पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/३६६

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अमृतमंथन | २६७ अमेठना अमृतमंथन- संज्ञा पुं० [म० अमृतमन्यन] अमृत के लिये समुद्र का निसथ । ७ प्रविला । ८. दूब ! ६ तुलसी । १० पीपन । मथन् । समुद्रमंथन (को०] । पिप्पली । ११ मदिरा । १२ फिटकरी [को॰] । खरबुजा | अमृतमती---सज्ञा स्त्री० [सं०] अमृतगति छद [को॰] । [को०] । १४ शरीर की एक नाही (को०)। १५ मूर्य की एक अमृतमालिनी-संज्ञा स्त्री० [म०] दुर्गा [फो] । किरण का नाम (को॰] । अमृतभूरि--संज्ञा स्त्री॰ [ स० अमृत + हि ० मूरि ] स जीवनी जडी । अमृताक्षर-- वि० [स०] १ अजर अमर । अविनश्वर [को०)। उ०— अभरमूर । फूट तर अमृताक्षर निर्भर ।-अपरा, पृ० २३० ।। अमृतमूति-सज्ञा पुं॰ [स०] चद्रमा को०] ।। अमृताफल-सझा पु० [सं०] परवर । परोरा । पटोल [को०] । अमृतयोग-सज्ञा पुं० [सं०] फलित ज्योतिष में एक शुभफलदायक योग। अमृतासग-सज्ञा पु० [स० अमृतासङ्ग] तूतिया [को॰] । विशेष--रविवार को हम्त, गुरुवार यो पुष्य, बुध को अनुराधा, अमृताशी-सज्ञा पुं० [स०] १ विष्णु । २ देवता कि० । शनि को रोहिणी, मोमवार को श्रवण, मुगल को रेवती, शुक्र अमताशन--संज्ञा पुं० [सं०] देवता को । को अश्विनी--ये मब नक्षत्र अभृनयोग में कहे जाते हैं। रवि अमृताशो---सज्ञा पुं० [स० अमृताशिन्] देवता [को०] । और मनवार को नदी तिथि अर्थात् परिवा, पष्ठ और अमृताहरण—संज्ञा पुं० [सं०] गरुड ।। एकादशी हो, शुक्र और सोमवार को भद्रा अर्थात् द्वितीया. | अमृताह्व-मझा पु० [म०] एक फन । नाशपाती [को॰] । मप्तमी और द्वादशी हो,बुधवार को जया अर्थात् तृतीया, अष्टमी अमृतेश-सज्ञा पु० [स०] १ देवता २ शिव (को०] । और त्रयोदशी, गुरुवार को रिक्ता अर्थात् चतुर्थी, नवमी और अमृतेशय-सज्ञा स० [सं०] जलशायी विग्ण (को॰] । चतुर्दशी हो, शनिवार को पूर्णा अर्थात् पचमी, देशमी और अमृतेश्वर--सज्ञा पु० [म० अमृतेश [को०] । पुणिमा हो तो भी अमृत योग होता है । इस योग के होने से भद्रा और व्यतीपात आदि का अशुभ प्रभाव मिट जाता है । अमृतेष्टका--सज्ञा जी० [सं०] एक प्रकार की ईंट (को०] । अमृतोत्पन्न--संज्ञा पुं० [८०] दे॰ 'अमृतोद्भव' । अमृतरश्मि –सज्ञा पुं० [स०] चन्द्रमा ।। अमृतोत्पन्ना-सज्ञा स्त्री॰ [म०] मक्षिका। मक्खी [को०] । अमृतरस-सज्ञा पुं० [सं०] १ गुघा । अमृत । २ परब्रह्म (को०] । अमृतोद्भव-- मज्ञा पुं० [स०] खर्परी तुत्य । खपरिया तृतिया [को०] । अमृतरसा--सज्ञा