पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/४०२

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

|| अलूक अलीप प्रसिद्ध है । इसके बरतने वैनते हैं। इसमें रखने से खट्टी चीजें अलेलह-वि० [हिं०] दे० 'अनेल' । । नहीं विगडती ।। अलेव -वि० [हिं०] अलेर । अलिप्त । उ०-सुने अच भो सो नगै || अलूक-सज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'उलूक' । उ०--सारस्म चिल्ह चागि सहजो ब्रह्म अलेव । - सहजो०, पृ० ४६ । । अलूक --पृ० रा०, ६१।१६७ ।। श्रलेयाः--संज्ञा स्त्री० [हिं० अलहिया] एक रागिनी । वि० || अलुपq--वि० [सं० लुपE अभाव] लुन । गायव । उ०—- ससि दे० 'अलहिया' । । | सूर जो नर्मल तेहि नलाट की रून् । निसि दिन चलहि न अलोइ -वि० [न• अलौकिक] अलौकिक । इस लोक मे मिन्न । । सरवरि पावै तप तप होहि अनूप जायसी (शब्द०)। उ०--जपि राज दुजराज सम । तुम मति रू? अगोइ ।--- अल्फा--वि० [हिं०] दे॰ 'अलोन' । ३०–मुख मन के घर तारी | पृ० रा०, २५१५३ । | लाओ अमी अलूफा पास्रोगा ।----गु नान०, पृ० ५५ । अलोक-वि० [स०] १ जो देखने में न आए । अदृश्य । २ लोक अलूला-सञ्ज्ञा पु० [हिं० बुलबुला बलूता 1 बुबुला । भभूका । शून्य । निर्जन । एकात । ३ पुण्यहीन ।' लपट । उद्गार । उ०-वानर वदने रुधिर लपटाने छवि के प्रलोक-सज्ञा पु० १ पातालादि लोक । परलोक । २ जैन शास्त्रा उठत अजूले । रघुपति रन प्रताप रन मरवर,मनहूँ कम नकुल नुसार वह स्थान जहाँ आकाश के अतिरिक्त धर्मास्त्रि क्राय और फूले ।--हनुमान (शब्द॰) । अधर्मास्तिकाय अादि कोई द्रव्य न हो और जिसमे मोझगामी के आलेख'--वि० [सं०] १ जिनके विषय में कोई 'भावना न हो सके। सिवा और किसी की गति न हो । ७ ३ विना देखी वात । दुवः । अज्ञेय । उ०—अगुन अलेख अमान एक रस । राम मिथ्यादोष । कलक । निदा । उ०—(क) लक्ष्मण सीय तजी सगुन भए भक्त प्रेम बस ।---तुन मी (शब्द०)। २ जिसका जव ते बन । लोक अलोकन पूरि रहे तन --रामव०, पृ० लेखी न हो सके । वेहिसाव । वेअदाज । अनगिनत । बहुत १८१ । (ख) पुत्र होइ कि पुत्रिका यह वात जानि न जाइ । अधिक । उ०—योग बन जप घ्याने अलेख । तीरथ फिरे धरे लोक नोकन मैं प्रलोक न लीजिये रघुराइ !--रामच०, पृ० बहु भेख ।-कोर (शब्द॰) । १६४।