पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/३६८

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अमौना अम्लवेत सोना -सज्ञा पुं० [ने अम्र] अाम का न प निऊ 11 इम्रा । । अम्रियमाणा--वि० स०] जो मरणशील न हो । ग्रमंर । उ०—-मैं अमोलिक - वि० [हिं०] २० मेनूर' । उ०--TIट वर पहिय गाता था गाने भूले अम्रियमाण ।-अनामिका, पृ० ४५।।

  • अधिक प्रमोके । नदप दे र फू ने नददास वोनिकै ।- अस्त---प्रज्ञा पुं० [म०] १ जिह्वा में अनु पुत्र होने वाला छ रसा में से

नद० ग्र ० पृ० ३३६ । एऊ । भटाई । २ तेजाब । ३ सिरका को०] । ४ मट्ठा जिसमे अमोही--वि० [सं० अोह +ई प्रत्य॰)] १ विरक्त । २.नि नही। एक चतुयश जल हो कौ] 1 ४ वमन [को०] । निठुर । उ०—-मीत सुजान अनीति करौं जिन हा हा ने अम्ज’ -वि० खट्टा । तुर्श । । । हूनिऐ मोहि अमोही ।--घनानद०, पृ० ।। यौ॰—अलपचक-च प्रकार के प्रमुवे बड़े फन--जवरी नीबू, अमौसज्ञा पुं० [सं० श्राम +ौ (प्रत्य॰)] १ आम के फन । खट्टा अनार, इमली, नागी अौर अमलवेत् । का रग । यह कई प्रकार का होता है,जैसे, पीला, मुनहरा,मागी, । अम्नक--सज्ञा पुं॰ [सं०] लऊच वृक्ष । वडे हार। कि नगी, 17 इवादि । २ अ मौऋ। रग का कपडे।।। अम्लकाङ-सज्ञा पु० [सं० अम्ल काड एक पौधा । लवगण (को०] । अमौझा--वि० ग्राम के रस के रग का । अम्लकेशर-मज्ञा पुं० [सं०] विजौरा नीबू (को०] । 'अमौन-मा पु० [सं०] १ भौर का अभाव । वो नना 1 २ आत्म- अम्लगोरस -सज्ञा पुं० [सं०] खट्टा दूध (को०] । ज्ञान । ३ मुनि के कर्तव्यों का अवा नन । मुनि न होना को॰] । अम्लजन----मञ्ज पुं० [हिं०] १० ग्राक्सिजन' । | अमौलिक----वि० [सं०] १ विना जड का । निमूल । २ वे सिर परे । अम्लतरु-तज्ञा पुं० [सं०] इम जी का वृक्ष [को०)। | का । विना अाधार का । जिम का म व मून से न हो। ३ । अम्लता----मझा नी० [सं०] खट्टापन । खटाई । अयथार्थं । मिश्रर । ४ अन्य रचना के आधार पर या अनुवाद अम्लनिशा- - ज्ञा पुं० [सं०] शी नाम का पौधा कि]। के रूप में चित्र [को०] । अम्ल पत्र--संज्ञा पुं० [म ०] अमन के नाम का पौधा [को०) । | | अम्म--सज्ञा 3० [अ०] चाचा । ३० -कहे ? अम्मे बुजुर्ग धार व मेरे अम्जपत्री- 'सज्ञा स्त्री० [सं०]१ प नाशी लता । ३ क्षुदामिनका (को०)। दुनिया होर दीन के अाधा; मेरे ।