स्त्री० [स०] १ काले रंग का अगूर । २ कि । मिठाई । अनग्मा [को॰] । मृत्यु'--प्रज्ञा पुं० [म०] विष्णु का एक नाम (को०] । | अमृतलता-मज्ञा स्त्री॰ [१०] गुर्च । गिलोय । अमृत्यु-मज्ञा सी० मृत्यु का अभाव । अमरता [को०] । अमृतलतिका-मनी स्त्री० [सं०] दे० 'अमृतलता' । अमृ५३---वि० १ अमर । अमृत बनानेवाला [को०] । अमृतलोक-सञ्ज्ञा पु० सि ०] म्वर्ग ! अमरलोके । अमृष्ट---वि० [स०] अमाजित । जो साफ न हो । गदा । जो शुद्ध न अमृतवपु–मज्ञा पुं० [म०११ चद्रमा । २ विष्णु [को०]। पिाव (को०] । किया गया हो । अमृतवृत्ति--संज्ञा स्त्री० [सं०] यज्ञशेष सामग्री का उपयोग करना । यौ०-अमृप्ठभोजी = अपवित्र वा अशुद्ध भोजन करनेवाला । अमृष्ट- उ०—-वे तपस्वी ऋत और अमृतवृत्ति से जीवननिर्वाह करते मृज = जिसकी शुद्धता अक्षुण हो । हुए प्रार्थना करते थे ।—कद०, पृ० १३२ । श्रमेटा--वि० [हिं०]दे० 'अमिट' । उ-काह कहौ मैं अोहि कहें जेई | अमृतसजीवनी–वि० [सं० अमृतसञ्जीवनी] दे० 'मृतसंजीवनी' । दुख कीन्ह अमेट |जायमी ग्र०, पृ० २४२। | अमृतसभवा--मजा ली० [स० अमृतसम्भबा] गुर्च । गिलोय । अमेजना--क्रि० अ० [फा० अमेज] मिलावट होना । मि नना। अमृतसहोदर-भञा पुं० [म ०] २० 'अमृतभोदर' ।। उ०----(क) कहै पदमाकर पगी यो रस र ग जामे, बूलिगे अमृतमार--सच्चा पुं० [न ०] १ नवनीन । मक्खन । २ बी। सुग्रग सब रगनि अमेजे ते [---पद्माकर ग्र०, पृ० ४८ । (ख) | अमृतसारज-मझा यु० [स०] गुड [को०] । मोतिन की माल मनमलवारी सारी मजे, झनमले जोति होति अमृतसू--मज्ञा पुं० [स०] चंद्रमा को । चाँदनी अमेजे मैं---वेनी (शब्द०)। अमृतसोदर--सज्ञा पुं० [म ०११ उच्च श्रवा नाम का अरब । २ अश्व । अमेजना - क्रि० स० मिलाना । मिला अट करना । तुरन किो०] । | अमेठ---सज्ञा स्त्री० [स० अ+मृष्ट, प्रा० पिट्ठ, ७ पेठ ७ अपेठ ] अमृनत्रवा-सज्ञा स्त्री० [म०] रुदती या रुद्रव ती नाम का पौधा [को०}} पिय । निपट निनज इह जेठ, धाय धाय बधुबनि गहै ।--- अमतधिस्-सज्ञा गुं० [स० अमृतावस्] देवता ।। दे० 'ऐंठ' । उ०----रही न ननक अमेठ तुम बिन नंदकुमार अमृतांशु—भज्ञा पुं० [सं०] वह जिमकी किरणो में अमृन हो । चद्रमा। नद० ग्र०, पृ० १६६।। अमृता-- सझा स्त्री० [सं०] १ गचं । उ०—धत वीच यह समय न अमेठना ---क्रि० स० [हिं०अमेठ से नान०] ३० उमेठना' । ३०---- जाह । नेत्रा साथ अमृता वाहू ।इद्रा०, पृ० १५४ । २ । पुनि जब भौह अमेठने लागे । तव ये ग्वान वाल डरि भागे -- इद्रायण । ३ मा 'कॅगनी । ४ अजीम ५ हड़ । ६. लाल नद० २ ०, पृ. ३०१ ।।