पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/३२९

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अविहित | २६६ प्रबोल अविहित- वि० [सं० अविहित] दे० 'अविहित' । उ०--राम सो अजगव खडेउ ऊखु जिमि अजहूं न बूझ अबूझ चुनसी परमातमा भवानी। तहें भ्रम अति अविहित तव बानी ।-- (शब्द॰) । | मानस, १११९ । अबे-अव्य० सं० अयि, पु० हि अये] अरे! है। इस संबोधन का । अवी-- -क्रि० वि० [हिं०] दे० 'अभी' । उ०--जो तू कह्या हमारा प्रयोग बड़े लोग अपने बहुत छोटे वा नीच के लिये करते हैं। मानं नाही अवी करो तुम छाई ।---प्राण, पृ० १२२ । जैसे--अवे, सुनता नही है, इतनी देर से पुकार रहे हैं । (द)। अबीज'----वि [सं०] १ बीजविहीन । २ उत्पादन-क्षमतारहिन । मुहा०--प्रधे तवे करना = निरादर करना 1 निरादरमूवक वाक्य नपुसक। ३ कारणरहित [को०] । वोलना । कच्ची पक्की वो नन । अबीज- -सज्ञा पु० वह बीज जिसकी उत्पादन शक्ति नष्ट हो चुकी हो अबेध -वि० [सं० प्रविन] जो छिदा न हो । बिना वैधा। को०)। अन बिघा । उ०-नौकै रतन अवैध अलौकिक नहि नाहक नहि यौ० ---अवीजविक्रयो। राई । चिमिफि चिमिकि चमक दृग दुई दिमि अरब रहा छरि अवीजा-- -सज्ञा स्त्री० [सं०] अगूर की एक किस्म । बेदाना अगूर । ग्राई --कवीर ( शब्द०)। किशमिश । अबेर -संज्ञा स्त्री॰ [ म० अवेला ] विल। देर। अविकार। अवीर ---सज्ञा पुं० [अ० अवीर] १ एक रगीन बुकनी जिसे लोग होली उ०—ग्रावत पिय नहि दीवती भइन बहुत अबेर |–सतु के दिनों में अपने इष्ट मित्रो पर डालते हैं । यह प्राय लाल रग वाणी, भा० १ पृ० ११३ ।। की होती है और सिंघाडे के आटे मे हुलदी, और चूना मिली अबेव -वि० [ मे० अभेद, प्रा०, अनेत्र ] भेदरहिन । सुममात्र कर बनती है। अब अरारोट और अगरेजी बुकनियो मे अधिक युक्त । उ०—दो मिने अबेव साहिब मेव के एक मे --पार्श्व० तैयार की जाती है । गुलाल । उ०---अगर धूप वहु जनु अँधि- यारी उ अबीर मनहूँ अरुनारी ।----मानस । २ अभ्रक का अबश अबेश -वि० [सं० अ = -वि० [म० अ = अति +फा० बेश= अधिक अधिक। व्रत। चूर्ण जिसे होली में लोग अपने इष्ट मित्रो के मुख पर मलते हैं, । उ०--कीर कद व मजुको पूर्ण सौरम इत अवेश ( बेगर भून कही कहीं इसे भी अवीर कहते हैं । बुक्का। ३. श्वेत रग की मौरभ नासा मुख वरपत पर म मुदेश ।--सूर (शब्द॰) । सुगध मिली बुकनी जो वल्लभ कुल के मदिरो मे होनी में । अवै--क्रि० वि० [हिं० अव हो] अनी । तत्काल । इसी समय । उहाई जाती है । अर्वन -वि० [हिं० अ+वैन] १ वाणीविहीन । मौन । चुप । ३ अबीरी----वि० [अ० अबीरी] अवीर के समान या अबीर से बनी। दूषित वचन । अवाच्य । कुवचन ।। अबीर के रग का । कुछ कुछ स्याही लिए लोन रग की। अबैर--संज्ञा पुं० [सं० अर्बर] अविरोध । अद्वैप । वैर का अभाव ।। अवीरी----सशी पु० अबीरी रग । उ०—वैर से नहीं अवेर से हृदय जीतने की विचारपरपर अबीह---वि० [ स०अ = नहीं+मीति या भी, प्रा० बीह ] भय- के माननेवाले । किन्नर० | पृ० १०। रहित 1 निर्भय । निडर। उ०..--सौसा सोग सँताप तज, अपा अवोध-सज्ञा पुं० [सं०] अज्ञान । मूर्खता। होय अवीह । शून्य सेज मे पाइपा हरिथा अविनाशी ।-राम अवधि-वि० अनजान । नादान । अज्ञानी । मुर्ख । ३० तुम अति धर्म०, पृ० ७५ । अवोध, अपनी अपूर्णता को न स्वय तुम समझ सके ।-काम- अबुझ----वि० [हिं०] १ दे० 'अबूझ' । २ न बुझनेवाला । यानी, पृ० १६३ ।। अबुध---वि० [म०] १ अबोघ । नासमझ । अज्ञानी । मूर्छ । उ०---- यौ०-अबोधगम्य = जो समझ में न आ सके । भानु बस रा स न । निपट निरकुस अबुध असक ।- अबोध्य–वि० [म०] जो समझ में न आ सके। समझ में न मन तुर । (शब्द०) २ अनजान । उ०—रह जाता नर लोक योग्य [को॰] । अबुव ही ऐसे उन्नत भावो से --साकेत, पृ० ३७१। ३ । | अवोल -वि० [सं० अ+हि० बोल ] १ मौन । अवाक् । उ:- वे 17। भूच्छिन। बेसुध । उ०—एक पहर यो अबुध हूँ (क) बोलहि सुअन ढेक बक लेदी । रही अवोन मीन जलभेदी। रही ।-नद ग्र०, पृ० १३८ । —जायसी (शब्द०)। (ख) परी पाती पावते पीरी चढे । अबुद्ध- वि० [सं०] दे॰ 'अबुध' [को०] । कपोल । फोरे बदन विलोकि कै मूदिता भई अबोल (शब्द०)। अवृद्धि- सच्चा स्त्री० [नं०] १ विचार या ज्ञान का अभाव । अज्ञान । २ जिसके विपय में बोल न सके। उ जहाँ बोल झर अविद्या । २ मूर्खता। बदमाशी (को॰] । नहि अाया। जहाँ अक्षर तहँ मनहि दृढाया । वोन भवा अबुद्धि- वि० बुद्धिविहीन । मूर्ख । नादान । एक है सोई। जिन या लखा सो विरला कोई ।-बीर अबुहाना--क्रि० अ० [हिं०] दे० 'अभुग्रान' । (शब्द॰) । अबोल--सज्ञा पुं० कुबोल । बुरी बोली। अबू-सज्ञा पुं० [अ०] बानिद । पिता । बाप को॰] । अबूझ--वि० [म० अबु द्व, प्रा० अबुझ अबोध । नासमझ । नादान । अबोलना-सज्ञा पुं॰ [स० अ+ हिं० बोलना न वोनने की रि उ--(क) कोने पर न छूटिहै मुन रे जीव ग्रेवूझ । कपीर असं भापण । उ०—पट न खोल्या भूख न वोल्पा सांज नग माँड मैदान में करि इद्रिन सो जूझ |--कबीर (शब्द०) । (ख) परभात । अयोजना मे अवध बीती, काहे को कुसलत - वाणी, भा० २, पृ० ७० ।