पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/४१३

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अनैजन अवमानी । अगनेजन-सज्ञा पुं० [म०] १ धोना । प्रक्षालन । २. श्राद्ध में प्रत में किया जाय । यज्ञातम्नान । ३०----पायक सरोवर में पिंडदान की वेदी पर बिछाए हुए शो पर जन सोचने का ! अवभृथ स्नान या, अस्मिगम्मान यज्ञ की वह पुणहिति ।-- सस्कार । ३ 'भोजन के बाद के आचमन । लहर, पृ० ६३ ।। अापाक-वि० [सं०] १ अच्छी तरह न पकाया हुआ । २ विना विभ्रट--वि०, ० सझा [सं०] दे० 'अवनाट' (फो०] । जाल का (को० । । अवमता--वि० [सं० अर्थमन्तु] अनादर करनेवाला । अस मान करने- अवपाक-सक्षा पु० अच्छी तरह भोजन न बनानेवाला रसोईदार। वाला (को०] । । वह व्यक्ति जिसे अच्छी तरह भोजन बनाने न आता हो (को०]। अवमथ-सज्ञा पु० [म० अवमन्य] एक रोग जिसमें लिंग मे बडी अगपाटिका-संज्ञा स्त्री० [सं०] एफ रोग जो लघुछिद्र योनिवाली बड़ी और घनी फुसियाँ हो जाती हैं। यह रोग रक्तविकार और रजम्वलाधर्म रहित स्त्री से मैथुन करने से, हस्तक्रिया से, मे होता है और इसमें पीडा तथा रोमाचे होता है । लिगेंद्रिय के बद मुह को बलात् खोलने से अथवा निकलते अवमंथ-वि० सूजन पैदा करनेवाला (को०] । हुए वीर्य को रोकने से हो जाता है । इस रोग में निम् को अवम'--वि० [सं०] १ अधम । अनि म । २ रक्षक । खत्राला । अाच्छादित करनेवाला चमडा प्राय फट जाता है । । ३ नीच । निदित । ४ धनिष्ठ [को०] । ५ कनिष्ठ (को०] । अवपात--सझा पु० [सं०] १ गिराव । पतन । अध पतन । २ गड्ढों अवम-सज्ञा पुं० [मं०] १ पितर या एक गण । २ मल मानी । कु छ । ३ हाथियो को फैमाने के लिये एक गढ़ा जिसे तृणादि अघिमास । ३ पाप (को०)। ४ रक्षक व्यक्ति । त्राता (को०] । से अच्छादित कर देते हैं । ३ पांडा । माला । ४ नाटक में अवमत--वि० [सं०] अवजात । अवमानिन । ति रम्वृत्त । निदित । भयादि मे भागना, व्याकुल होना श्रादि दिख जाकर अफ या । अवमति-संज्ञा स्त्री० [न०] अवज्ञा । उपमान । तिरस्कार । निदा । गुर्भाक की समाप्ति । ५ पक्षियो अादि का ऊपर से नीचे की अवमति-सज्ञा पुं० स्वामी। मानिक वि०] । ओर झपटना [को०] ।। अवमतिथि -सझा स्त्री० [म ०] वह तिथि जिम का क्षय हो गया हो । अवपातन- सच्चा पुं० [म०] नीचे उतारना । गिर राना। अवमर्द-संज्ञा पुं० [सं०] १ ग्रहण का एक भेद । वह यहण जिसमें अव पात्र- वि० [सं०] (म्लेच्छ) जिसके खाने से पात्र किसी के राहु सूर्य मडने या चद्र मड ने को पूर्ण TT में ढंककर अधिक काल उपयोग योग्य न हो (को०] । तक ग्रसे रहे । २ रौंदन। कुचलना । ३ शत्रु को शत अवपाद--सज्ञा पुं० [] नीचे गिराना (को०] । - विक्षत करना । ४ एक प्रकार का उल्लू [को॰] । अवबाहक-.