पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/३१९

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।। । अप्रतिपनं २५६ अप्रतीति करना चाहिए, इसका वोध न होना । ३ निश्चय का अभाव । अप्रतिषिद्ध-वि० [सं०] अनिपिद्ध। समत ।। ४ स्फूति का अभाव (को०] । ५ असफलता [को०] । ६. अप्रतिषिद्ध’----संज्ञा पुं० [सं०] वास्तु विद्या मे ६ भागों में विभक्त जडता [को०] । स्तनपरिमाण के उस भाग का नाम जो ऊपर से गिनने पर अप्रतिपन्न-वि० [सं०] १ कर्नव्यज्ञानशून्य । २.अनिश्चत । अज्ञात । दूम पड़े । ३ जो सपन्न न हुआ हो । असपन्न [को०] । अप्रतिष्ठ-वि० [सं०] १ प्रतिष्ठाहीन । बेइज्जत । २ वेसहारा। अप्रतिवध-संज्ञा पुं० [सं० अप्रतिबन्ध][वि० अप्रतिबद्व रुकावट 'तिरस्कृत । फेंका हुआ। ३ अस्थिर । ढुलमुल (को०] । ४ | का न होना । स्वच्छता । ' अप्रसिद्ध को। अप्रतिबंध--वि० १ प्रविधरहित । निर्वाध । २ निविवाद प्राप्त । अप्रतिष्ठर--सज्ञा पुं० एक नरक का नाम (को०)। बिना किसी विवाद के मीधे प्राप्त, उत्तराधिकार [को०] । अप्रतिष्ठा सज्ञा स्त्री० [स०] १ प्रतिष्ठा का उन्नटा । अनादर।। अप्रतिवद्ध–वि० [सं०] १ बेरोक । स्वतत्र । स्वच्छद। २ मनमाना। अपमान । २ अयश । अपकीनि । ३ अस्थिरता कि० । अप्रतिवल-वि० [स०] वल या शक्ति में जिसके जोड का दूसरा ने अप्रतिष्ठित--वि० [सं०]१ जो प्रतिष्ठित न हो। तिरस्कृत १०-- हो। वैजोड ताकतवाली [को॰] । लाला ब्रजकिशोर कुछ ऐसे अप्रतिष्ठित नही है ।श्रीनिवास अप्रतिभ–वि० [सं०] १ प्रति शून्य । चेष्टाहीन । उदास अप्रगल्भ ।। ग्र ०, पृ० ३४२ । २ जो स्थिर या सुव्यवस्थित न हो (ले०] । २ स्फूतिशून्य । सुस्त । मद । उ०---हुसे सुलतान, और अप्र- अप्रतिसंख्य–वि० [स० अप्रतिसङ्ख्य] जो व्यान, दृष्टि या गणना में तिभ होती मैं जकड़ी हुई थी अपनी ही लाज खना मे ।-- न अाया हो किो०] । लहर, पृ० ८० । ३ मतिहीन । निबुद्धि ।४ लजालू । लजीला। अप्रतिसवद्धाभूमि–संज्ञा स्त्री० [स० अप्रतिसम्बद्धभूमि कौटिल्य के अप्रतिभट–वि० [सं०] वीरता में जिसका जोड न हो । अप्रतिम । अनुसार वह 'भूमि जो एक दूसरी से पृथक् हो । उ०—अप्रतिभट वही एक अवु'द सम महावीर |-- अपरा, अप्रतिहत--वि० [सं०] १ जो प्रतिहत न हो । जिसका विवात न पृ० ४५।। हुआ हो । अटूट । उ०--आज भी यह विचारपरपरा अप्रतिभट?--सज्ञा पुं० [सं०] वेजोड वीर या योद्धा को०)। अप्रतिहत है ।