पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/३५७

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

अमर ३६६ 1अमरसी एक । ७ विवाह के पहले वर कन्या के राशि वर्ग के मिलान के अमरपद--सज्ञा पुं० [सं०] देवपद । मोक्ष । मुक्ति । उ०—अर्छ। लिये नक्षत्रों का एक गण जिसमे ये नक्षत्र होते हैं--अश्विनी, अमरपद लहिए । --कवीर श०, १० २६' । । रेवती, पुष्य, स्वाती, हस्त पुनर्वसु, अनुराधा, मृगशिरा और अमरपन---सज्ञा पुं० [सं० अनर +हि० पन] १ अमरता ।चिरजीवन। श्रवण । ८ सोनेः (को०) ! ६ तेतीस (३३) की सब्या (को०)। ।। १२ देवत्व ।। | १० एक प्रकार को देवदार वृक्ष (को०)। ११ अस्थिसमूह अमरपुर--सज्ञा पु० [सं०] [स्त्री० अमरपुरी] अमरावनी । देवताग्री का | (को०) । १२ एक पर्वत (को०) । १३ स्नुही वृक्ष 1 से हुड (को०)। नगर । अमर ----सज्ञा पुं० [हिं०] ३० ‘अंबर' । उ ०---उड्डि रेन डबर अमरपुष्प- संज्ञा पुं० [स०] दे॰ 'अमरपुष्पक' [को०] । अमर दिष्य सेन चहुन 1--]० रा० ६१३१ । अमरपुष्पक–सझा पुं० [सं०] १ कल्पवृक्ष । २ बृक्षविशेप । काँम । अमरकटेक--सज्ञा पुं० [स6 अमरकण्टक] विष्वाचन पर्वत पर एक ३ तान्नमखाना । ४, गोवल । ५ केत। (को०)। ६ चूत (को०) ऊँचा स्थान जहाँ से नोन और नर्मदा नदियाँ निकलती है। अमरपुष्पिका–संज्ञा स्त्री॰ [म ०] अब पुप्पी को चुप [को०] । यह हिंदुओं के तीर्थों में से है । यहाँ प्रतिवर्ष शिवदर्शन के अमरवेल-सज्ञा पु० [भ ० अ बर+वेल्लि, अम्बरबल्ली]एक पीनी नता निमित्त धूमधाम से मेला होता है। । यो वौर जिसमें जड़ शौर पत्तियाँ नहीं होती। मायाजवेल । अमरकोट--सना पु० [सं०] राजपूताने का एक प्रसिद्ध स्थान (कौ] । - आकाशवृत्त ।। अमरकोश--संज्ञा पुं०[म ०] अमरसिंह द्वारा निर्मित संस्कृत का प्रसिद्ध विशेष—यह लता जिस पेड़ पर चढ़ती है उसके रस से अपना । कोश । | परिपोपण करती है और उस वृक्ष को भिवंन कर देती अमरखG---सजा पुं० [स० अमर्ष] १ क्रोध। कोर । गुस्सा ! रिस । | है। इसमें सफेद फूल लगते हैं। वैद्य इसे मधुर, पित्तनाशक उ०-वरवम खोज पिता के गऊ । खोज न पाय अमरख तय और वीर्यवर्धक मानते हैं। भयऊ ।—कबीर ना०, पृ० ५६ ५। २ रस के अतर्गत ३३ अमरवर-- सज्ञा मी० [हिं०] २० 'अमरबैल' । उ०---अमर अर्थात् मचारी भावो में से एक । दूमरे का अहकार न सहकर उसके आकाशबीर ने तो ऐसे वहुने वृक्षो को जकड लियानष्ट करने की इच्छा ! प्रेमघन॰, पृ० १६ । । अमरखी–वि० [म ० प्रविन्] क्रोधी । बुरा मानने वाला। दुबी अमरभनित -मज्ञा स्त्री० [म० अनर+भणिति] अमरवाणी। | होनेवाला ।। सस्कृत । उ०—चित चकार भापा भनी अमर भनिन अवअमरगुरु-सज्ञा पुं० [म०] देवता के गुरु । वृहस्पति (को०] ।। गाहि ।