पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/३१६

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अपक्षी अपूत अपूता--वि० [हिं०], निपूना । पुत्रहीन । अपूप-सा पु० [सं०] गेहू के आटे की मिट्टी जिसे मिट्टी के कपाल या कमोरे में पका कर यज्ञ मे देवताओं के निमित्त हवन करते थे। २ लिट्टी [को०) । ३ अनरसा [को०)। ४ मालपुआ (को) । ५ गेहू (को०] 1 5 शहद का छत्ता [को०) । ' अपूप्य–वि० [म०] ग्रपूर सर्वघी या उनके काम की [को०] । अपूप्य-सज्ञा पु० ग्राटा। पिमान [को०] । । अपूर ---वि० [सं० श्रापूर, हिं० पूरा, पूरा] पूरा । भरपूर । उ०-- (क) लवंग मुफारी जायफर, मब फर फरे अपूर । 'ख) जनथल भरे अपर मत्र, वरति गगन भिल एक ।—जायसी (शब्द०)। अपूर +--वि० [हिं०] १ दे० 'अपूर्ण'।२ पूररहित । प्रवाहरहित विना वाढ का । अपूरणी--सज्ञा स्त्री० [म०] शाल्मली या मेनर का वृक्ष [को०] । अपूरना -क्रि० स० [म० पूर्ण न्] १ भरना। २ फूकना । । बजाना । उ०—-मुना मख जो विष्ण अपूग । अागे हनुमत कर | लंगूरा ।—जायसी (शब्द॰) । अपूरव--वि० [हिं०] » ‘अपूर्व' । उ०—भरित, नेह, नव नीर नित वरमत मुर अथोर । जयति अपूरब धन कोऊ लखि • नाचत मन मोर -भारतेंदु 9 °, पृ० ५७७ । अपूरवता-संज्ञा स्त्री० [हिं०] २०‘अपूर्वता' । । . ,, , अपूरवताई --सज्ञा स्त्री० [हिं०] दे॰ 'अपूर्वता' । उ०—दई यह | कैसी अपूरबताई ।--प्रेमधन प्र ०, पृ. २१२ । अपूरा'---सम्रा पु० [म० प्रा+पूर] [स्त्री० (अपूरी] भरा हुआ । फ वा हा । व्याप्न । उ०—चना कटक अस चढा अपूरी । अगलहि पानी पिठनहि धूरी ।—जायमी (शब्द॰) । अपूरा --[स० अ +पूर] जो पुरा न हो। अपूर्ण--वि० [सं०] १ जो पूर्ण न हो। जो मरा न हो । २ अधूरा । असमाप्त । ३ कम । अस्प ।। अपूर्ण ता--ज्ञा स्त्री० [सं०] १ अधूरापन । उ०—प्राणहीन वह कना नहीं जिसमें अपूणना शोभन' |--युगवाणी, पृ॰ ३० । २ । न्यूनता । कमी । उ०—तुम प्रति प्रबोध अपनी अपूर्णता को न । स्वय तुम ममझ सके ।--कामायनी पृ० १६३ । । अपूण भूत--सज्ञा पु० म०] व्याकरण में वह क्रिया का भूतकाल जिसमे | क्रिघा की ममाप्ति न पाई जाय । जैसे-वह खाता था ।(शब्द॰) अपूर्व–वि० [सं०] १ जो पहिले न रहा हो। उ०----ौर शुचिता का अपूर्व मुहाग |--साकेत, पृ० १९३।२ अमृत । अनोखा । अलौकिक । विचित्र । ३ अनुपम ! उत्तम । श्रेष्ठ । अपूर्व-संज्ञा पुं० [सं०] १ परमात्मा । परब्रह्म । २. मीमांसा के अनुमार अदृप्ट फल । ३ पाप पुण्य कौ] । अपूर्वता-सा स्त्री० [मं०] विनक्षता अनोखापन । श्रेष्ठता । अपूर्वत्व--सज्ञा पुं० [स] दे० 'अपूर्वता' को ! । । । अपूर्बपति--संज्ञा स्त्री० [सं०] कुमारी कन्या जिसका विवाह न हुन्नी हो को०] ।। अपूर्वरूप-सज्ञा पुं० [सं०] वह काव्यालकार जिससे पूर्वगुण की | प्राप्ति का निषेध हो । यह पूर्वरूप का विपरीत अलकार है । जैसेक्षय हो हो करहू जगी, बढत जु बरहि बार । त्यॊ पुनि यौवन प्राप्ति नहि, न कर मान निति नार ।' यहाँ पर दिखाया गया है कि जिस प्रकार चद्रमा क्षय के पश्चात् पुन पूर्णता प्राप्त करता है, उस प्रकार यौवन एक बार जाकर फिर नहीं आता। अपूर्व वाद-भुज्ञा पुं० [सं०] ब्रह्म सवधी वादविवाद या परिचर्चा [को॰] । अपूर्व विवि--सज्ञा स्त्री॰ [H०] उस वस्तु को प्राप्त करने की विधि जिसको वोध प्रत्यक्ष, अनुमान आदि प्रमाणो द्वारा न हो सके । जैसे, स्वर्ग की कामना हो तो यज्ञ करे। यहाँ पर स्वर्ग, जिसकी प्राप्ति की विधि बताई गई है प्रत्यक्ष और अनुमान प्रादि द्वारा सिद्ध नहीं होता। विशेष—यह विधि चार प्रकार की है-(क) कर्मविधि-जैसे, अग्निहोत्र करे तो स्वर्ग होगा । (ख) गुणविधि - जिसमें यज्ञ या कर्म के अनुष्ठान की सामग्री और देवता अदि के निर्देश हो । (ग) विनियोग विधि-जैसे, गार्हपत्य मे इद्र की ऋचा का विनियोग करे। (घ) प्रयोग विधि-अर्थात् अमुष कर्म के हो जाने पर अमुक कर्म करने का आदेश, जैसे—गुरुकुल से विद्या पढकर समावर्तन करे । अपृक्त'-वि० [सं०] १ वेभेन । बेजोड । विना मि नावट का । २ बिना लगावे का । प्रसवद्ध । ३ खासिम अकेला । अपृक्त-सज्ञा पु० पाणिनी के मतानुसार एक अक्षर का प्रत्यय । अपेक्षण-संज्ञा पुं० [न ०] दे॰ 'अपेक्षा' (को०] ।। अपेक्षणीय----वि० [सं०] अपेक्षा करने योग्य । वाछनीय । अपेक्षया--क्रि० वि० [म अपेक्षया] किसी की तुलना में अपेक्षाकृत । अपेक्षा--संज्ञा स्त्री० [म०] १ श्रीकाक्षा । इच्छा । अभिनपा । चाह । । जैसे,—कौन पुरुप है, जिसे धन की अपेक्षा न हो । श्राव- ।। श्यकता । जरूरत । जैसे--से न्यासियो को धन की अपेक्षा नही ।। है । ३. अश्रिय । भरोसा। आशा । जैसे--पुरुपा पुरुप किसी की अपेक्षा नहीं करते 1४ फार्य कारण का अन्योन्य सबध । ५ निस्बत । तुलना। मुकाविला । जैसे- बँगला की अपेक्षा हिदी सरल है। उ०--वात बनाने में पुरुपो की अपेक्षा स्त्री 'स्वभाव से चतुर होती है ।—श्रीनिवाम ग्र०, पृ० ६३ । ' विशेप--इस अर्थ में यह मात्राभेद दिखाने के लिये व्यवहृत होता है और इसके आगे मे लुप्त रहता है । ६ प्रतीक्षा'। इतजार ।। अपेक्षाकत-अव्य० [सं०] मुकाबले में । तुलना में । निस्बतन् । अपेक्षाबद्धि--सझी री० [स०] ऊहापोह की क्षमता या बुद्धि। कार्य- कारण सवध थाने की प्रतिमा । भेद बुद्धि (को०)। अपेक्षित-वि० [सं०] १ जिसकी अपेक्षा हो । जिसकी आवश्यकता ।। हो । अाबश्यक । उ०—प्रेम के लिये व्यक्ति की कोई विशेोपता अपेक्षित होती है 1--रस०, पृ० ७८ । इच्छित। वाछित । उ०--वास्तव में क ना की दृष्टि दोनों ही प्रकार के कठ्यो में अपेक्षित है ---रस०, पृ० ५७ । अपेक्षी–वि० [स० अपेक्षिन्] १ आशा लगा रखनेवाला ।२ प्रतीक्षा | करनेवाला । ३ आकाक्षी । विशेव-इसका प्रयोग मेमासात मे मुत प्राप्त होता है, जैसे, ।, परबलापेक्षी, विधिवलापेक्षा, परमुखापेक्षा मादिः ।