पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/३७९

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अररररोनी अरेसन नावढ़ रे का अररिदररि जो पीने लगी सजनी ह्व वह पिया यौ० --- अरविनयनें । अर विदनाम । अरविंदचधु । अरविंदलोचन की सोहागिनि रे की |--कवीर (शब्द॰) । अरविदाक्ष । अररराना--- क्रि० अ० [ग्रनुध्व] अरर शब्द करना । अर राना। २ सारन । ३ नील या रक्तकमले [को०] । ४ का मदेव के पाँच उ०—अररररात दोउ बृच्छ गिरे घर । अति प्राघात भयो व्रज वाणों में से एक [को०] । ५ तावा (को०] । भीतर --सूर०, १०॥३८१ । अविददल प्रभ---संज्ञा पुं० [सं० अरदिन्ददलप्रभ] ताँबा [को०] । अरराना--क्रि० स० [अनुघ्व०] अररर शब्द करना । टूटने या गिरने अरविंदनयन--सज्ञा पुं० [सं० अरविन्दनयन] कमलनयन । विष्ण! का शब्द करना । उ०-तरु दोउ धरनि गिरे भहराइ । जर अरविंदनाभ- सज्ञा पुं० [ स० अरविन्द भ] कमल नाम 1 विष्णु । सहित अरई के अाघात शव्द मुनाइ |--पूर ०। १०३६१। अरविदताभि-सज्ञा पुं० [स० अरविन्दनाभि] विश्णु [को०)। २ अरररर शव्द करके गिरना। तुमुन शब्द करके गिरना। अरविंदवधु-सञ्ज्ञा पुं॰ [स० अरविन्दवन्धु] कमन्नबधु । सूर्य । उ०—वरत बनपात फहरात झहरात अर रात तरु महा घरी अरवियोनि--मज्ञा पुं० [सं० अरन्दियोनि] कमल योनि । ब्रह्मा । गिरायौ।—मूर० १०१५९६॥ ३ भरा पडता। सहसा अरविंदलोचन--संज्ञा पुं० [म० अरविन्दलच 1] कमननथन् । विष्ण। गिरना । उ०—(क) खाये दरार परी छतियों अब पानी परे अरविंदसद् -- मज्ञा पुं० [स० अरविन्द तद्] ब्रह्मा [को०] ।' अरराय परेंगी (शब्द॰) । (ख) सिंहद्वार अरया जनता भीतर अरविदास--संज्ञा पु० [ मृ० अरिबन्दाक्ष] वि णु । आई |--कामायनी, पृ० १६८ | | अरविंदिनी-संज्ञा स्त्री॰ [स० अरदिन्दिनी] १. कमलिनी । २ कमल अरराहट--सा सल्ला [हिं० अरर + ग्राहट (प्रत्य०) 1 अरराने की लता । ३ कमल समूह । ४ क मल से भरा स्थान [को०)। ध्वनि यो अावाज । उ०—यो हो अरराहट अरावन को छायो अरवी--संज्ञा पुं० [सं० लू] एक प्रकार का कद ।। है।--पद्माकर अ ०, पृ० ३२० । विशेप---इसके पत्ते पान के पत्तों के प्रकार के बड़े बड़े होते हैं । अररि--संज्ञा पुं० [सं०] १ द्वार। २. किवाड [को०)। | यह दो प्रकार की होती है, एक सफेद डटी की, इमरी कात्री अररी--- सशा स्त्री॰ [सं०] १ द्वार । २ किवाड (को०] । • डठी की । जड या कद से वरावरे पत्तों के नवे लवै ठ7 निकलते अररु-संज्ञा पुं० [सं०] १ दुश्मन । २ एक हथियार । ३. एक असुर रहते हैं। नीचे नई पत्तियां बँधती जाती है । यह छूने मे लम- का नाम किया। दार और खाने में कुछ कनकनाहट लिए हुए स्वादिष्ट होती है । लोग इसके पत्त का माग इत्यादि वनोकर भी खाते हैं। यह अरलु-सञ्ज्ञा पुं० [सं०] १ श्योनार्क । टेटू । सोनापाडा। सोनागाछ । अधिकतर बैसाख जेठ में बोई जाती है और सावन मे तार हो । २ अलावु । अलावू । कडुई लौकी । जाती है । उ०—चूक लाय के रीधे भाँटा। अरवी व हैं भले अरव----वि० [म०] शोरगुल रहित । रवरहित । शत [को०] । अरवन-मज्ञा पुं० [न० अ= नहीं+हि लवना = खेत की कटाई १ अरहन वटा ।