घनानंद, पृ० ६०७ । । अमरज-सज्ञा पुं॰ [स] एक प्रकार का बैर का पेड [को०]। अमरमूरि-संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'अनियमूरि' ।। अमरण-संज्ञा पुं० [स०] अमरता । मृत्यु का अभाव । ।... अमररत्न-सज्ञा पुं० [सं०] स्फटिक । विल्लौर। । अमरण?--वि० मरणरहित । अमर । चिरजीवी ।। अमरराज-सज्ञा पुं० [सं०] इद्र। उ०—घनन घनन घटागन बजे । अमरतटिन--सेना स्व० [स०] गया। देवनदी (को०] ।। अमर राज गज की छवि लज । नद० ग्रे ०, पृ० २८७ । अमरतरु--संज्ञा पु० स०]देबरु । कल्पवृक्ष (को०] । । अमरलोक---संज्ञा पुं० [भ] इद्रपुरी । देवलोक । स्वर्ग । । अमरता--सज्ञा स्त्री० [म०] १ मृत्यु का अभाव । चिरजीवन । उ० - अमरवर--सूझा पुं० [अ० [ देबताग्रो में श्रेष्ठ । इट् | उ ०-~-खिनति भिनति तिनको नरपति मो। जिमि वर देत प्रेमरवर रति सुधा स राहिल अमरता गरन साहि मधु ।—मानस, नो ।-गोपा ग (शब्द॰) । १।१५। २ देव । ३०---प्ररे अमरता के चमकीने पुन तो । अमरवल्लरी--संज्ञा स्त्री० [सं०] ग्राकाशवीर । अमरवेन [को०] । तेरे वे जयनादं ।- कामावानी, पृ० ७ । । । अमरवल्ली--सज्ञा स्त्री॰ [सं०] अमरवेल ।। अमरत्व-सज्ञा पुं० [सं०] १ अमरता । २ देवत्व । । अमरस-सज्ञा पुं० [हिं० अन =श्राम +4] निचोड कर और जमाअमरदा--संज्ञा पुं० [सं०] देवदारु का पेइ । | कर सुखाया हुअा अाम का रस । अव ।। अमरद्विज---सज्ञा पुं० [सं०]मदिर का प्रबंधक या पुजारी ब्राह्मणको०] अमरस -संज्ञा पुं० [म० अ वर्ष ]२० 'अ ' । उ०--7मरस बे अमरधाम-सज्ञा पुं० [म० अमरधामन्] स्वर्ग । देव Tोक । [को०] । इतबार, निरपत मन नामानि ऊ । न र सम सार प्रसार, पैल अमरनाथ--सज्ञा पुं० [सं०] १ इद्र । २ काश्मीर की राजधानी - घर वा पिसण ।- कदास ग्र०, भा० १, पृ० ६२ ।। नगर से सात दिन के मार्ग पर हिंदुओं का एक तीर्य । यहाँ अमरसर--सज्ञा पृ० [हिं०] अमृतसर । पजाब का एक नगर जो श्रावण की पूर्णिमा को बर्फ के बने हुए शिवलिंग का दर्शन सिक्खों का तीर्थस्थान है । इ०--जो 1 जा३ अमरमर गाया । '- होता है । ३. जैन लोगो के १८वें तीर्थंकर। सो वावे ने नहीं दया ।-घट०, पृ० ३२० । अमरपख--संज्ञा पुं० [सं० अमरपक्ष] पितृपक्ष ।'३०---समय पाइ अमरसरी--वि० [हिं०अरिसर] अमृतमर मे सबद्ध ।' अमरसर का। कै लगत है, नीचहु करन गुमान । पाय अमरपख द्विजने लीं अमरसहरी---वि० [हिं०] १० 'अमरसरी । कॉग चहै सनमान --रमनिधि (शब्द०)। अमरसी-वि० [हिं० प्रारम+ई (प्रत्य॰)] प्राम के रस की तरह अमरपति---मज्ञा पुं॰ [म०1 इद्र । उ ०-खे नन हवी अमरपति पीला । मुहा | पह र एक छटाँक हुलदी श्रीर' प्राठ माशे । । । मानः}—घननिद, पृ० २४६ । । । । * * चूना मिलाकर बनता है। । । ।