पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/४२९

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अशनाया i६२ अव्याप्ति अव्याप्ति--सज्ञा स्त्री० [सं०][वि० अव्याप्त] १ प्राप्ति का अभाव ।२ अशक--वि० [सं० अशङ्को १ नि श क । वेडर । निर्भय । उ-देखा नव्य न्यायशास्त्रानुसार लक्ष्य पर लक्षण के न घटने का दोप, भविष्य के प्रति अशक |-अपरा, पृ० १७४ । २ सदेहरहित । जैसे-'सब फटे खुरवाले पशुओं के सीग होती है । इस कथन में निश्चित किो॰] । अव्याप्ति दोष है, क्योकि सूअर के खुर फटे होते हैं, पर उसके प्रशंकित--वि० [स० अशङ्कित] दे० 'अशक' [को०] । सीग नहीं होती। अशभु -संज्ञा पुं० [सं० अ= नहीं +शम्भु = कल्याण] अकल्याण । अव्याय--- वि० [सं०] व्याप्तिरहित । जो समग्र पर ने लागू हो कि०] । अमंगल । अशुभ । अहित । उ० -मुनी क्यों ने कनपुरी के यौ०---अव्याप्यवृत्ति = सुख दुःख आदि की क्षणिक वृत्ति । राइ । डोले गगन सहित मुरपति अरु पुलुमि पलट जग जाई । अव्यावृत--वि० [सं०] १ निरतर । सतत । लगातार । २ अटूट । नस धर्म मन वचन काय करि शमू अश में कराई। अबना चले, | ३ विना लोट पोट का । ज्यों का त्यो । चनत पुनि थाके, चिर जीव सो मरई। यी रघुनाथ प्रताप अव्याहत'–वि० [सं०] १ अप्रतिरुद्ध । बेरोक । उ०—सुनत फिरउँ पतिव्रत सीता सत नहि टरई ।—सूर (शब्द०)।। हरि गुन अनुवादा । अव्याहत गति शभु प्रसादा -तुलसी अशकू भी---संज्ञा स्त्री॰ [स० असकुम्भी] जन में होनेवाला एक पौधा । ( शब्द०)। २ सत्य । | अाकाशमूली (को०] । अव्याहत-सज्ञा पुं० सत्य या अखडनीय वक्तव्य । अशकुन--संज्ञा पुं० [सं०] कोई वस्तु या व्यापार जिससे अपगल की अव्युच्छिन्न--वि० [मु.] बेरोक | अव्याहत । सूचना समझी जाय । बुरा श कुन । बुरा लक्षण । अव्युत्पन्न--वि० [सं०] १ अनभिज्ञ । अनुभवशून्य । अनाडी । विशेप-इम देश में लोग दिन को गोद ई का वो ना, कार्यारम में अकुशल । २ व्याकरणशास्त्रानुसार वह माव्द जिसकी व्युत्पत्ति छीक होना अादि अशकुन समझते हैं । | या सिद्धि न हो सके । ३ व्याकरणज्ञानशून्य ।। | अशक्त--वि० [सं०][सया अशक्ति १ निर्वत । कमजोर । २. अक्षम् । अव्युष्ट-वि० [सं०] न चमकता हुआ । प्रका शहीन । उ०—उपा के । | असमर्थ । नाकाविन । उ०-होकर अशक्त अकाल में ही काल- अव्युष्ट होने का अर्थ है कि अभी अँधेरा है 1-आर्यो, कवलित हो रहे ।-आरत०, पृ० १०१ ! पृ० ११६ । अशक्तता--सज्ञा स्त्री० [म०] शक्तिहीनता । अयोग्यता [को०] । अत्र--सज्ञा पु० [अ० अत्र, तुल० सं० अन्न] बादल । मेघ । अशक्ति-सज्ञा स्त्री० [सं०] १ निबंला । कमजोरी । २ पाख्य में अन्नण-वि० [सं०] जो क्षत न हो। विना घाव का। जो घाव से बुद्धि और इद्रियो का बघ या विपर्यय । हाथ पैर आदि इद्रियो खराव न हुआ हो (को०] । और बुद्धि का वेकाम होना । अत्रण?