पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/३७४

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पंकना अरघ अरकनारे-क्रि० ग्र० [हिं० दरकना] फटना । दरकना । खोरि विराजित कहू कडू कुचनि पर दरकी अँगिया धन । यौ०--अन्कना दरकना । बेलि 1--(शब्द॰) । अरकनीना---सज्ञा पुं० [अ०] एक अरक जो पुदीना अौर सिरकी अगट--वि० [हिं० अलगंट] पृथक् । अलग । निराला । भिन्न मिलाक; खीचने से निकाला जाता है ।। उ०-- बाल छबीली तियनु मे बैठी आपु छिपाई ! अरगट ही अरकनी करना -क्रि० अ० [अनु॰] इधर उधर करना। फानूस सी परगट होति लखाइ!--विहारी र०, दो० ६०३ । ऐचातानी करना। उ०—प्रर के डर के अरकैवरकै फरक न अरगडा–सुज्ञा पु० दे० 'अर्गला'। । रुकै मजिवोई च ।-के शव (शब्द॰) । अरगन-सज्ञा पुं० [अ० अर्गन] एक अँगरेजी वाजा ।। 'ग्ररक वादियान--संज्ञा पु० [अ०] मौफ का अरक । विशेष-यह धौंकनी से बजता है। इसमें स्वर निकलने के लिये अकला-सज्ञा पु० नि० अर्गला=अगरी या वडा रोक । | नलियाँ लगी रहती है । यह वाजा प्राय गिरजाघरो मे रहता मर्यादा । उ०-भट अहै ईश्वर की कला । राजा सब राख्रह है और एक आदमी के जाने से वज़ता है। अरकला |--जायसी (शब्द॰) । अरगनी--मज्ञा स्त्री० [हिं० अलगनी] बाँस, लकडी या रस्मी जो अकसी-संज्ञा स्त्री॰ [सं० श्नालस्य] । मुम्ती । प्रमाद । किसी घर मे कपडे आदि रखने के लिये बांधी या लटकाई अरकाट-संज्ञा पु० दक्षिण भारत का एक स्थान । जाय 1 अलगनी । टा--पशा पुं० [हिं० अरकाट] वह व्यक्ति जो लिया ग्रादि का अरगल--संज्ञा पु० [सं० अर्गल] १ वह लकडी जो किवाड वद करने ।। चाय के बगीचों में या मारिशस, गिाना अादि टासुग्री में काम पर इसलिये द्याडो लगाई जाती है कि किवाह वाहर में खुले || करने के लिये भरती करके भेजना हो। नही। व्योढा । गज । उ०---अरि दुर्ग लूटि अरग 7 अखड । 'अरकान--संज्ञा पुं० [अ० रु' का बहूत्र०] राज्य के प्रधान मचालक। जनु धरी बडाई वाहु दह । गोपुर काट विस्तार झारि । गहि धयो वच्छ थल मे सँवारि 1-गुमान (शब्द)। प्रॉनि राज फर्मवादी । मत्रिवर्ग । उ०--जावत ग्रहहि मकन । अरगवान--संज्ञा पुं० [फा०] गहरे लाल रग का एक फून तश्रा उक्त अरकाना। में भर ले दूर हैं जाना --जायसी (शब्द॰) । फूल का वृक्ष को०]] 'अरकामर—मुझी पुं० [सं० फासार] तान्नाव। वीवली |--डि० । अरगवानी'--संज्ञा पुं० [फा०] रक्तवर्ण । लाल रग ।। प्रेरकोन्न-संज्ञा पुं० [सं० कोलोरा] एक वृक्ष जो हिमालय पर्वन पर। अगवानी–वि० १ गहरे लाल रंग का । लाल । बैगनी । होता है। इसका पेड़ झै म ने आसाम तक २०० ० से ८००० । अरगा-संशा [फा० इस] घोडे की एक प्रकार की चाल । फुट की ऊँचाई पर मिलता है । इसकी गोद ककरसिंग या कदम चाल जिसमे चारो पैरे अलग अलग पडते है । काकडमिगी कहताती है । लाग्छ। विशेष—इस चाल को चलते समय घोडा देह को साधकर | अरक्षित--वि० [म०] १ जिम की रक्षा न की गई हो । रक्षाहीन । चलता है। चारो टाँग अलग अलग पडती हैं। इस चाल मे । २ जिसका रक्षक नै हो । सवार घो" की लगाम खिची हुई रखता है और घोडे का कल्ला | अरखेट)---सज्ञा पुं० [प्रखरानट, अखरोटो, ७ अखरोट] १. (गर्दन) उठा हुआ और स्थिर रहता है । अक्षर २ लिखावट । उ०—निख लिलाट पट्ट बिधि अरखट | अरगाना' —क्रि० अ० [ हिं० अलगाना ] १ अलग होना । मिटही न कोटि जतन वारे वैए ।-अकवदी०, पृ० ३२४ ।। पृथक् होना । उ०—(क) लोग भरोसे कौन के जग वैठे ।। अग’---मज्ञा पुं० [ म०प्रगरु = एक चदन] अरगजा। पीले रंग को अरगाय ।--कबीर (शब्द०)। २ सन्नाटी खीचना । चुप्पी एक मिश्रित द्रव्य जो मुगवन होना है। इमै देवताग्रो को माधना । मौन होना। (ख) सुनि लियौ उनही की कयौ । चढाने है और माथे में लगाते हैं। अपनी चाल समुझि मन ही मन गुनि अरगाई रहयौ ।- ।। अरग’-सज्ञा पुं० [हिं०] ० 'अके'। उ०—अन वरुन उठायौ । सूर०, १०५४१२३ । अरग उद्दिग चगि जुज ।—पृ० रा०, ६१५१६६५ ।। मुहा०---प्राण अरगाना=प्राण सुखना। अकचका जाना । ' अरगजा-मज्ञा पुं० [हिं०] एक मुंगधित द्वब्य जो शरीर में लगाया विस्मित होना । उ०—जास जैसी भाँति चाहिये ताहि मिले जाना है। यह केशर, चंदन, कपूर, अादि को fम नाने में बता त्यौं धाइ । देम देस के नृपति देखि यह प्रीति रहे अरगाइ ।-- हैं । उ०--में ले दयीं, लयौ मुकर छुवत छिनकि गौ नीरु । सूर०, १०४२८२ ।। लान्न तिहार अरगजा, उर हूँ लुग्यो अबीरु --विहारी अर्गानाg--क्रि० स० अलग करना । छाँटना । उ०—वेरनि न २०, ६० ५३५ । जाइ भक्त की महिमा वारवार बखानौं। अब गजपूत विदुर । अरगजो'–नज्ञा पुं० [हिं० अरगजा] एक रग जो अरगजे का मा दामी मुत कौन कौन अरगानौ ।--पूर०, १११ ।। । होता है। अरघ -सज्ञा पुं॰ [स० अर्ध] १. सोन्ह उपचारो मे मे एक । वह । अरगजी--वि० १ अरगजी रग का । २ अरगज की सुगध का । जल जिसे फू, अक्षत, दूत्र आदि के नाथ किसी देवता के मामले । उ०---रधारी लटे छूटी अानन पर भीजी फुनेनन सो श्राली गिराते हैं । उ०—-करि आरती अग्ध तिन्ह दीन्हा। राम र मा केनि । नाधे । 'त्र रग जी अरु पर जी गा। वैसरि ग मनु मंडप तब कीन्हा 1-मानम, १३१६ । २ वह जल