पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/३४६

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अभैपर्द अभ्यर्थना अभैपद —सा पुं० [हिं॰] दे० 'न यिपद' । उ०—धवहि अझै पद अभ्यंग-सच्ची पु०[संझी अन्यङ्ग][वि० अन्यक्त, अभ्यंजनीय)१ लेपन । | दियौ मुरारी --सूर० ११।६० ।। चारो अोर पोतना। मन मलकर लगाना । २ नवनीत । अभेमंत्र--सज्ञा पुं० [सं० अभयमन्त्र निर्भयता प्रदान करने नैनू (को०)। ३' तैल मंदैन । स्नेहुन । | वाला मत्र ।। यौ० तैलाभ्यंग । । अभैर-सज्ञा पुं० [सं० २] धरन या नकटी जिसमें डोरी बाँधकर करघे अभ्यजन-सज्ञा पु० [स० अभ्यञ्जन] १ तैल श्रादि की मानिश । २. की कधियाँ नटकाई जाती हैं। कलवाँसा । देढेरी ।। आँखों में सुरमा या अजन नगाना ३ अगाग । तैन आदि । अभोक्तव्य- वि० [सं०] जो मोगने योग्य न हो । जिसका उपयोग न । ४ मक्खन । नवनीत (को०] ।। किया जाय । अनुपयुक्त [को०] । अभ्यजनीय--वि० [स० अग्यञ्जनीय] १ पोतने योग्य । लगाने योग्य । अभोक्ता--वि० [सं० अभोक्तृ} [वि० सी० अभोवत्री] १ भोग न | २ तेल या उबटन लगाने योग्य ।। | करनेवाला। व्यवहार न करनेवाला। २। विरकन (को०)। अभ्यत--सज्ञा पु० [हिं०] दे॰ 'अभ्यतर' । उ०—अगम अगोचर प्रभोखण-सज्ञा पुं० [१०] दे० 'अभूपण' । उ०—अगि अभो रह्या अभ्यत ।—कवीर ग्र०, पृ० २६६।. | खण अच्छियड, तन सोवन सग नाई। मास्त्र अवा-म र जि में, अभ्यतज-वि० [सं० अभ्यन्तज] भीतरी । अत तक । अभ्यतर। उ० कर लगइ कुमनाई ।–ढो ना०, दू० ४७१ । रहै कौन अभ्यतज वल प्रकार ।--पृ० ०, ५५।६६ । अभोग -वि० [सं०] जिनका भोग न किया गया हो । अछूत ।। अभ्यतर- सज्ञा पु० [सं० अभ्यन्तर] १ मध्य । वीच । उ०--निसि उ०---वरनि मिगार न जाने ? नख सिख जैम अभोग । तस लौं रमत कोष अभ्यतर, जो हित कहौ सो थोरी ----सूर०, ' १०३८४ । २ हृदय । अत करण । - 'जग किछू न पायउ उपम देउ ओहि जोग ।—जायसी (शब्द०)। अभ्यंतर–क्रि० वि० भीतर । अदर । अभोग-सज्ञा पुं० भोग का अभाव (को०] । अभ्यतर..वि० । सुपरिचित । अतरम । निकटतम । २'घनिष्ठता के अंभोगी--वि० [सं० प्रभोगिन् ] [ औ• अभोगिनी] भोग न करने साथ सबद्ध । ३ कुशले । ४ भीतर का । अदर का । भीतरी । वाला 1 इद्रियो के सुख से उदासीन । विरक्त । उ०——हमरे ३०-वाहिरं कोटि उपाय कैरिय, अभ्यतर ग्रंथि न छूट।-- जान सदाशिव जोगी ।' अज अनवद्य अकाम अभोगी।--- तुलसी ग्र०, पृ० ५१५ । ' मानस, १६० ।। अभ्यतरेक---सञ्ज्ञा पुं० [सं० अभ्यन्तरेक] अतरग मित्र । घनिष्ठ प्रभोग्य-वि० [म.] जो भोग योग्ने'न हो [को॰] । मित्र (कौ]। । अभोज –वि० सं० अभोज्य] 'न' खाने योग्य ! अभक्ष्य । उ०---- अम्यक्त----वि० [सं०] १ पोते हुए । लगाए हुए । २ तेल या उबटन भोज अभोज न रति विरति, नीरस सरस समान । भोग होइ लगाए हुए । ३. 