पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/३९१

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अर्थातरन्यास ३२२ अर्थातरन्यास-सज्ञा पुं० [अर्थान्तरन्यास] १. वह फाव्याफार निगमे गदित अमुक गिद्धति न मानोगे तो दोद पडेगा, यांपत्ति सामान्य से विशेष का या विशेष से सामान्य का,गाधर्म्य या वैधयं राम गहनाता है। द्वारा, समर्थन किया जाय, जैसे—(क) 'लागत निज मति दोर यर्थाप्रतिकार---अशा तु० [स०]वह प्रबधन जो कारने नौकरों, ते सुदरहू विपरीत । पित्तरोगवश लखहि नर पशि सित तथा अन्य माग्यो था, जिन्हो याच्या मात्र प्रादि दिया है। शखहू पीत । 'यहाँ पूर्वाधं के सामान्य कथन का समर्थन उत्तर | धन देता है ।। के विशेष कथन से साघम्यं द्वारा किया गया है । (ख) ‘हरि अर्थीि--वि० [न० प्रर्यायिन्] १. न की कामना । २ धने- प्रताप गोकुल बच्चों का नहि करहिं महान । यहाँ ‘हरि प्रताप । प्राप्ति के जिये प्रयास गरेनन । ३ अपना मत 7 घाने- गोकुल बच्यो' इस विशेप वाक्य का समर्थन 'का नहि वारहि या ना को०)। महान' इस सामान्य वाक्य मे माधम्र्य द्वारा किये गयी है।गी अर्थना ---गज्ञा ९० [ग० अर्यालद्धार] 7 प्रवरार निमें ग्रेय प्रकार वैध का भी उदाहरण समझना चाहिए २ न्याय में घमत्कार दिया जाय । शन्दान रार के विरुद्ध अनार । एक प्रकार का निग्रह स्थान । जब वादी ऐमी वान कहे जो ऋयिक---मजा '० [म 13 यदीगग 7 राजा । शयन ने ३ नि प्रकृत (असल) विषय या अयं ने कुछ सवध न रग्बती हो, हैं। बनाउन' । म्नति उरि । ३ पहा । प्रहरी [2] । तच वहाँ यह होता है । अथित'-वि० [२०] मीमा मा । :नि य० । अर्थागम सझा पुं० [सं०] धनलाभ । अमदनी । ऋयित-गज्ञा पुं० [मनः । :न्दा । अर्थात्-अव्यं० [अ०] यानी । तात्पर्य यह कि । अर्थी--० [7० अयन्] [ वि॰ अयो] १ म्ा ग्वोपना विशेष—इसका प्रयोग विवरण करने में आता है, जैने-ऐगा । चाह नेत्राला । २ मा र्याय । प्रजनन । म । यात्रा कौन होगा जो भने की प्रशभा नही करतो अर्थान् मर्य करने हैं । ३. वादी । मुद्दई । ४ भूयः । ५ धनी । २० 'सरय' । अर्थातिक्रम-—सया पु० [सं०] कौटिल्य के अनुनार हाथ में अाई या अ न पं० वह जिगने ीि पर पर्या का दावा या हो । मिली हुई अच्छी वन्तु को छोड़ देना । | ( नि) ।। अर्थानर्थसशय-सया पुं० [सं०] एक अोर से अर्थ तथा दूसरी ओर अर्थ्य'--.-वि० [न०]१. गोगने योग्य । ” उनि । उपगुक । अच्छा ! | से अनर्थ की .