४ म सार का विनाश [को०] । अनाव -वि० [म० अलक्ष्य] अदृश्य । उ०—-सितासिन अरुनारे यौ०--अलोक सामान्य = अद्वितीय । असामान्य । | पानिप के सपने को, नीरव के पति हैं अलेख लखि हारे हैं। अलोक -सज्ञा पुं० [सं० आलोक] दे० 'आलोक' । --भिखारी० ग्र०, भा० २, पृ० ३६ । अलोकन--सज्ञा पु० म०] अदृश्यतः । न दिखाई पडना [को०]। अलेवा -सा पु० [स० लेख = देवता] देवता । देव । उ०—सजि अलोकना —क्रि० स० [म० अालो कन] देखना। ताकना । उ०-. निय नरभेपनि सहित ग्रलेखनि करहि असेपनि गानन को 1 र चक दीठि को मार लहै बहू वार वि तो कनि ईठि अनैसी। भिखारी० ग्र०, ० १, पृ० २२९ । टूटिहै लागिहै लोक प्रनोकत वै हठ छूटिहै जूटिहै कैमी १-- ग्रलेखा --वि० [म० अलेख] १ जो गिना न जा सके। बेहिसाव । केशव (शब्द॰) । २ व्यर्थ । निष्फत । उ० ---मूरदाम यह मति अाएविन मव अलोकनीय--वि० [सं०] जो दीख न पडे । अदम्प [को०)। दिन गए अलेवे । का ज्ञान दिनकर की महिमा अघ नैन विन अलोकित---वि० [सं०] अदेखा । विना देखा है प्रा [को०) । देवे ।—सूर०, २।२५ । अलोको -वि० [हिं० अलोक =fतदा+ई (प्रत्य०) ] निदित । अलेखी --वि० [स० प्रलेख] गडबड मचानेवाला । अधेर करने कलकी । वदनाम । उ०-भ्रमै सभ्रम, या शोके नशोको अध में वाला । अन्यायी। उ०----वई अलेखी लखि पूरे परिहरे न अधर्ती अलोके अलोकी ।—रामच०, पृ० १५८ । अलोक्य----वि० [सं०] १ जो स्वर्ग दिलानेवाला न हो । अस्व । जाहीं। असमंजस मो मगन हौं लीजै गहि वाही -तुलसी (शब्द॰) । | २ बुरे स्वमाववाला। क्रूर प्रकृति का [को०] । अलेखी--वि० [स० अ + लेख्य] जो लिखी न गई हो या जिसका । अलोचन--वि० [स०] १ जिसे अखि न हो । २ विना खिड ही या झरोखावाला [को०] ।। लेखा न हो । उ०-~-लेखों में अलेखी मैं नही है छवि ऐसी ग्री, अलोना--वि० [स० अलवरण] [वि० स्त्री० अलोनी]१ विना नमक का। ग्रसमसरी ममसी दीवै कों पर नियै ।--भिखारी० ग्र० भा० । २, पृ० १८६ । जिसमे नमक न पडा हो । उ०—-कीरति कुल करतूति भूति भलि सील सरूप सलोने । तुलसी प्रम् अनुराग रहित जस अलपक'---वि०सि०] किसी भी चीज में लीप्त न होनेवाला । निलिप्त सोलन माग अल ने ।-तुल सी ग्र०, पृ० ५४६ । २ जिसमे निष्कलुप | बेदाग [को०] । नमक न खाया जाय, जैसे--'रविवार को वहुत लोग अलोनी ग्रलेपक’--सझा पु० परमात्मा । ब्रह्म । व्रत रखते हैं । ३ फीका । स्वादरहित । वैमजा । उ०--- अलपापु-वि० [हिं०] ३० अलेपक' । उ०-सर्व निवासी सदा अलेवा केसोदास बोले विन, बोल के सुने बिना हू हिल न मिलन बिना तोही मग समाई |--सदवाणी, भा० २, पृ०४९। मोह क्या संरतु है। कौ लग अलोनो रूप प्याथ प्याय राखौं भलेल–वि० [प्रा० अलि उह'- अप्रयोज्य अर्थात् प्रयोजन से अधिक नैन, नीर विना मीन कैसे धीरज धरतु है ।-केशव (शब्द॰) । बहुत । अधिक । ज्यादा । ३०-धन न द वे ने भलेल दमें अलोप---वि० [सं० लो।] ३० 'लोप' । उ०—अलो। टोन है जो विलसे, सुलसे लट भूमि झलि [---घनानद, पृ० १५६ । घाइ चोप सो धरे ।--पाकर ०, पृ० १२४ ।