--दकिंवनी, पृ० २३१। अम्लपनस---मज्ञा पुं० [सं०] वडहार [को०)। | अम्मय–वि० [सं०] जनमय । जलयुक्त या जननिर्मित किो०)। अम्लपाद-सज्ञा पु० [म०] दे॰ 'अम्लतरु।' | अम्मर(s)---वि [हिं०] ६० 'अमर'। उ०---मना है अस्थान अम्मर अम्लपित्त--संज्ञा पुं॰ [स०] रोगबिशेप जिसमे जो कुछ भोजन किया जोति है परगाम --जग० बानी, भा० १, पृ० ४ । जाना है सब पित्त के दोप मे खट्टा हो जाता है। | अम्मरमरा----संज्ञा पु० [हिं० प्रवरार + प्रा (प्रत्य०)] अमृतसर का विशेप---यह रोग खी, खटी, कडवी श्रीर गर्म वस्तुप्रो के खाने | कवूनर । एक कबूतर जिम हा सारा शरीर सफेद और कई काना मे उत्पन्न होता है। इसके लक्षण ये हैं--रगविरग का मन होता है। उतरना, दाह, वमन, मूच्छ, हृदय में पीडा, ज्वर, भोजन में अम्मल-मज्ञा पुं० [अ०] १० 'अमल' । उ०—-बाजीगिरी रग दिखावे अरुचि, खट्ट डकार आना इत्यादि । ऐमा अम्मल मुर्भ, नहि भावे |–दक्खिनी॰, पुं० १२५॥ अम्लफल --मज्ञा पुं० [सं०] इम भी [को०] । अम्माँ--सज्ञा श्री[मे० अन्वा] माता । माँ। अम्लवीजक—मज्ञा पुं० [सं०] १० ‘अम्नफन' । अम्मामा-संज्ञा पुं० [अ० अन्ना नह] एक प्रकार का माफा जिसे मुसल- अम्लभेदन----संज्ञा पुं० [सं०] अम्नबेन [को०] । मान वांधने हैं । अम्लमेह--सज्ञा पुं० [सं०] मूत्रविषयक रोग। एक प्रकार का | यौ०--अम्मामेबाज--(१) साफ वाँध हुए। (२) साफा । प्रमेह को । । वाँधनेवाला । अम्लरुहा----सज्ञा पुं० [सं०] मालवा में पाया जानेवाला एक प्रकार । अम्मारी सच्चा स्त्री० [हिं०] दे॰ 'वारी' । | का पान [को०) । अम्याँ-प्रव्य ० [हिं०] दे० 'अमाँ । जैसे, अम्याँ क्या कहते हो । ।। अभ्र-सा पुं० [सं०] आम्र [को०]। . अम्ललोणिका---सज्ञा पुं० [सं०] अमलोनी । नोनियाँ साग । अम्लुलोणी----सज्ञा जी० [सं०] दे० 'अम्नाणिका' (को०] । || अम्र-- सच्चा पुं० [अ०] १ बात । विपय । का। 1 मुग्रामिला । उ०—- || अम्र खुदा का लिथा वजा ” नही ते मुनकिर होना -दक्खिनी अम्ललोलिका--संज्ञा स्त्री॰ [सं०] दे० 'अमलोनी' [को०] । १० ५५ । २. हुक्म । अादेश । अम्लवर्ग---संज्ञा पुं० [सं०] बट्ट फनो या पत्तो का बर्ग जिसमें नीवू. । अम्रत -पुं० [हिं०] ६० 'अमृत' । उ०—-चउरास्या सहू नारगी अनार, इमली अदि आते हैं (को०)। वर्णव्या । अम्रत रसायण नरतति व्यास--वी० रासो, पृ० १०० अम्लबल्ली--संज्ञा स्त्री० [सं०] एक कव । श्रिपणिका [को०] । अम्रता पुं० [सं०] १. अमड़ा का पेड । २. अमडा फन [को०] ।। अम्लवाकट---सज्ञा पुं० [सं०] आमडे। फ ने श्रीर वृक्ष (को०] । अघातक-सा पुं० [सं०] ६० 'अम्रीत' । । अम्लवाटिका---पज्ञा जी० [सं०] एक प्रकार का पान [को०] । अन्नत्या--संज्ञा पुं० [सं० ३०.६० अमः ] देबता । (प्रनेकार्थ०) । अम्लवास्तूक-44-सज्ञा पुं० [सं०] चुकेक फिी०) । अम्रित -सज्ञा पु० [हिं०1३० अमृत' । ३०-सत्त ताम र अम्रिते अम्लवृक्ष----जज्ञा पुं० [सं०] दे॰ 'अम् तत' कि । पीवहु, चरन ते लौ लाई !---जग० बानी, भा० ६, १० २५ । अम्लवेत--संज्ञा पुं० [स०अम्लने स्]ि ६० अमलबँ' । - --