पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/३१४

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अपाश्रित अपलो ग्रंपाश्चित-वि० [4०] १ एकानमैत्री । क्षेत्रमन्यस्त । २ जिसने अपनद्ध-वि० [सं०] [वि॰ स्त्री० अपिनद्धा] बँधा हुप्रा । जकडा मेंमार के सब कामों से छुटकारा पा त्रिया हो । विरक्त हुन्न । ढेका हुअा।। त्यागी । ३ अधिवमित [को०)। ४ श्रावद्ध [को०] । ५ अपित्रत---वि० [सं०] १.अविभक्त धमक कृत्यवाना। जिनके धार्मिक अवलवित कि०) । व्रत, कर्म और कृत्य ममान हो । २ रक्त द्वारा मवधिन । एक अपासग--सज्ञा पुं० [सं० अपाङ्ग] तर्कश । तूणीर [को॰] ।। रक्त का [को०) । अपामने-सज्ञा पुं॰ [ म० ][ वि० अपासित, अपास्त ] १ क्षेपण । अपिहित--वि० [सं०][वि० मी० अपिहिता]१ अाच्छादित । ढेका हुप्रा । फेकना । • छोडना । त्यागना । ३.मारना । वध करना [को०] 1 प्रवृते । २. जो प्रावत न हो । ग्वुला हुप्रा । प्ट किौ । अपासरण---सञ्ज्ञा पुं० [स०] [वि॰ प्रपासूत] प्रत्यान। निर्गमन । अपी't --सवं० [हिं० श्राप] स्वय । बुदै । उ०—प्रपी बैठी सुदर अपसरण (को०)।। परदे के अदरु, बुना मुल्ला कें, अपने घर के भीतर - - अपामु--वि० [सं०] प्राणहीन । मृन [को०] । । । दक्खिनी॰, पृ० २४९ 1 अपासृत--वि० [म०] प्रस्थित । निर्गमित । [को०]। अपी –अव्य [हिं० [ ८० 'अपि । उ०--धनवन कु तीन मनीन अपाहज –वि० [हिं०] दे० 'अपाहिज' । उ०—ौर दरिद्री, अपी। द्विज चीन्ह जनेउ उघार तशी -- मानम,७।१०१ । दुखिया, अपहजो की सहायता करने में अभिरुचि न था। अपोच-वि० [सं० प्रपीच्य] मदर। अच्छा। उ०—(क) विमल ---श्रीनिवाम ग्र०, पृ० ३०८ । | विछाइत गिलम गलीचा । तबत सिंहासन फरस अपीचा । अपाहिज---वि० [सं० अपभञ्ज, प्रा० अपहज] १ अग भग 1 खज ।। बाँधहू ध्वज थल थ नन अपीचौ । नृप मारग चदन जल |लु ना लेंगडा । २ काम करने के अयोग्य । जो काम न कर सीवी ।---झाकर (शब्द॰) । (ख) फहर गई धौं कथै रग के मके 1 ३ मालती। फुहारन मे, केयौं तराबोर 'मई अतर अपीच में |--पद्माकर अपिडी---वि० [स० अपिण्डिन्] पिंडरहित । विना पारीर का। ग्र०, पृ० ३१६ । | अशरीरी। अपी--वि० [सं०] १.अति नदरे । अच्छा । खूबसूरन । अपि अव्य [सं०] १ भी । हीं। २ निश्चय 1:ठीक । उ०-- यौ9-अपीच्य येश । अपीच्य दर्शन । रामचद्र के भजन विनु जो चह पद निर्बान । ज्ञानवत अपि मोइ । २.गोप्य । छिपा हुआ । अतहत । नर, पमु बिनु पुछ, विखान --तुनमी ग्र०, पृ० ११४ । अपीत---वि० [स०] १. जिसने मद्य न पी हो । २ जिसे किया न विशेप–इस ब्दि का प्रयोग ममीप, सवध ग्रादि अर्यों में भी गया हो । ६. जो पीला न हो (को॰) । मिलता है, जैसे, अपिकक्ष, अनिरुद, अपिकणं, अादि । अपोत-संज्ञा पुं० पीत से पृथक् वर्ण । पीनेतर वर्ण (को०] । म्भावना, प्रश्न, गहू, मका, ममुरबेय, प्रयुक्त पदार्थ, कामचार अपीति-मज्ञा स्त्री॰ [म ०] १ प्रवेश । २ विनय । मृत्यु । ३ प्रलय । किया, विरोध, वितर्क अर्थ में भी इमका प्रयोग विहिन है । अपिगी--वि० [सं०] १ म्तुत । प्रेश मित । २ कथित । वणित फ]ि 1 अपोध -वि० [हिं०] ३० 'अपीत। उ०—मात्र कमा मुग्गला अपिच--अव्य० [स०] १ अौर भी । पुनश्व। २ बल्कि ।। या जुद्धा खग शाल । अजक अपीधा अमल उपू विणा कीधा अपिच्छिल--वि० [सं०] १ निर्मन । पकहीन । स्वच्छ । २. ग नीर । रणताल -–० रू० पृ० ७४ । | गहरा [को०)। अपीन ---संज्ञा पुं० [सं०] १.नामाशोय। नाक की शुष्कता 1. सर्दी अपिंज-वि० [स०] पुनर्जन्मा। फिर से उत्पन्न [को०)। जुकाम (को०] । अपिज-सज्ञा पुं० [सं०] ज्येष्ठ मास (को०)। अपील -वि० [हिं० अपेल] अटन। अडिग। उ०—गुरू धाम अपितु-अव्य० [सं०] १ किंतु ।। २ वल्कि । ३ ग्रौर [को॰] । उ०— कजा, मनी मैल मजा । धनू तोड भजा, सो नीन अपील ।--- त्रिविध माँति को सवद वर विघुट न लट पर मान । कारन घट०, पृ० ३८५ ।। अबिरल अने अपितु सुनसी अविद भुलान।--स० पप्त के,पृ०२६ ।। १६ । अपील-सच्ची श्री० [अ० एपील] १ निवेदन । वि वार्य प्रार्थना ।२ अपितृक---वि० [सं०] १ पिताविहीन । २ अपैतृक । पुनवचारार्थ । प्रार्थना । मातहत अदा नत के फैने के विरुद्ध अपिश्य-वि० [सं०] अपैतृक [को०] । उँची अदालत में फिर विचार करने के लिये अभियोग उपस्थित अपित्व-सचा पुं० [सं०] विभाग। ऋण । हिस्सी (को०)। " - करना। ३.वह प्रार्थनापत्र जो किमी अदा नत के फैसले को अपित्वो–वि० [सं० अपिरियन हिस्सेवा ना । प्रश या भाग रखनेवाला वदलवाने वा रद्द कराने के लिये उममें ॐवी अदालत में [को॰] । दिया जाय । अपिधान--सी पुं० [सं०] १. अाच्छादन । अावरण । ढक्कन । क्रि० प्र०—करना । होना ।। पिहान । २. ढकना । अाच्छादन करना [को०] । ३. रिछादन यौ॰---अपीलदानन= जहाँ मुकदमों की निगरानी यः पुनः वृस्त्र फो] । चार हो । यौ3--अमृतापिधान २. भोजन के पीछे का अचमन । भोजन के अ दो नाट--- रशी पुं० [अ० एपैलेट] प्रीन करने वा ना ४१त्रित्र । उप्रति 'अमृतापिधानमसि' कहकर अचमन मोरवै हैं । सपीजी--दि॰ [ अ० एपी+६०f (प्रत्य०}1 अरीजर्स बँधी ।