-रस क०, पृ० ४५। २, अपराजित । ३ बिना अप्रतिभा--संज्ञा स्त्री० [सं०] १ प्रतिभा का अभाव । २. न्याय में वह रोकटोक का । ४ सपूण । समग्र । अनुमरण (को०)। | निग्रह स्यान जहाँ उत्तर पक्षाला परपक्ष का डन ने कर अप्रतिहत सज्ञा पुं० अकुश । सके । ३ दबूपन । अप्रतिहतगतिवि० [सं०] जिसकी गति रोकी न जा सके । निर्वाध अप्रतिम-वि० [सं०] जिसके समान कोई दूसरा न हो । असदृश । गतिवाली । उ०—-अप्रतिहतगति संस्थानो से रहता था जो अद्वितीय । अनुपम । वे जोड। उ०—-वह ग्न थरत्न वस्तुन अरने । सदा वढा 1--कामायनी, पृ० २०६ ।। रग ढग का अप्रतिम ठहरता है ।—रस क०, पृ० १३ । अप्रतिहतनेत्र---सज्ञा पु० [३०] एक वौद्ध देवता [को०] । अप्रतिमान----वि० [म०] अद्वितीय । बेजोड । -" अप्रतिहतनेत्र--वि० निबंध दृष्टिवाना [को०] । अप्रतियोगी--वि॰ [स० अप्रतियोगिन्[१ जिसका कोई सामना करने- अप्रतिहतव्यूह-संज्ञा पुं० [सं०] कौटिल्य के अनुसार वह असहन व्यूह बाला न हो । जिसका कोई प्रतिस्पर्धी या विरोधी न हो । २. जिसमें हाथी, घोडे, रय तथा प्यादे एक दूसरे के पीट हो । जिसके समान दूसरा हिस्सा या भाग न हो (को०] । अप्रतिहार्य-वि० [म०] जिसे रोका न जा सके किो०] । अप्रतिरथ-वि० [सं०] जिसका मुकाबला करनेवाला कोई वीर योद्धा अप्रतीक--वि० [सं०] १ प्रग या शरीर से रहित । २ ब्रह्म का | न हो [को०] । । विशेषण (को० । । अप्रतिरथ—संज्ञा पुं० अप्रतिम योद्धा या वीर [को०] । अप्रतीकार--सज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अन्नतिकार' । अप्रतिरव--वि० [स०] निविरोध । निर्विवाद [क]। अप्रतीकारी--वि० [सं०अत्र ती कारिन्] दे० 'प्रतिकारी' । अप्रतिरूप—वि० [ स०] १ जिसका कोई प्रतिरूप न हो । अद्वितीय अप्रतीघात--वि० [सं०] १० प्रतिघात’ |" अनुपम । २ जो अनुकून रूप का या ठीक न हो (को०] । अप्रतीत–वि०[स०1१ अप्र मन्न ।' २ अगम् । ३ निबिधि । अप्रतिरोध–सच्चा पुं० [स] प्रतिरोधरहित । वेरोक । निर्बाध । ' ' दुर्वाध्य । एक शब्ददोप [को० ।। अप्रतिरोड्य–वि० [सं०] जिसे रोका न जा सके। जिसका प्रतिरोध अप्रतीतत्व--सज्ञा पुं० [सं०] दुरूह पारिभाषिक शब्द का संभव न हो। उ०—वह अप्रति रोष्य है, पर अधी है, यह तो प्रयोग । एक कायदोन । उ-वाय ने पारिभाषिक शब्दा मैं नहीं मानू ।।—त्याग०, पृ० ४८ ।। के प्रयोग को अप्रतीतत्व दो। भाना है ।--एस०, पृ० ४४ ।। अप्रतिवार्य---वि० [म०] अनिवार्य । निश्चित । उ०-अत मे कैनास अप्रतीति संज्ञा स्त्री० [स०] सर्य या रूम आदि का समझ मे न ग्राना की प्राप्ति अप्रतिवार्य है !--मृग, प० ४४२ । या स्पष्ट न होना ।२ विरासे का अभाव । अविश्वास । अनि अप्रतिवोर्य–वि० [स०] अप्रतिम या बेजोड शनिवाला (को०)।। चय । उ०-हो कि नहीं सो व मति नहि अप्रीति हृदय अप्रतिशासन--वि० [म०] १ एकतत्र शासन । २ जिसका कोई ते टारि। करिपिस्वाम इज अनि उ यह स्निक् ठुल विरोधी या प्रतिद्वही शासक न हो (को०] । निरधारि ।--सुदर प्र ० ० ३८ । । । । । ।