पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/३९

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ग्रंथों के प्रकाशित वाडमय की अल्पता के कारण कोशकार की चेप्टा पडता है । यद्यपि गिगाटियम अथ'त् अर्थविज्ञान हो भापविज्ञान पूर्ण सफल नहीं हो पाता है। साहित्यिक भाप के शुद्ध रूप श्री ज्ञान व अंगणाग्रा के रूप में महत्व अपेक्षाकृत अर्वाचीन है, र माय और अर्यवोधन में लोक-साहित्य-विज्ञान का सहयोग अत्यत लाभकर है। अनेन अाधुनिक विचाग्यः न भाया । भाषाविज्ञान से पृथ होता है। लोकसाहित्य-विज्ञान का पूर्ण उत्कर्ष तभी है। पाता है जब भी बताने लगे हैं, तथापि अभी अनेक लगा द्वारा में पाविज्ञान उसका अनुशलना में समाजशास्त्र, सस्पृतिविज्ञान, पुरोगविज्ञान श्रीर का ही ना पद माना जाता है। कोश ः प्रद र मदम अयंत्रधिन भाषाविज्ञान के साहाय्य से विवेचन हो। में इम या के जयना बहुत अधिक है। व्युत्पत्ति ( निरुक्ति ) | पव्दव्युत्पत्ति में निर्देश प्रम में भी येवल ध्वनिमाम्य अथवा | यह अन्यत्र कहा जा चुका है कि वर्तमान शब्दों अथवा कश में ध्वनि-विन मि-पग्ध, नियमों के प्रयोगयोग्यता है। पर्याप्त नहीं है। सगृहत शब्दरूपों का विकासश्म और मल शव्द से सबध बताने में प्रयपद को छोडकर 3 वन्न ध्वनि या F५ । भार नपर व्युत्पत्ति विज्ञान अत्यधिक सहायक होता है । कहने की भविष्यकता नहीं चलने में भी व्यन्पनिय प्रयन भ्रमर' अंर अशुद्ध हैं। ठे। कि इसको घनिष्ठ सवध भाषाविज्ञान से हैं। ध्वनिविज्ञान ध्वनि- ६ । प्रत कार्निर्माण में उत्पत्ति के द्वारा परंपरा वा प्रर्यविनि पा विकास-विज्ञान, ध्वनि-तत्व-विज्ञान, पद-रचना-विज्ञान और अर्थविज्ञान विनियोग चड़ है। मह्त्य रखना हैं । आदि के द्वारा व्युत्पत्तिनिर्देश का वैज्ञानिक पक्ष पुष्ट होता है। उन कुछ मुख्य तथ्यों के आधार पर यह जो मरता है कि भाषाकोशकार भादो के जिन मानत ( मानक अथवा स्टैंडर्ड ) विज्ञान की प्रानिक विज्ञान पर व्यापा प्रभाव है। कुछ बातों रूपो का संग्रह करता है उसके निर्धारण का कार्य भाषाविज्ञान की पो छेडवर प्राय मशविज्ञान के समम्न अाधारिक तन्वी पर नाक्षाने सहायता से होता है। वैकल्पिक स्पो के परिचयन में भी भापा- या परंपरया अाधुनिः भाषाविज्ञान का व्याप प्रभाय है। निघद् विज्ञान और तद गभूत व्याकरण शारर अत्यत सहायक होते हैं। निर ताम्रा नापमान में है। भारतवर्ष में विद्या के क्षेत्र में कोशरचना में वह प्रत्यक्ष सहायता देता है। एक हैं। शब्दरूप प्रत्यक्ष र अप्रत्यक्ष रुप ने व्याकरण, भविमान र स्वत्पत्ति प्रयोगगत अर्थवधि की भिन्नता के कारण विपण र सज्ञा यादि के शास्त्र । उजव्या हा सन मिलने लगा | जि वह प्रभाव व्याकरणिक भेद का परिचय देता है। अत कोश के प्रयोग की अधिक स्पष्टतर पर व्यापार बन गया है। अर्थकारिता के प्रभाव से शब्दभेद का