पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/३३१

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अव्वू अभंगते अव्बु -पक्षा पु० [सं० अर्बु ब] अाबू । अरवली पर्वतश्रृखला मे अभग’---संज्ञा पु० १ सगीत में एक प्रकार का ताल जिसमे एक लघु, स्थित एक स्थान । उ०——अबू वै द्रुग भाग, अब्बु बध्यौं जिहि, एक गुरु और दो प्लुत मात्राएँ होती हैं। २. एक प्रकार का | पायन ।—पृ० ०, १२।३० । । पद या भजन जिनका व्यवहार मराठी में होता है। जैसे :- अब्भ---संज्ञा पुं॰ [स० अरुभ्र, प्रा० अब्भ] दे॰ 'अभ्र । उ०-- तुकाराम के अभग । ३ एक श्लेष जिसमै शब्द को विभक्त किए | बज्जत सार गज्जत अवम |--हम्मीर०, पृ० ८२ ।। विना ही दुसरा अर्थ प्रकट हो । अर्थशलेप (को०)। ४ भग या अभक्ष'-.-वि० [सं०] केबल जल पीकर जीनेवाला (को॰] । पराजय का अभाव (को॰) । अभक्ष'-- संज्ञा पुं० [सं०] पानी में रहनेवाला साँप । हेडहा साँप । अभनपद-संशा पु० [सं० अभङ्गपद] भनेप अलकार का एक भेद । वह अभक्षण-सा पु० [सं०] एक प्रकार का व्रत जिसमें केवल जल पीते प्रलेप जिसमे अक्षरों को इधर उधर न करना पड़े और शब्दों से हैं। जल पीकर रहना (को०] । भिन्न भिन्न अर्थ निकल आवे । उ०—(क) अति अकुलाय अब्भ्र—संज्ञा पुं० [म०] दे० 'अघ्र' [को०] । । शिलीमुखन, वन मे रहत सदाय । तिन कमलन की हरत छवि अव्यगि -वि० दे० 'अव्यग्य' । उ०—प्रीतम को जव सागस लहै । तेरे नैन सुभाय (शब्द०)। यहाँ ‘शिलीमुख', 'वन' और 'कमल' व्यगि अव्यगि व वन कछु कहै |--नद० ग्र०, पृ०, १४७ ।। शब्द के दो दो अर्थ विना शब्दो को तोड़े हुए हो जाते हैं 1(अ) अब्वाई -वि० [सं० अ + हि० व्याई] जिसने वच्चा न जना हो । रावन सिर सरोज वनचारी। चलि रघुबीर सिनी मुख घारी - जिसे प्रसव न हुआ हो । उ०—जगल मे चरैछी मो अव्याई मानस, ६५६१ । झोटी प्राई ।--शिखर०, पृ० ३ । । अभगिनी---वि० मी० [सं० अभङ्ग+इनी (प्रत्य॰)] जो विच्छिन ने अव्याहत)---वि० [हिं०] दे० 'अव्याहत' । उ०—–अव्याहृत गति स में | हो । उ०—तन से न सही, अभगिनी, मन से है हम किंतु प्रसादा ।—मानस, ७॥११० । । सगिनी - साकेत, पृ० ३६४। ' अब्र--संज्ञा पुं० [फा० तुल सं० प्राभ्र] बादल । उ०--विना अब अभगी –वि० [सं० अभङ्गिनी] १' अभग । पूर्ण । अखड । २. जहँ वहु गुल फूले, अव्र विना जहँ बरसे ---मलूक०, पृ० ४ । जिसके किसी अश का हरण न हो सके। जिसका कोई कुछ अन्नन५)---वि० [हिं०] १० 'अवर्ण' । उ०—-अत्रन वरण सो भेद । । न ले सके । उ०——ाए माई दुरंग स्पमि के सगी । सुधी । निनारा। घट घट बसे लिप्त तन धारा 1--कवीर सा०, कहि सवहिनि समुझावत, ते साँचे सरबगी । औरनि को सरवसे पृ० ८७३ । लै मारत श्रापुन भए अभगी ।