पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/३८०

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1 अनपरसना अरा - - - - - - - - - - - - - 'असनापरसना- क्रि० स० [न० स्पर्शन] १ छूना । उ०—ग्ररस अरसौहाँ -वि॰ [ मत प्रालय, हि० अरम + औह ( प्रत्य॰)] परत चुटिया गहें, बरजति है माई |----मुर०, १०।१६२ । २ नस्यपूर्ण । ग्रानस्यभरा। उ०—(क) नमुरेम्वा मौई नई प्रालिंगन करना । मिन्नना। मॅटना । उ०—काहू के मन कछु अरसौं सय गान, मोह होत न नैन ये तुम मोहैं वात वान- दुख नाहीं । अरमि पर नि हँसि हँसिलपटाही - विहारी ( शब्द०)। (ब) मोहै चिनै अन् तिया निरो मूर०, १०९२० ।। हसोहैं सरवति माहि ।--देय (शब्द॰) । अरसपरस--सज्ञा पुं० [ सं० स्पर्श ] लडको का एक खेल । अरहंत(५)--संज्ञा पुं॰ [म० अर्हन्, प्रा० अरहन] दे० 'अहंत' ! उ०-~- अखिमिचौनी । छुआछुई। अँख मुनान । उ०—गुरू वतावे साध पियारे दुजो को अरहन पूजा जोग मानि कै जग में जाको | को साव कहैं गुरु पूज। अरसे परस के वैन मे 'भई अगम की | पूजे सत |--भारतेंदु ग्रं॰, भा॰ २, पृ० १३३।। मूझ-कवीर (गव्द०) ।। अरहुट–मझा पु० [न० अरघट्ट, प्रा० अरहट्ट] एक यत्र जिममे तीन विशेप---इरो से १ में एक लडको अनग कर देते हैं। वह चक्कर या पहिए होने हैं। इन पहियो पर घडो की माला नका अाँख मूदना हैं और मंत्र लडके दूर भाग जाते हैं। नगी होती है जिनमे कुएँ मे पानी निकाला जाता हैं। रहँटे । जव उममे अख खोलने को कहते हैं तो वह औरो को छूने के उ०-कवीर मात्रा मन की और समारी भेप | माला पहरयाँ विये दौडता है। जिसे वह छ लेता है वह भी अंग किया हरि मिले, तो ग्ररहट के गनि देय |--कवीर ग्रे०, पृ० ४५ । जाता है और फिर उसे भीख मू देनी पड़ती है। अरहुन-मज्ञा पृ॰ [ सं ० रन्घन ] वह अाटा या बैनन जो नरकारी, अरसपरम’--सज्ञा पुं० [सं० दर्शन स्पर्श त] देबना। उ०---विनु देखे नाग आदि पकाते समय उसमे मिना दिया जाता है । रेहुन । विनु अरम परम विनु नाम रिए का होई । धने के कहे धनिक उ०-चूक नाइके ये भीटा। प्ररप कहें भने अरहने वादा - जो हो तो निर्धन रहन न कोई ।—कबीर (शब्द॰) । जायसी (शब्द॰) । अरमा--सुज्ञा पुं० [अ० अर्सह] १ समय । काल । २ देर । अनिका न अरहना -सज्ञा स्त्री० [सं० अर्हण, प्रा० अरहणा] पूजा आराधना । ३ अतः । दूरी। फासिना [को०] । ४ क्षेत्र । मैदान (को०] ।। अरहना - क्रि० के० पूजा करना । प्राधना करना । । गुरसाना ---क्रिया १० [म० अलग अ माना। निद्राग्रस्त होना । अरहर---मज्ञा स्त्री० [भ० प्राढ़ की प्रा० अड्ढ ही] १, एक अनाज जो दो उ०—ऐननि मी चितवन चितै, भई श्रोट अग्माय । फिर दल के दाने का होता है । रहर । उ०—-सन मूम्पो वीत्यौ उझने का मगन पनि, दृगनि नगनिया लाय |--विहारी (शब्द॰) । बनी, ऊखी नई उग्वारि । हरी हरी अरहर अजौ, धर घरहर अरसात- संज्ञा ई० [सं० अलस आलस्य ] २४ अक्षरों का एक वृत्त यि नारि ।