स भावना । अर्थानथपिद-सशापुं० [सं०] एषा और से प्राप्ति धौर दूसरी और ने ३ घना । ४ चुमान् । सत्य ३ घनी । ४ बुमिन् । ५ सय । ६ पर्योपार्जन गने में राज्य जाने का भय । फुग' (०) । अर्थानुबंव-मज्ञा पुं० [म० अर्यानुबन्ध] शत्रु को नष्ट कर पाणिग्रह प्र --संजनु० जाने दिया या घाफ (१०३ ।। | को अपने वश में करना । अर्दन'-- नशा ऐ० [१०][० अर्दन] १. पदन। दमन । हिना । अर्याधिकारी–सना पु० [ स ० अर्यापिकारिन् ] कोपाधिकारी। २ जाना । गगन । ३ पाना । मगना। ४. शिप र एक | खजाची [को०] । नाम [को॰) । अर्थाना -क्रि० स० [ म० अर्थ +हिं० आना (प्रत्य०) ! अयं अर्दन'-.-वि० १ दीड । हिराः । २ बेचन यो ध्र होकर घूमने .. लगाना । ब्योरे के साथ ममझाकर कहना । प्ररथाना । याना (को॰] । अर्थानवाद-सज्ञा पुं० [सं०] न्यायशास्त्रानुसार अनुवाद का एक भेद । अर्दना - क्रि० म० [न० अर्दन = पदन] पीडित करना । ३०- | विधि से जिसका विधान किया गया हो, उमका अनुवचन या गहि वैष्णवे नो दइ कर भेष नमान ननदि। मद मुरन रत | फिर फिर कहना। अदि प्रति जैसे कुपित कपः।-गोपान (शब्द॰) । अर्यान्वित- वि० [सं०] १ अर्थयुक्त । अर्थगर्भ । २ महत्वपूर्ण । ३ अर्दनि-मज्ञा पुं० [न० ]१ प्रार्थना ।२. मानना । दिक्षा । ३ बीमारी घनवान् [को०]T | रोग । ४ अ7 (फो]। अर्थापत्ति-मज्ञा पुं० [म०] १. मी माता के अनुसार एक प्रकार का अर्दली–गज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अन्दनी' । प्रमाण जिममे एक बात कहने में दूसरी बात की सिद्वि छाप- अदित-वि० [न०] १ पीडित । इति । २ गत । ३ याचिन । से अाप हो जाय । नतीजा । निगमन, जैसे-‘बाद नो के होने से अति -मज्ञा पुं० [न०] एक वात रोग । । वृष्टि होती है। इसमें यह सिई हुया कि बिना बादल के वृष्टि । विशेष—इसमें वायु के प्रकोप से मुंह और गर्दन टेट्टी हो जाती नहीं होती। न्यायशास्त्र में इसे पृथक् प्रमाण न मानकर अनु है, सिर हिनता है, नेत्र प्रादि विकृत हो जाते हैं बोला नही मान के अंतर्गत माना है । २. एक अर्थालंकार जिसमें एक बात जाता और गर्दन तया दाढ़ी में दर्द होता है । के कथन से दूसरी बात की सिद्धि दिखलाई जाय । इमसन्न कार अद्ध ग७--रामा ५०० भद्र]-१ शिव । उ०मग होत ने इस में वास्तव में यह दिखाया जाता है कि जब इतनी बड़ी धनु जानि लपन तिहि मान । यो लोकपासन मनहि सजग वात हो गई, तब यह छोटी वात होने में क्या सदेह है, जैसे- होहु यहि काल ।---रघुराज (शब्द॰) । २ एक रोग । दे० (क) मुख जीत्यो वा चद को कहीं कमल की बात । (ख) 'अगि' । | " जिमने शालिग्राम को भूना, उमें बैगन 'भूनते क्या लगता है। अद्ध-वि० [स०] किसी वस्तु के दो नम 'भागों में से एक । अाधा अर्थापत्तिसम-मज्ञा पुं० [सं०] -याय में जाती के चौबीरा भेदो में में श्रद्ध-सज्ञा पुं० १ स्थान । क्षेत्र । २ भाग । हिस्गा । ३ अाधा एफ 1 वादी के उत्तर में यह कहना कि यदि तुम भरा प्रति- हिस्सा । वायु । हवा । ५ वृद्धि । ६ समीप । लगभग [को०)। ६ || । ।