निर्धारण व्याकरण से उपजीवित होता है । । निष्कर्ष उच्चारणस्वरूप हिंदी शब्दसागर से पूर्व मानीत कोश में संगृहीत शब्द के उच्चारणरूप । भारत में पाश्चात्य को और शिकारी मप और प्रभाव चच हुई है। अधूनिफ कायों में शब्द के उच्चारणरूप से प्राधनि दृग में वो ना नि मग पुन्निन र विमिन है । की सही जानकारी कराना अत्यंत आवश्यक समझा जाता है । हमने के प्रधनिक वो न नाच की जा च; प्रगम मस्करण अतर्गत इवनियो के सह सई। उच्चारण में भापाविज्ञान में एक की भूमिका में भी इसका सिलिकन दिया गया है। इन्हें देयन से अग इवनिंग्रामविज्ञान--द्वारा वर्ड सहायता मिलती है। नूतन । १। नूतन य स्पष्ट हो जाता है कि पहले में हिंदी कशा में प्रथम था 'पादरउच्चारणसभेतो के माध्यम से उच्चरित माव्द या परिशुद्व रूप । प्रादम' का हिदी को ज १८२९ में 'कलमत्ता' में छपा । इमकै निदष्ट होता है। ध्वनिलेखन के पूर्णत शुद्ध रूप का परिचय देने के लिये ध्वनिग्नामो का विभिन्न परिवेश पूर्व के कोरा पाश्चात्य द्वारा पाश्चात्य लिपि अरि मापा के माध्यम से र पूर्वापर ध्वनियो के बने । गिलक्राइस्ट, जान शेपियर, टेनर, विलियम हेटर आदि सदर्भ मै उरवरित रूप को निर्धारण आज अनेक वैज्ञानिक यत्रो के माध्यम से किया जाता हैं। ध्वनिया के सूक्ष्मतर अ' र सू’ मतम पाश्चात्यो द्वारा निमः कोश सामान्यतः हिंदुस्तानी पर महे गए वैशिष्ट्य का बोध कराने में इन यत्रो का विशेष योगदान है। इनके हैं। उनमें सगृहत शब्दों को प्राय फारसी, नाग और रोमन लिपियों में रखा गया है। फेलन को फोन विशेष महत्व रखता है। द्वारा अक्षरों पर पड़नेवाले स्वराघात के वलात्मक न्यूनाघिकता । क्योकि इसमे हिंदुस्तानी साहित्य, लोकगता और बोलचाल की और अरोहावरोहात्मक चढाव उतार भी यत्रो से पूर्ण रूप में परिजात भाषा से उदाहरण उपस्थित किए गए हैं। परंतु प्लाट्म का कोश हो जाते हैं। तदनुसार निर्मित उच्चान्ण-वैशिष्ट्य-वोधक सकेतचिह्नो के द्वारा कोश के शब्द का विशुद्ध उच्चारणरूप अकित होता है। हिंदी और उर्दू के अशो को पृथक् कर देता है। पादरी मदिम का कोण ही शब्दसागर के प्रथम संस्करण फी भमिका के अनुसार कहने की आवश्यकता नहीं कि भापाविज्ञान की इस क्षेत्र में नई नई उपलब्धियों और अविष्कृतियों से कोशरचना में कार्य पुष्ट हो हिंद का ऐसा सर्वप्रथम शब्दकोश बताया गया है जो देवनागरी लिपि और हिंदी भापा में प्रकाशित हुआ। इसके अलावा शब्द सागर की भूमिका में ही बाद के हिदी कोशो की एक सूची दी गई अर्थविकास है । १८७३ मै श्री राधेलाल हेडमास्टर को काशी में प्रकाशित हिदी कोशो का कदाचित् सर्वाधिक महत्वशाली प्रयोजन है। शब्दार्थ कोश पाया जाता है। इन सवक विस्तृत चर्चा ऊपर हो चुकी है। फा शान कराना। भाषाविज्ञान का इस अश में अत्यधिक प्रभाव इन कोशो मे यद्यपि पाश्चात्य-कोश-विद्या के सिद्धातो का प्रौढ़ता