पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/३७७

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अरथी ३०६ अरनी ल्यावन बचन कह्यौ बिलखाई। दशरथ' वचन राम बन गवने अरधग' --सज्ञा [म० अङ्ग १ अाधा अंग । उ०- सिव यह कहियो अरथाइ । —सूर०, ६/४७ । २ व्याख्या करना। साहेब अचरज भरी मकल वर्ग अग । क्या कामहि जाग्यो, बताना । उ०—-मा विहान पडित सव' याए । काढि पुराने कियो क्यो कामिनि अरघग १–भिखारी' ग्र०, मा० २, पृ० जनम अरथाए । जायसी ग्रे ०, पृ० १६ । । १२५ । २ शिव । उ०—-त गौरि अरधग अचल व ग्रामन अरथी- सज्ञा स्त्री० [स० रय] १ लकडी की बनी हुई सीढी के चल्ने ।--हम्मीर०, पृ० १३ । ग्राकर, को एक ढाँचा जिसपर मुद्दे को रखकर श्मशान ले अरधग-वि० दे० 'धग' । जाते हैं । टिखटी । विमान । अरवगी'()-सज्ञा पुं० [हिं०] दे॰ 'अर्धांगी' । अरथी--दि० [सं०+ रथी] १ जो रथी न हो । पैदरा । २ जो अरबागी -सज्ञा स्त्री० [अरघग + ई (प्र०)] स्त्री । पत्नी । रथ पर से युद्ध न करे [को॰] । उ०—-यापु भए पनि वह प्ररधगी । गोपनि नाँउ धरयौ अरथी-वि० [हिं०] दे॰ 'अर्थी । उ०—उत्तम मनुहारिन करे। | नवरगी ! भूर०, १०1३१४४ ।। मानै मानिनि मक । मध्यम समयी अधम निजु अर थी निलजु अरधागी –सज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अद्वग' । निसक ।-भिखारी ग्र० भा० १, पृ० २७ । अरध -वि० [हिं०] दे॰ 'अर्थ' । उ०—कूब पहार रात बड ह्व अरदासज्ञा पुं॰ [देश॰] एक प्रकार का करील जो गगा के अरध बड गढ भरहरयो ।—हम्मीर०, पृ० ४३ । किनारे होता है । अरधG)---क्रि० वि० [म० अ०] अदर। भीतर । उ० --प्ररम् अरद-वि० [म०] १ विना दाँतवाला । २ जिनके सभी दाँत गिर उरच अस है दुइ हीया । परगट गुपून बरे जम दीया । गए हो को०] । जायसी (शब्द०)। शरद-सज्ञा पुं० १. दु ख पहूचाना। २ विनाश [को०] ।। अरधभाषरी -सशा पुं० [हिं०] अयं मापरी । एक प्रकार का अरदन--वि० [स० प्र+रदन] १ वे दाँत का । वे दाँतवाना ।। । रीजम्यानी गीत जो भाप का अाधा होता है । अरदन ---सज्ञा पुं० [हिं०] दे॰ 'अर्दन' । अरधमावझेड --सज्ञा पुं० [हिं०] एक प्रकार का राजस्थानी गीत । अरदना --क्रि० स० [म० अद्द न] १ रौंदना । कुचलना । उ०- अरधाई)---वि० [हिं० अरध+प्राई प्रत्य०] प्राधः । उ०---तानि जदपि अरदपुि वैधत तदपि रद काति प्रकामत --गोपाल हाय एक अरधाई 1-केवर ग्र०, पृ० १३३ । (शब्द॰) । २ वध करना। मार डालना । उ०—जिमि अरध----वि० [न०]१ जो पराजित न हो। अपराजेय ।२ नमृद्ध (को०] । नकुल नाग को मद हरत तिमि अरि अरदत प्रण किए - अरन-मज्ञा पुं० [हिं० अडन] एक प्रकार की निहाइ जिसके एक गा गोपाल (शब्द०)। दोनो ओर नोक निवली होती है । अरदल--संज्ञा पुं॰ [देश॰] एक प्रकार का वृक्ष जो पछि बमी घाट और अरन -सच्चा पु० [सं० अरण्य, प्रा० अरण्य] दे० 'अरण्य' । लक द्वीप में होता है । अरा-मज्ञा पुं० [सं० अरण्यक] जगी मैमा । विशेष---इससे पीले रंग की गोद निकलती है जो पानी में नही। विशेष---जो में इनके झुड के झुइ भिलने है । यह साधारण घुलती, शराब में घुलती है । इमसे अच्छा पीले रग का में मे मे वेड और मजबूत होता है । इसके सुडौल और दृ3 वारनिश बनता है । इसका फल खट्टा होता है और खटाई के अगो पर बडे बडे बाल होते हैं। इसका सीग नबा, मोटा और काम आता है। इसके बीज से तेन निकलता है जो ग्रोपधि के पैना होता है और शेर तक का सामना करता है। काम आता है । इसकी लकडी भूरे रंग की होती है जिसमे अरनाg)---क्रि० प्र० [हिं०] शीघ्रता करना । उ०--करी दया मौ नीली धारियाँ होती हैं । गोरका । श्रोट । भव्य 1 सीम दया कर आयी सार चार गुण अरकर :--रा० ०, अरदली-सज्ञा पुं० [अ० अॉडेरली] वह चपरासी या भृत्य जो किमी पृ० ६ । २ दे० 'अना' । । कर्मचारी या राजपुरुप के साथ कार्यालय मे उसकै अज्ञापालन अरनि-~-मझा स्त्री० [हिं०] १० अडन' । उ०--वरपि नि झरे मेघ के लिये नियुक्त रहता है और लोगों के आने इत्यादि की पाइक बहुत कीनो अरनि । सूर मुरपति हारि मानी तव पर यौ इत्तला करता है ।। अरदावा -सज्ञा पुं० [स० अर्दद्, फा० अरद] १ दला हुआ अन्न । दुहुँ चरनि ।--सूर०, १०1९५६ । कुचला हुश्रा अन्न । २. भरता । उ०--धीव टक महिं सौंध

  • अरनी—सज्ञा स्त्री॰ [सं० प्ररणी १ एक छोटा वृक्ष 'जो हिमालय पर

और भिरावा । पख वघार कीन्ह अरदावा ---जायसी (शब्द॰) । | होता है। अरदास --संज्ञा स्त्री॰ [फा० अर्जदाश्त] १ निवेदन के साथ भेंट। विशेष--इमका फन लोग खाते है । इसे ही गुरुजी भी कान प्राची नजर । उ० एहि बिधि डील दोन्ह तव ताई । देहली की है । काश्मीरी और काबुली अरनी बहुत अच्छी होती है । अरदासे आई |---जायसी (शब्द०)। २ शुभ कार्य या इसकी लकडी से चरखे की चरख और डोई ग्रादि बनती यात्रारभ मे किसी देवता की प्रार्थना करके उसके निमित्त कुछ है । यह माघ, फाल्गुन में फूलता है और बरसात में मेंट निकाल रखना। ३ वह ईश्वरप्रार्थना जो नानकप थी पकता है ।। प्रत्येक शुभ कार्य, चावे अादि के प्रारभ में करते हैं । ४ २–यज्ञ का अग्नि मथन काष्ठ जो शमी के पेड़ में लगे हुए प्रार्थना । विनती । पीपल से लिया जाता है। वि० दे० 'मरणि' । उ०-बारबार