'सुसज्ज । सजा हुआ (को०)। अभिलाष विनु, महाभोग ता मान । राम च०, पृ० १५२ ।। अभ्यंग्र–वि० [सं०] १ नजदीक 1 समीप । नवीन । ताजा [को०] । अभोजन--संज्ञा पुं॰ [सं०]१ भोजन न करना । २ भोजन से परहेज ।। अभ्यधीन--वि० [सं०] १. अधीन। जो किसी के अधिकार या ३ उपवास । ब्रत [को॰] । नियत्रण मे हो । २ जो किसी नियम से बंधा हुअा हो [को०] । अभोज्य–वि० [सं०] १' न खाने योग्य । अभक्ष्य अभोज । २. | अभ्यनुज्ञा---सक्षा री० [सं०] १ स्वीकृति । अनुमति । स मति । २. जिसका खाना वर्जित हो [को०]। आदेश । ३ पदच्युति या अनुपस्थिति की माफी (को) । अभोटी--सज्ञा पुं० [हिं०] शूद्र श्रेणी के नौकर । उ०—मंदिर में अभ्यनुज्ञात--वि० १ स्वीकृत । २' समयिन' (फो०] । ' शूद्र श्रेणी के नौकर अभोटी कहलाते रहे ।--१० म० भ०, अभ्यमन-सज्ञा पुं० [सं०] १ अाक्रमण । धावा । '२ प्रविात । ३ रोग कि] ।।। अभोल (0.---वि० [हिं० भूलना ] जो भूला न हो। जो भूबनेवाला । अम्यमित–वि० [सं०] १ रोगी । २ आहत । चोट खाए हुए [को०] । " न हो । उ०—-अमोल अभोल अतोल अमृग । अकज अगज अभ्यर्चन---सज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अभ्यर्चना' ।। अलुज अभग 1-पृ० रा, ६ ४ । ३१७ ।। अभ्यर्चना---संज्ञा स्त्री० [सं०] स मान । पूजा । अाराधना [को०] । अभौ--सज्ञा पुं० [हिं॰] दे॰ 'अभय' । उ०-नृपति बहुत जाचिय अभ्य –वि० १ समीप । नज अभी ।---पृ० रा०, ५७।२६७ । या ग्रानेवाला [को०] । अभौतिक---वि० [सं०] १ जो पचभूत' का ने बना हो । जो पृथ्बी, अभ्यण-सच्चा पुं० सामीप्य । निकटता (फो०] । जल, अग्नि अादि से उत्पन्न न हो । अपाथव । २ अगोचर । अभ्यर्थन---सज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अभ्यर्यना' । अभौम-वि० [सं०] १.जो भूमि से उत्पन्न न हो । अभूमिज । २. अभ्यर्थना--संज्ञा स्त्री० [सं०] १ स मुख प्रार्थना । विनय । दरवास्ते । | जो खराव या गलत जगह में पैदा हो [को०] । | २ स मान के लिये आगे बढ़कर लेना । अगवानी । ३० लोग अम्भि -सज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अभ्र' । उ०——उटै सार सार असी स्टेशन पर उनकी अभ्यर्थना के लिये खडे थे (शब्द॰) । बक झार । मनो अभि सेम वाल बज्यो सुत्रार 1--1० ०, अभ्यर्पनौय---वि० [सं०]१. प्रार्थना करने योग्य । विनय करने गोर ।। ६१।२०२० । २, मागे बढकर लेने योग्ने । | पृ० ३२३ ।।