--विहार ( शब्द०)। २ अरहर का वीज । तुवरी । तुअर । पर्या०——तुवरी । वीप० । करवीरमजा । जिसमे मात 'भगरण' अौर एक 'गण' होता है । यह एक वृत्तवीजा। पीतपुष्पा । काशीगृत्स्ना । मृतालका । गुरप्ट्रजमा । प्रकार का मवैया है। यथा-मासत रुद्र जु ध्यानिन में पुनि विशेप-इमका पौधा चार पाँच हाय ऊँची होना है। इसकी सारमुनी जन वानिन मानिए । नारद ज्ञानिन पानिन गम मु एक एक मीके में तीन तीन पत्तिया होती हैं जो एक ओर हरी निन मे विकटोरिया मानिए । दानिन में जम के बडे तम और दूसरी शोर भूरी होनी है। इसका म्याद कमेना होता है। भारत अब खरी र अनिए। वेटन के दुख छूटन में कह मुहै प्राने पर लोग इसे चवाते हैं और फोड़े फुमियो पर भी अरमात नहीं फुर जानिए। (शब्द०)। अरसवि--वि० [सं० श्रव] वाधी। पाप । उ०—यल गगा पीसकर लगाते हैं । अरहर की लकडिया जनाने और छप्पर छाने के काम आती हैं। इसकी टहनियो ग्रौर पनने ठन्नो मे माँचही महादेव कर मात्र । जोगिन्ह ग्रानि जेवावहू, जाइ कौल अग्नाव |--चित्रा०, पृ० १२५ । वचे ग्रीन दोरिया बनाई जाती है । अरहर वग्मोनमे बोई जातो अरसाग--संज्ञा पुं० [म०] हा सुखी भोजन । विना म्वाद का। है और अगहन पूनमै फुरती है। इनका फून पीले रंग का होना म्वादरहित को०)। है अौर फुत्र भई जाने पर इसमें दो इच की फ़निय नगती अरमिक--वि० [सं०] १ जो रमिक नै हो । अरमन। रूखा । . हैं जिनमें चार पाच दाने होते हैं । दानों में दो दानें होती है । कविता के मर्म को न समझनेवाला । ३ वैम्वाद या विना इनके दो भेद हैं । एक छोटी दूर हो । बडो को 'पहरा' | जायका को (को०)। कहते हैं और छोटी को रयिमुनिया' कहते हैं। छोटे दाने अरमी - मी पुं० [म० असो, प्रा० * प्रहमी] अनमी । जीमी । अच्छी होती है । प्रहर फागुन में पर ती है मौर चैत मे काटी 3 0-~-जनह मान नियानी बरसीं । अनि विनभर फू जनु जाती हैं । पानी पाने में इसका पेट Tई वर्ष त हुर। र अरमी 1---प्रसी (शब्द॰) । गकता है । भिन्न भिन्न देशों में इन 5 जातियां होनी हैं, अरपी’--सा सी० [हिं०] १० ग्रामी'। ३०----तन झुग्मी जैन रायपुर में होना' र 'मी', जगन में 'मप' अर तरसी हिये परमी त्रिन्ह जरूर । दृगनि वारि झर' मा 'नगी ‘वती' तया अामान में 'लजे', 'देव' या 'नी' । दरनी ओरमा नुर }--२० राप्नक, पृ० ३६६ । । अहेड-नै पी० [१० है] चौपायो पा भए । हो ।-हिं० । अरमीला७-वि० [ ग० अलम ] [ सी० अरमीती ] अजेयपूर्ण । अरा'G- म पुं० [हिं० ] दे० 'ना' । ॐ प्रा नै परनि । अन्य ने भन्। उ०—-जु नह। तनु वैठी है भूप में उरकर मदान र प्ररए 1-२० (४०)। २ नर । ही अग कछु अरसीलो मतिराम (शब्द॰) । झगडा ।