--सज्ञा पुं० दे० 'अव्रणशुक्र' (को०] । विशेष---ये अशक्तियाँ अट्ठाईस हैं । इद्रियाँ ग्यारह हैं, अन ग्यारह अव्रणशुक्र--संज्ञा पुं० [म०] अाँख का एक रोग जिसमे आँख की। अशक्तियाँ तो उनकी हुई । इसी प्रकार बुद्धि की दो शक्तियाँ पुतली पर सफेद रंग की एक फूली सी पड़ जाती है और उसमे है तुष्टि और सिद्धि । तुष्टि नौ हैं और मिद्धि आठ । इन सवके सूई चुभने के समान पीडा होती है। विपर्यय को अशक्ति कहते हैं । अन्नत--- वि० [स०] १ व्रतहीन 1 जिसका व्रत नष्ट हो गया हो । २ । अशक्य-वि० [सं०] १ असाध्य । शक्ति के बाहर । न होने योग्य । २ |जिसने व्रतधारण न किया हो । व्रतरहित । ३ नियमरहित । एक काव्यालकार जिसमे किसी रुकावट या अडचन के कारण किसी कार्य के होने की अमाध्यता का वर्णन हो, जैने-काक नियमशून्य । कला कहु कहू' कपि कलकल। कहु झिF 1 रव कक कहू थल । अव्रत-सज्ञा पुं० [सं०] १ जैनशास्त्रानुसार व्रत का त्याग । वसी भाग्य वस सो वन ऐसे । करहिं तहाँ ध्वनि कोकिल कैसे । विशेप--यह पाँच प्रकार का है-प्राणवध, मृषावाद, अदत्तदान, अशत्र १--वि० [सं० 1 विना यात्रुवाला । २ जिमने , शत्रुता का मैथून या अन्नह्म और परिग्रह । व्यवहार नही रखते (को०] । २ व्रत का अभाव । ३ नियम का न होना। अशत्र--संज्ञा पुं० १ चद्रमा ! २ शत्रु का अभाव (को॰] । अन्नत्य- सझा पु० [सं०] घमनुष्ठान का अभाव (को०] । अंशन—सच्चा पु० [स०][वि० अशि, अशीय]१ भो नन । अाहार । अव्वल)---वि० [अ०] १ पला । अादि की । प्रथम । २ उत्तम । अन्न । २ भोजन की क्रिया । 'भक्षण । खाना । ३ चीता । श्रेष्ठ। चित्रक लकडी । ४ भिलाब । ५ अशन वृक्ष । अव्वल.-सच्चा पुं० श्रादि । प्रारम, जैसे-'अब्वने से आखिर तक' । अशनपति--संज्ञा पुं० [सं०] अन्न के रवामी या देवता [को॰] । | -(शब्द॰) । अशनपर्णी--सज्ञा जी० [सं०] पटमन (को०)। मुहा०—प्रवल आना या रहना= प्रथम स्थान प्राप्त करना । अशना--संज्ञा स्त्री॰ [सं०] [वि० अशायित] भोजन की इच्छा ।। अव्वलन् -क्रि० वि० [अ०] प्रथमत । पढ्ने । भूख को०] । अशनाया---संज्ञा स्त्री० [स०] १ मो जने की इच्छा । भूव । उ०- अब्बास -मज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'आवास' । उ०—ऊँचा महल ही इम प्रवृत्ति का हेनु जो बन हो वा है उसे श्रुति में अशनाया अश्वास । करता नारि नर विल्लास -राम० धर्म ०, पृ० १६८ । बल कहा गया है 1--पोद्दार प्र{ि०, पृ० ६१२ ।