशोधित शब्दो के ग्रा ह्य, मानक या पनि निष्ठित रूप के स्थिरीय रण की भी हो कर भादसागर के नवीन संस्करण के रूप में प्रस्तुत हो रहा है। एक विशिष्ट ममस्या है । वैकल्पिक अथवा तद्भव शब्दो के नाना १८।१२।६५ नागरी प्रचारिणीसभा, काशी। करुणापति त्रिपाठी [ सयोजक, सपादक मडल ]