—जायसी (शब्द॰) । फसल जो कवी काटी जाय । २ वह फसल जो पहले पहल अर'- वि० [सं०] नीरस । फो का । २ गॅवर । अनाडी । ३। काटी जाय और ख नहान मे न ले जाकर घर पर लाई जाय । कमजोर । निर्वल (को०] । इसके अन्न से प्राय देवता की पूजा होती है और ब्र ह्मण व त अरस’--सजा ! अरस--सज्ञा पु० म० अ० अर्श] अनस्य । ३०--वहिन ,दुरत हरि आदि खिलाए जाते हैं। अवई । अव नी । अवरी। अवमी । प्रिय कौ परम् । उपजत है मन को अति अानंद, धरनि रंग, कवले । कवारी ।। नैननि को अरस -सूर०, १०1३६५६। अरवत--ज्ञ! पु० [देश॰] वह भौरी जो बोहे के काने की जुड में अरस --सज्ञा पुं० [अशं] १ छत । पाइन । २ धरहरा | महल । गर्दन की ओर होती है। यह यदि दोनो शोर हो तो गुम और । उ०—(क) मारु मारु कहि गरि दे, धिक गाइ चरैया। कम एक ओर ही तो अशुभ समझी जाती है । पास ह्रौं आइए कामी श्रोढ़या । बहुरि अरम ते अाइ के, तब अरवा'संज्ञा पुं० [सं० अ =नहीं +हि० लावना - जलाश, भू नना] अवर लीज -सूर०, १०१३०३८ । (ख) अरस नाम है। बह चावल जी कच्चे अर्थात् विना उवाले या भूने धान से महल को, जहँ राजा बैठे। गारी ६ ६ सत्र उठे, भुज निज कर निकाला जाय। ऐॐ -- सूर ० (शब्द०)। ३ प्रकाश । उ०—-चनकर महन अरवा-सज्ञा पु० [सं०न्त्रालय = स्थान] अाला । तीखा । निकट गिर पडू चिप चढ़ रज अरस फरक धज चाहि । र घु० रू0, पृ० ११६ । ४ मुसलमानों के मतानुसार सबसे अरवाती --सज्ञा स्त्री० [हिं० श्रोरवती] छाजन का वह किनारा जहां से पानी बरसने पर नीचे गिरता है । ओ नती । रौती । ऊपरवाला स्वर्ग जहाँ खुदा रहता हैं । उ०--सजनी नैना गए भगाई। अरवाती को नीर बडेरी कम । अरसठq-वि० [हिं०] दे० 'अह सठ' । अरसर्थ--संज्ञा पुं॰ [देश॰] मासिक अायव्यय का लेबा । वे ही जिसमें फिरि घाई !-—सूर (शब्द॰) । प्रति मास के आयव्यय की खतियौनी जाती है। प्रवाह-सज्ञा पुं० [अ०ह का बहुव० अवहि] जीवात्मा । उ० • अरसनपरसन----संज्ञा [हिं०] दे० 'अरसपरस' ।। दाह इश्क अल्लाह की, जे कबहू' प्रगट अाई । तौ तन मन । अरसन। ---क्रि० अ० [सं० अलस] शिथिल पड़ना। ढीला पदेना । परवाह का सत्र पडदा जल जाई -दाई व०, १० ६७ । मद होना । ३०.-प्रावती हो उन ही सो, उनकी विलाकि द से। अरविंद-संज्ञा पुं० [सं० अरविन्द] १.कमन बिरहु तिहारे अग अग अरसे |---:रघुनाथ (गन्द०)।