-सज्ञा पुं० [म०] एक रोग जिससे हाथ की गति के अवमर्दन--संज्ञा पुं० [सं०] १ पीडा देना। दूब देना । दलने । २. जाती है । भुजस्तभ । मालिश । रगड़ ना को । अगबद्ध–वि० [सं०] १ जाना हुआ। २ जाननेवाला [को०] । अवमदत-वि० [सं०] १ पीडित । दलित 1 मालिश किया हुआ [को०)। अवबोध-सज्ञा पुं० [सं०] १ जगना । जगना । २ ज्ञान । बोध । ३ अवमर्श--सज्ञा पुं० [सं०] स्पर्श । सपर्क (को०] । शिक्षण । सिखाना। [को०] ४ न्याय करना। फैसला किो०]। पवमर्शसधि---संज्ञा स्त्री० [म ० अवमर्श सन्धि] नाट्यशास्त्र के अनुसार अबवोधक'.- सज्ञा पुं० [सं०] [ी० अवबंधिका] १ बदी । चारगे। पाँच प्रकार की सधियों में से एक । २ रात वो पहरा देनेवाला पुरुष । चौकीदार । पाहरु । विशेप-जहाँ क्रोध, व्यसन अथवा विभो भन ग्रादि से फलप्राप्ति ३ सूर्य । ४ शिक्षक । सिखानेवाला व्यक्ति [को०] । ५ विचार। समझ बूझ को०] ।। के सबध में विचार या शाशका की जाय और जहाँ गर्भसंधि अवबोधक- वि० चेतानेवाला । जाननेवाला ।। से बीजार्थं अधिक स्पष्ट हो वहाँ अपमर्शसधि होत है । अवबोधन---सज्ञा पुं० [स०] १ चेताबनी। ज्ञापन । २ ज्ञान । इद्रिय- वि० दे० 'विमर्ष' ।। ज्ञान [को०] । अवर्माशत--वि० [म०] नष्ट भ्रष्ट [को०] । अवभृग-सज्ञा पुं० [स० अर्बभङ्ग] १ नीचा दिखाना । पराजित । अवमर्प-संज्ञा पुं॰ [स०] १ बिचार । खोज बीन । २. ३० ‘अवमर्श करना। २ नथुना फूलना पचकना (को०)। । स धि' । ३ अाक्रमण किया । अवभास--संज्ञा पुं० [सं०] [वि अवभासक, अभासित] ज्ञान । अवमर्षण-सज्ञा पुं० [सं०] १ मिटाना । २ हटाना । ३. बरबाद प्रकाश । २ टिमपज्ञान । ३ चमक को०]। ४ झनक । करना । ४ असहनशीलता [को०] ।। अामास (को०] । ५ प्रकाए । स्थान (को०] । अवमान-मज्ञा पुं० [न०] [वि० अवमानित] तिरस्कार ! अपमान । अवभासक'- सज्ञा पुं० [सं०] परब्रह्म [को॰] । अनादर । उ०—पूरन राम सुपैम पियूपी । गुर अवमान दोप अवभासक-वि० [सं०] बोध कराने वाला। प्रतीत करानेवी ना ।। नहिं दुषा । मानम, २१२०६ ।। अवभासित—वि० [मं०] लक्षित । प्रतन ।। अवमानन--संज्ञा पुं० [स][वी० अवमानना] दे॰ 'अवमान' । अवभासिनी- सज्ञा स्त्री० [स०] ॐार के चमड़े का काम । चमड़े की अवमानित--वि० [२०] तिरस्कृत । उपेक्षित । अपमानित [को॰] । पहली पर्त । । अवमानी–वि० [सं० अब पारिन्] [वि० स्त्री० अवमानन] तिरस्कार अवभृथ-सज्ञा पुं० [सं०] वह शेप कर्म जिसके, करने का विधान करनेवाला । अपमान गरनेवाला । उ० --नोविय सुद्र पित्र मुख्य यज्ञ के समाप्त होने पर है। २. वह स्नान जो यज्ञ के अवमानी। मुखरु मानप्रिय ग्यान गुमानी मानस, ३५१७२।