पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/३८५

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अरुनाना अरेस नरतः देखि थकित रहि रूप कौ लोचन अरुनाए ।—सूर०, १०। अक्ष---वि० [सं०] मुनायम् । मुगुमा । नाग़र (ौ । २५२२ ।। अझना - क्रि० प्र० [हिं०] ० 'ब्रम्झना' । ३० ---(क) " अरुनाना)---क्रि० स० लाल करना । उ०--1ल नेन चाहे प्राण नर त गजराज वाघ हुन। कई जूझते । मन नयु ' दोन मग, अति रिसाइ दृग अगनाइ कै ।- गोपाल (शब्द॰) । चुप, गहिर अम्भन |--गुमान (जन्द॰) । अरुना राg)-- वि० [हिं० भरुन + अारा (प्रत्य०)][वि०मी०रुतारी अस्ट-- वि० [सं० प्रा+स'ठ, प्रा० अपट्ट हि० ट] प्रप न कुछ। लाल रंग का । लाल। उ०-दुई दुइ देरान अधर अनारे । ३०-- नए कई फ़ान कान पम्ट। नेग अनु । मुर77 | नासा तिः कः को वरनै पारे ।--मानस, ११६६ ।। | [ट । पृ० १०, ११७ । अरुनोदय-सज्ञा पुं० ]हिं॰] दे० 'अगणोदय' । उ०--अरनोदय अह'(७)--वि० [सं० आन्द्र] ० 'ग्राम' | सकुचे कुमुद उडगन जोति मलीन --मानस, १२३८ ।। अरु -वि०[१० अर] जो वा प्रवर न है । ११ न. [-] अरुनोपल--- सच्चा पुं० [हिं०] दे॰ 'अरुणोपल' । अरूप'--वि० [सं०] हार दिन। निकाः । 3-Tोः प्र; र अरुरना --कि० अ० [सं० अरुस = धाव] दुखित होना। पीदिन मन दीन ।- (नद०)। (२) सगुन अर में न होना । उ०-० ले भजयस्लरी पल्लव हाथन व नये मल्प मोद ग्रज : I-तु नगी (नन्द०) । उदगा। । । । बिहार । प्यारी के अगनि रन चढे त्यो अनी कला कर अमन । वैमैन [2] । नहि हारे । शोठन दत उरोज नेपक्षत हू महि जीत तिया गिय अप.-मण ऐ० १ वदपुरन यम्न् । २ ग्राम में प्रज्ञान सौर पैदा हारे उरू मरोरनि ज्यो मगर उरही अरुर अनि निहारे 1- में ग्र# ० । देव (शब्द)। झम्पक'--सा पु० [१०] बौद्ध दर्शन के अनुसार मागियो रौ । अरुना@-क्रि० अ० [म० मरोड] मुडन।। सिकुडना । म कुचित भूमि या अवस्था । निवज ममाधि । होना। उ०-~- नीक दीठ तूख मी पतूप सी अररि अग ऊप विशेप---यह चार प्रकार की होनी है---(१) प्रारपतन मी मसरि मुख लागत महूख सी --देव (शब्द॰) । (३) नियन, (३) अ 1: :यनन, प्रो(५) ने इस अरुराना –क्रि० स० [हिं० अरना का स० ०] १ मरोइना ।। मुशायतन । २ मिकोटना । अपक-दि० १ अग। रचितीन । निधाम । २ नानि वा अरुलित --वि० [सं० धरणित में ० अरलित] नलाई गुन । अर अाकरि में विहीन (०१ । णिमा लिए हुए । उ०---पूर्व दीप अगनित भै न ।--7, अपहार्य–वि० [४०] जो नींद" । अपि । । परम्न नहीं पु० १५ ।। अरुबा--सज्ञा पुं० [सं० अध] १ एक लता जिसके पते पान के पत्ते पा अम्पावचर---प्रज्ञा पुं० [सं०] वौद्ध दर्शन के अनुगर जिन कति के सदृश होते हैं । का वह भेद जिनमें अ Tोन का ज्ञान प्राप् होना है। विशेप---इसकी जड मे कद पड़ता है और लता की गाठो में भी । विशेष—यह बारह प्रकार की होती है-7र प्ररर ही एक सूत निकलता है जो चार पांच अगुल चढकर मोटा होने वृत्ति चार प्रकार की विप इति पौ बार प्रहर को लगता है और कद बन जाता है । इसके कद को तरकारी | क्रिया यत्ति ।। वनती है। यह खाने पर कनकनाहट पैदा करता है । वरई लोग अपी-वि० [सं० अरूपिनो विना राना । हो या अरेरे विहान इसे पान के भीट पर होते हैं । | फो०] । अरुवा--संज्ञा पुं० [हिं० रुरुग्रा] उल्लू पक्षी । अस्रना-क्रि० स० [सं० अरुस् = घाइ] दु प्रित होना । पीडित अरुप'- वि० [सं०] १ अक्रोधी । २ चमकदार । ३ बिना हानि का।। अक्षत । ४ चक्कर काटनेवाला, जैसे घोडा । अरूलना--क्रि० प्र० [अरु = क्षत, घाव] छि अनः । विना । अरुप-संज्ञा पुं० १ अग्नि का लाल रंग का घोडा । २ मुर्य । ३ चुभना ।उ०-छत अजुको देञि होगी कहा छतिया नित ज्वाला । ४ रक्त वर्ण के तूफानी वादन को ।। ऐमे अति है ।--देव (शब्द॰) । अरुषी-सच्ची औ• [म०] १ उप । २ ज्वाला । ३. प्रौर्व की माता । अरूपमा पुं० [सं०] १ सूर्य । २. एक प्रकार कर न प ०] । | जो भृगु की पत्नी थी [को०] । अरूस-भज्ञा पुं० [हिं०] दे॰ 'अडूमा' ।। अरुष्क--सझा पु० [सं०] १ भिलावाँ । २. अडूसा । अरे-अव्य० [सं०] १ एक संवोधनार्य अश्य । ए । अो। जैसे- अरुष्कर----वि० [सं०] घाव या नोट करनेवाला । क्षत कारक अरे मिठाईराले ! इधर मा । २ एक ग्रए चर्पनून के अमर । (को०] । जैसे—अरे । देखते ही देखते इसे क्या हो गया । अरुष्कर- सज्ञा पुं० [सं०] दे॰ 'अरुष्क' (को०] । अरेणु'--वि० [सं०] १ धूलविहीन । धनरहित । २ म गवि कि० । अरुहास पु० [सं०] भूधाश्री । भुई अविना ।। अरेणु-संज्ञा स्त्री० [सं०] १ जो धूल न हो । अधूनि । २ देवी देव ।। अरू--सयो० [हिं०] ६० 'अरु' । उ०——और अब दोनो गई तपस्या । [को०] । तो खडित भई, अ, उर्बमी हु जान रही ।--हम्मीर रा०, अरेप-वि० [सं०अपरेस] १. पाप या क न रुरत । २ गु छ। स्वेच्छ। पृ॰ २६ । कातिमान् [को०) ।