पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/४१६

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अगले चिंते - - ।। - । । । = = = अवर्ग’- सच्चा पुं० स्वरवर्ण [को॰] । प्रफुनित ह्व हैं नत मन चढी तरु तमाल-सूर अवर्ण-वि० [सं०] १ वर्ण रहित । विना रंग का । ३.वदरग ।। (शब्द०)। २.मुनहमर । निर्मर, जैसे—इनका पूरा होना बुरे रग की । ३ जो ब्राह्मण आदि के धर्म से शून्य हो । वर्ण द्रव्य पर अवलवित है। (शब्द॰) । उ०—ऐसे ग्रौर पतित धर्म-रहित । अवलवित ते छिन माहि तरे । सूर पति तुम पतित उधारन अवर्ण-मज्ञा पुं० [सं०] १ अकार अक्षर । २ निदा । ३ अपशब्द ।। विरद कि लाज घेरे -“सुर० ११६८ | ३ लटकाया हुआ [को०।४ शीघ्र । मत्वर की। अवयं--वि० [सं०] जो वर्णन के योग्य न हो। अवयै--संज्ञा पुं० [सं० अ+वयं] जो वण्र्य या उपमेय न हो। अवलवी-वि० पुं० [स० अवलम्बन्)[ वि० जी० अलिविनी]१ अव नवन उपमान । उ०--है उपमेय वित्र अरु बन्ने । उपमानतु करनेवाला । सहारा लेनेवा"ना। उ०--ौर भगवान् की करुणा का अवलवी बन गया था !--इद्र०, पृ० ८१ । २ सहारा देने- विषयी अवयं ।---मतिराम (शब्द०)। वाला । पान्ननेवाला । अवार्त-समा पु० [सं०]स्फूतिशून्य पदार्थ । वह पदार्थ जिसके प्रारपार अवनी --वि० [हिं०] दे० 'अव्वल' । उ --प्रवन उकी ननू जी। प्रकाश या दृष्टि न जा सके। | आदर कुरव दे अवधेस- -रघु० स०, पृ०/ ८१ ।। अवार्तq--सज्ञा पुं० [सं० आवर्स] १ आँवर । नाँद । उ०---कादर अवलक्ष'- वि० [सं०] सफेद वर्ण का [को०)। भयंकर रुधिर सरिता चल परम अपोवनी । दोउ कुल दल रथ अवलक्ष’--सज्ञा पु० सफेद वर्ण (को०) । रेत चक्र प्रवत्त वहति भयावनी ।—मानस, ६।८६ । २. अवंलग्न--वि० [मं०] लगा हुग्रा । मिला हुम्रा । सवध रखनेवा ना । घुमाव 1 चक्कर । उ०—विपम विपाद तोरावति धारा । भय अवलग्न?--सज्ञा पुं० शरीर का मध्य भाग । धबु । माझा । भ्रम 'मैंवर अवतं अपारा --मान १, २२७५ ।। अवलच्छना)---क्रि० स० [म० अब +लक्ष्य ] लक्ष्य बनाना । देखना अवर्तन' सझा पु[सं०]जीविका का अभाव । जीविका की अनुपलब्धि। उ०-पच्छ-रहित जीतत उडि पच्छिये । अनरिच्छ गति जिन अमर्तन –सा पुं० [हिं०] दे" 'आवर्तन' । अवलच्छिय |--पद्माकर ग्र०, पृ० 61 अवर्तमान-वि०म०]१ जो वर्तमान न हो। अनुपस्थित । अप्रस्तुते ।। अवलि)---मज्ञा स्त्री०{भ० श्रावलि] दे॰ 'अव नी' । उ०—माल विसाल २ असत् । अमाव । ३ भूत या भविष्य । | " । तिलक झलकाही । कच विलोकि अलि अवलि नजाही ।- अर्धमान-- वि० [स०] वर्धमान का विपरीत । न वढनेवाला [को०)। 'मानम, १॥२४३ ।। अार्प-सज्ञा पुं० [सं०] दे॰ 'अवर्पण' [को०] । अवलिप्त-वि० [स०], लगा हुआ। पोता हुआ। २ सना हुआ। अवार्षण-संज्ञा पुं० [स०] वृष्टि का ' प्रभाव । वर्षा का न होना। असक्त । ३ घमडी । गवत । | प्रग्रहण । अनावृष्टि । अवलिया---संज्ञा पुं० [हिं० औलिया]दे० 'श्रीलिया' । उ०-~-जहाँ बसे अवधु क-वि० [म०] न बरसनेवाला (को॰] । तीरय देव अवनिया होना |--प्रेमघन॰, भा॰ २, पृ० ३४६ । अवलंघन-सज्ञा पुं० [सं० अर्व + लड़न] दे॰ 'उल्लघन'। । । अवली--सञ्ज्ञा स्त्री० [सं० विलि] १ पक्ति । पाँति । उ०-- अवलंघना -क्रि० स० [स० अव+लङ्घन] लाँघना | ‘फाँदना । , मानौ' प्रगट कर्ज पर मजुन अलि अपनी फिरि अाई )—सूर०, उ०—राम प्रताप, सत्य सीता को, यहै नाव-कधीर । तिह | १०(१०८ । २ समूह। झू । उ०—मन रंजन खजन की | अधार छन मैं अवल ध्यौ अवित भई ने वार --सूर०, ९८६ ।। अवली नित अगन अयि न होनती हैं।- केशव (शब्द॰) । अवलंव--सूझा पुं० [स० अवलम्ब] अाश्रय । अाधार । महारा । ३० ३ वह अन्न की डाँठ जो नवान्न करने के लिये खेत से पहले सो अवलव देउ मोहि देई । अवधि पाम पावउँ जेहि सेई -- पहल काटी जाती है। ४ रोअ या ऊन जो गडरिया एक मनिस, २३०६ ।। वार भेड पर से काटती हैं । अवलवक--सज्ञा पुं०स० अवलम्वक एक प्रकार का वृत्त या छद [को॰] । अवेलीक-वि० [सं० अय्यलोक] अपराधणून्य । पापशून्य । निष्पाप । अवेलवन--सा पुं० [स० अवलम्बन] [वि० अवलम्बित, अवलम्बी] निष्कलक । शुद्ध । उ०—जावो वाल्मीकि घर वडो अवलीक १ श्राश्चम । अाधार । सहारा । उ6--नहि कलि करम न साघु कियो अपराध दियो जो बताइये ।-प्रिपा ( शव्द ० )। भगति विवेक । राम नाम अवलवन एकू -तुलसी (पब्दि०) !

