पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/३२८

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अनार २६५ अविड़ अवार- संज्ञा स्त्री० [ स० अ +यार, प्रा० वार= समय ] असमय । अधिक देर । विलव । बेर । कुवेना । उ०--परसुराम जमदग्नि के गेह नी नअवतार । माता ताकी जमुनजल लेन गई एक बार। लागी तहाँ अवार सिद्धि ऋपि करि क्रोध अपार । परसुराम को यो कही माँ को वेगि सहार--सूर (शब्द॰) । क्रि०प्र०—लगना।—होना । उ०—बहुत अवार' कतहु खेलत 'भई कहाँ रहे मेरे सागपानी । —सूर (शब्द॰) । अवारजा—सा पुं० [फा० अबारिजह= वही, अयार्चा, अवारिजइ (फ०)] १ रोजनामचा । २ जमाखर्च की यही । उ०—-करि अबारजा प्रेम प्रीति को असल तहाँ खतियावै । दूजे करज दूर करि दैयत, नैकु न तापे यावे ।—सूर०, १५१४२।। अवाल--वि० [सं०] १ जो बालक न हो । जवान अबालकोचित । '३ पूर्ण । पूरा । जैसे, अबालेंदु= पूर्ण चद्रमा । अवाल-संज्ञा पुं॰ [देश०] वह रस्सी जो चरखे की पंखुड़ियो को वोध