---सूर०, १०1३५११ । अब्राह्मण्य----संज्ञा पुं॰ [सं०] १ वह कर्म' जो ब्राह्मणोचित न हो , अभगुर--वि० [सं० अभडगुर] १ जो टूटनेवाला न हो । दृढ़। मजबूत । २ हिसादि कर्म । ३ नाटकादि मे दिखाए जानेवाले अनुचित २ अनाशवान् । न मिटनेवाला ।। कर्म के बोघ या ज्ञान के लिये नेपथ्य में उद्घोषित शव्द । अभंजन-वि० [सं० अभञ्जन]जिसका भजन न हो सके । अटूट । अखई। कही कही ब्राह्राण रक्षा या सहायता की दृष्टि से भी अन्न- अभजन-~-संज्ञा पुं० द्रव वा तरल पदार्थ जिनके टुकड़े नही हो सकते, ह्मणयम् शब्द का उच्चारण करता है । जैसे-जल, तेल आदि । अब्रह्मण्य--वि० [सं०] १ ब्राह्मण के अयोग्य । २ जिसकी श्रद्धा अभ---सज्ञा पुं० [हिं०] दे०अग्न' । ३०---जिण दिन स्वामी अम् ब्राह्मण मे न हो। जो ब्राह्मणनिष्ठ न हो। श्राह्मणविरोधी । न गुभ । ये तो जुग सूना गया। बी० रासो, पृ० ८२।। अब्राह्मण'—सज्ञा पुं० [सं०] वह व्यक्ति जो ब्राह्मण न हो । ब्राह्मण तर अभक्त--वि० [सं०] १ जो भक्त न हो । भक्तिशून्य । श्रद्धाहीन । व्यक्ति । उ०—एक अब्राह्मण इतना विवेकवान नहीं हो भगवद्विमुख । उ०--भक्त अभक्त सबै पुनि खाई । मबको भक्ष सकता ।—सं० दरिया, पृ० ६० । निरजन राई |--कवीर सा०, १० ५७ 1 जो वाँटा न गयो अब्राह्मण्य-वि० [सं०] ब्राह्मणविरहित। ब्राह्मणविहीन । हो । जो अलग न किया गया हो। जिसके टुकडे न हुए है। अब्राह्मण्य-संज्ञा पुं० [सं०] १ ब्राह्मणोचित कर्तव्यो की अवज्ञा या समूचा । उल्लघन । २ दे० 'अब्रह्मण्य' । । अभक्ष-सज्ञा पुं० [सं०] भोजन न करना। उपवास (को०] । अन्न-सज्ञा स्त्री॰ [फा०] भौंह । भ्र। दे० 'अवरू' । अभक्ष–वि० दे० 'अभक्ष्य' । अनेअ वर--संज्ञा पुं० [फा०] दे० 'अबर' । अभक्षण-सज्ञा पु० दे० 'अभक्ष' । अभंग'--वि० [सं० अभङ्ग] १ अखड । अटूट । पूर्ण । ३०---जनता अभय-वि० [सं०] १ अखाद्य। अमोज्य । जो खाने के योग्य न है।। की सेवा का व्रत में लेता अभग [-अपरा, पृ० ६४।२ २ जिसके खाने का घर्मशास्त्र में निषेध हो ।, .. अनाशवान्। न मिटनेवाला। उ ०---प्रादि, मध्य अरु अत अभक्ष्य---सज्ञा पुं० भोजन के लिये निषिद्ध खाद्य पदार्थ (को०] । लौ, अविहड सदा अभग । कबीर उस करती की सेवग तनै न अभख –सज्ञा पुं० [हिं०] १० ‘अभक्ष्य' । उ०—केचित मम सग ।—कवीर ग्र०, पृ० ८६ । ३ जिसका क्रम न टूटे । लगा भखत न सकाही । मदिरा पान मास पुनि खाही --सुदर तार । उ०—प्रिये, प्रिये उत्तर दो मैं ही करता नहीं । ग्र०, पृ०1८२ । पुकार अभग ।-साकेत, पृ० ३८५। ४ , जो मग या नष्ट न अभग--वि० [स०] अभागा । भाग्यहीन -[को०] । किया जा सके । सुदृढ । मजवून । उ०—निपट अभाग गई कोः अभिगत --वि० [हिं०1 ६० 'अभक्त' । उ०—तदपि फ रहि सम । सब हारे ते ।--भूषण अ ० पृ० ८२ । बिहारा । भगत, अभगत हृदय अनुसार मानस, २२१६ ।