  • 1--लसी (शब्द०)।

अवतावि० ["T1. भादात । षाया हुआ । अर्वलीढ़-वि० [सं०] १. भक्षित [ खाया हुआ । २ चाटा हुआ। चाटा हुआ। २. धारण । अह्ण । ३ स्पृष्ट । सपर्कप्राप्त (को॰) । क्रि० प्र०—करना धारण करना। ग्रहण करना । अनुसरण अवलीन--वि० [सं०] युक्त । भीतर युक्त अदर की भोर स्थित (को०] । करना, जैसे,----‘यह सुन उसने मौनावलवन किया' (शब्द०)। अवेलीला---सल्ला स्त्री० [सं०] १ क्रीडा । खेल । २. अनादर। मबहे- ३. छड़ी। लना को ! अवलंबना --क्रि० स०[स० अवलम्बन] अवलवन करना । अाश्रय अवलुचन--सच्ची पुं० [सं० अबलुआन] १ छेदनी । काटन: । ३. लेना । टिकना । उ॰—जिन्हे अतन अवलंबई सो झालंबन । । उखाडना । नोचना । ३ दूर करना । हटाना । अपनयन । ४, जानि । निज ते दीपित होति है । ते चद्दीप बखानि के भाव खोलना ।' अ०, भा० १, पृ० ३५ । अवलुचित--वि०[सं० अवलुचित]१. कटा हु प्रा । छेदित । २. ब्राड अलवित-वि० [सं० अश्लम्बिन] १. प्रश्रि । सहारे पर #ि41 । हुः । नौ वा छु । । ३ दूरीकृत ! हे:या हु प्रः । । । । टिका हुआ । उ०—चरणकमल वल चित राजि1 अन मान । ४,ईन पा खोला हुँ । मुक्त ।