पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/३६५

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२६६ अमूर्तीके अमृतभुक् अमूर्तीक--वि० स०]अमूर्त । निराकार निरवयव । उ०—दूसरा द्रव्य त्वरितगति नया अमृत तिनका भी कहते हैं । उ०—निज नग है धर्म जो अमूर्तीक सर्वव्यापी है ।-हिंदु० सभ्यता, पृ० २२७t खोजत हरजू । पय मित नक्षमि बरजू (शब्द०)। अमूल'---वि० [सं०] १ जिसका मूल न हो। वे जड का। २. निरा- अमृतगर्भ- संज्ञा पुं० [म०] १ ब्रह्म । ईश्वरः । २ जीवात्मा (को॰) । | धार । प्रमाणरहित (को०)। ३ अभौतिक (को०)। ४. चल(को०)। अमृतजटा--- संज्ञा स्त्री॰ [सं०] जटामासी । अमूल..-सज्ञा पुं० साक्ष्य के अनुसार प्रकृति । अमृततरगिरणी--सज्ञा स्त्री० [सं० अमृततरङ्गिणी] चद्रिका । चाँदनी । अमूल -वि० [स० अमूल्य] अनमोल । उ०--(क) जउ भरि अमृतत्व-संज्ञा पुं० [सं०] १ मरण का अभाव ) न मरना। २. बूठउ भाद्रवउ मारू देस अमूल ढोला० दू० २५०। (ख) मोक्ष । मुक्ति । दिव्य वस्त्र काहू करन, नाना वरन अमूल ।—पृ० ० ६॥५१॥ अमृतदान--सज्ञा पुं० [म० अमुत +फा० बान, अथवा मै० मुटान् ] अमूल -क्रि० वि० [हिं०] दे० 'अमूल' । उ०—-मैन चोट आसी। | भोजन की चीज रखने का ढकनेदार वर्तन । एक प्रकार लगी गासी ज्यौं भरपूर । मचत चलत क्योहू' नही खेचत काम का डव्वा । अमूर --स० सप्तक, पृ० ३५३ । अमृतदीधिति–तज्ञा पु० [न०] चद्रमा । अमूलक-वि० [स०] १ जिसकी कोई जड न हो। निमूल । २. अमृतद्यति--सज्ञा पुं० [सं०] चद्रमा । असत्य । मिथ्या । दे० 'अमूले। अमृतद्रव--सज्ञा पुं० [सं०] चद्रमा की किरण । अमूला--संज्ञा स्त्री० [सं०] अग्निशिखा नाम का पौधा । अमृतधारा-सा जी० [म०[ एक वर्णवृत्त जिसके चार चरणों में से अमूल्य-वि० [सं०]१ जिमका मूल्य निर्धारित न हो सके । अनमोल । प्रथम चरण मे २०, दूसरे में १२, तीमरे में १६ और चौथे में २. बहुमूल्य । बेशकीमती । ३. जिसके लिये कोई मूल्य न दिया ८ अक्षर होते हैं । ३०–सरवसे तज मन भज । नित प्रभु जाये । मुफ्त की। भवदुखहर्ता । मची अहहि प्रभु जगतभर्ता । दनुज-कुल-अरि अमृत--संज्ञा पुं० [सं०] १ वह वस्तु जिसके पीने से जीव अमर हो । जनहित धरमधर्ता । रामा अनुर मुहर्ता (शब्द॰) । जाता है। पुराणानुसार समुद्रमंथन से निकले हुए १४ रत्नो मे अमतधुनि---संज्ञा स्त्री० [हिं० * 'अमृतध्वनि' । से एक । सुधा । पीयूष । निर्जर । २ जल । ३ घी । ४ यज्ञ | अमृतध्वनि-सी ग्मी० [सं० अमृत+ध्वनि] २४ मात्रा का एक के पीछे की बची हुई सामग्री । ५ अन्न । ६, मुक्ति 1 ७ दूय ।। | यौगिक छ । ६ औपधि । ६ विप । १० वछनाग । ११ पार ! १२ । बछनाग । ११ पार । १२ विशेप---इसके जरिम में एक दोहा रहता है। इसमे दोहे को धेन । १३. सोना। १४ हृद्य पदार्थ । १५ वह वस्तु जो विना जो बिना मिलाकर छह चरण होते हैं और प्रत्येक चरण में झटके के माँगे मिले। १६ सुस्वादु द्रव्य । मीठी या मधुर वस्तु । • साथ अर्थात् द्वित्वं वर्षों से युक्त तीन यमक रहते हैं । यह छद १७ अमर। देवता (को०) । उ०—राजकुमार, ब्राह्मण : प्रायः वीरम के लिये व्यवहृत होता है। उ०-- प्रतिभट वर्द- स्वराज्य में विचरता है और अमृत होकर जीता है । गट विकट जहू लरन नच्छ पर लच्छ । श्री जगदेश नरेश तहूँ। चद्र० पृ० ५६ । १८ धन्बती (को०)। १६ इद्र (को०)। अच्छच्छवि परत । अच्छवि परतच्यटन विपच्छच्छय २० सूर्य (को०) । २१ शिव (को०)। २२ विष्णु (को॰) । करि । स्वच्छच्छित अति कित्तित्यिर, मुअमिनिभय हरि । २३ सोमरस (को०)। २४ पानी (को०)। २५ चार की उज्झिज्झहरि ने मुज्झिज्झहरि विरुज्झिज्झटपट । कुप्पप्प्रगट सख्या (को०)। २६ निगुण मतानुसार वह रस जो तालुमूल मुरुप्पप्पगनि विलुप्पप्रति उट ---सूदन (शब्द॰) । स्थित चन्द्रमा से स्रवित होता है और जिसे योगी साधना द्वारा अमतप--वि० [म०] अमृत पान करनेवाची । मद्यप । शर जीम को उलटा करके पीता है । २७ बाराही कद (को०)। (को॰) । २८ परब्रह्म (को०)। २९ भात (को॰) । अमृतप-सज्ञा पु० १ देवता । ३ विष्णु । अमृत..-वि० [स०] १ जो मरा न हो । २ जो मरणशील ने हो। अमृतफल-सच्ची पु० [नं०]१ नाशपाती । परवल । ३ अमरत्व प्रदान करनेवाला । ४ अविनश्वर । शाश्वत । अमतफला--सज्ञा स्त्री० [सं०] १ अविला । २. अगूर । दखि ३ ५ प्रिय 1 अभीष्ट । सुदर [को०] । मुनक्का । अमृतकर-सज्ञा पु०[स०]जिसकी किरणो मे अमृत रहता है । चद्रमा । अमृतवधु-संज्ञा पुं० [सं० अमृतबन्धु] १ देवता । २. चद्रमा । अमृतकूड़ली--सज्ञा स्त्री० [सं० अमृतकुण्डली] १ एक छद जो नवगम अमतवान–सुझा पु० [सं० मुद्दाभण्ड वा मृवान्] रोगनी होडा । या चांद्रायण के अत में हरिगीतिका के दो पद मिलाने से वन मिट्टी का रोगनी पात्र । लाह का रोगन किया हुमा मिट्टा जाता है । २ एक प्रकार का वाजा। उ०—वाजत वीन का बरतन जिसमे अच।२, मुरबा, घी आदि रखते हैं । 'रबाब किन्नरी अमृतकृडली यत्र ।- सूर (शब्द॰) । मर्तबान । अमृतक्षार----सज्ञा पु० [स०] नौसादर [को०] । अमृतविदु-संज्ञा पुं० [म० अमृ रबिन्दु] एक उपनिषत् जो अथर्ववेदीय अमृतगति--सज्ञा स्त्री० [सं०] एक छद।। माना जाता है। विशेप---इसके प्रत्येक चरण में एक नगण एक जगण फिर एक अमतभुक-सज्ञा पुं० [सं०] १, देवता । २ बहु जो अमृत का पान नगण यौर अत में गुरु होता है. (।।4 S1 ।।। S ) इसको | करे कि०]1 १ ]