  • कर तानी जाती है और जिस पर से होकर माला चलती है ।

अवाली-सज्ञा स्त्री॰ [देश०] एक पक्षी जो उत्तरी भारत और ववई प्रात तथा प्रासाम, चीन और स्याम में मिलती है । इसका रंग | भूरा और गर्दन कुछ पीती होती है। यह झई में रहता है और अपना घोमला घाम और पर का बनाता है । बैंगनकुटी। अवास(५)-सज्ञा पुं० [सं० प्रवास] रहने का स्थान 1. घर । मकान । उ०—(क) ऊँचे अत्रास बहु ध्वज प्रकाम। सोभा विलास, सोझै प्रकास ।केगव (शब्द॰) । (ख) कबिरा गर्व न कीजिए, ऊँचा देखि अवास |--कवीर ०, पृ० ६४ । अवाह्य----वि० म०] १ वाही नही । 'भीतरी ।२ पूर्णत परिचित । | ३ जिसमे वोहरी स्थिति न हो (को०] 1 अविगि--वि० [सं० अव्यड ग्य] व्यग्यरहित 1 उ०—बचन अविगि कहै रस भोय |--नद० ग्र०, पृ० १४७ । । अविघन----सज्ञा पु० [सं० प्रविन्वन] १ ममुद्र । २ वडवानल । अविध्य--सज्ञा पुं० [म० अविन्व्य रावण की एक मग्री । यह वडा । विद्वान् शीलवान् और वृद्ध मत्री था । इमने रावण से सीता | को लौटाने के लिये कहा था। अविकारी--वि० [ म० अविकारी ] ३० ‘अविकारी’। उ०—अस प्रभु हृदय अछत अविकारी !-—मानस, १॥२३ । । ऋविगत(५)---वि० [म० प्रविगत] १ जो विगतं न हो । जो जाना न जाय । उ०—अविगत गति कछु कहत न आवै ।' ज्यौं गूगे। | मीठे फन को रस शतरगत ही भावे ।--सुर० १ । २ ।। अविगति --वि० [हिं०] दे॰ 'अविगत' । उ०—-निरगुण म निरगुण राम जपहु रे भाई, अविगति की गति लखी न जाई । --कवीर ग्र०, पृ० १०४ । अविगति —संज्ञा स्त्री० अविगत अवस्था या दशः । उ०---नुनमी राम प्रसाद विन, अविगति जानि न जात ।-स० सप्तक, अबिछीन--वि० [स० अविच्छिन्न] जो विच्छिन्न या टूटा न हो। , उ०---ौरी ज्ञान भगति कर, भेद मुनहु सुप्रवीन । जो सुनि होइ राम पद, प्रीति सदा अबिछीन 1---मानम, ७1११६ । अविताली -सज्ञा पु० [फा० अफताल, हि० अफताली ! सेना का बह दल जो आगे जाकर पडाव आदि की व्यवस्था करता है। उ०—काको अयान निकारने की उर अएि है जोवन के अविताली ।--केशव ग्र०, पृ० १० ।। अविद -वि० [म० अयित् = अज्ञ] ज्ञान शून्य । अविद्वान् । मूर्ख । उ०---त्रिविध भाँति को सर्वद वर, विघट न नेट परमान । कारन अविरल अल अपितु, तुलसी प्रबिंद भूलान ।—स० सप्तक, पृ० २६ ।। अविद्ध--वि० [ स० अविद्ध ] अनवेधा। बिना छिदा हुआ । दे० 'अविद्ध' अविद्धकर्णी--सज्ञा स्त्री॰ [हिं॰] दे० 'अविद्धकर्णी' । ऋविद्या -संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे॰ 'अविद्या' । अविध---वि० [ म० प्रविधि ] जो विधि या नियम के अनुकून न हो। अव्यवस्थित !, ऋविनय-मज्ञा पुं० [ हि० ] ६० ‘अविनय' । उa--स्वामिनि अविनय छमिवि हमारी ।—मानस, २।११६ ।। अविनासो(५)--वि० [ हि० ] 'अविनाशी' । उ०—-अविनासो मोहि तै चल्यो, पुरई-मेरी अस|--कवीर ग्र ०, पृ० ७० । अबिर्वक)---संज्ञा पुं० [हिं० ] दे० 'अविवेक' । उ००-प्रभु अपने अविवेक हैं, वूझौ स्वामी तोहि ।--मानस, ७/६३ । अविवेकी--वि० [ हिं० ] ६० ‘अविवेकी' । उ०—जिमि अविवेकी पुरुप सरीरहि ।---मानस, २१४२। अविरल -वि० [हिं० ] दे० 'अविरल' ।। अविरुद्ध--वि०' [ हिं०] दे० 'अविरुद्ध' । उ०—नाम सुद्ध, अविरुद्ध, अमर, अनवद्य, अपन ।–तुलमी ग्र०, पृ० ३५ । अविरोध- संज्ञा पुं॰ [हिं॰] दे० 'अविरोध' । उ०-२मय समाज धरम विरोधा । वोले तव रघुव से पुरोधा [—मानस, २।२६५ । अविरोधी)---वि० [हिं० ] दे० 'अविरोधी' । उ०----धर्म विचारे प्रथम पुनि, अर्थ धर्म अविरोधि । धर्म अर्थ वाधा रहित सेवे काम भुसोधि ।–श्रीनिवास ग्र०, पृ० १६१ । अविर्था --वि०म० पूरी तरह + व्यर्य बिरथा, विर्था] विधा, दे० 'वृथा' । उ०---माया कारन विद्या वेचहू जन्म अविर्या जाई ।--कवीर ग्र ०, पृ० ३ ०३ ।। अविलव—क्रि० वि० [सं० अविलम्ब] दे० 'अविलव' । उ०--जय, जय, जय वलभद्र वीर धीर गभीर अविलव अलवहारी --धनानद, अविसेक--वि० [हिं० ] दे॰ अभिषेक । उ०--प्रेमहित करि छीरसागर मई मनसा एक । म्याम मति ले अग चदन अमी के अविसेक |---सा० लहरी, पृ० १४५। अविड)---वि० [हिं०] दे० 'अविहूड' । उ०---प्रादि म६१ अरु अत्र लौं अबिई मेदा अभग । कबीर उम करतार की सेवेग तर्ज न सृग |--कवीर ग्र ०, पृ० ८६ । अविचन()-वि० [ म० अबिचल ] ३०, 'अविच न'। उ०२-रघुबीर +व' पान प्रमियति जानि परम सुहावनी। जनु कमठ वर सुर्पराज सो लिखत ग्रबिच न पावनी --मानस, ५॥३५॥