पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/३११

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अपहर्ता २४८ अपा अपहर्ता---सदा नु० [म० अपह] १ छीननेवाला । हर लेनेवाला । । निषेध करके उपमान का स्थापन किया जाय । जैसे,—बुरा ने नेनैपनि । २ चोर । लूटनेवाना। ३ छिपानेवाला । होइ न अलि यहै धुवाँ धरनि चहु कोद । जारित आवत जगत अपहमित–स पु० [सं०] बेमतलब की हँसी। निरर्थक हँसी । को पावस प्रथम पयोद । । २ हान का एक भेद या प्रकार (को०)। विशेप---इसके दो प्रधान भेद हैं-शब्दापह्नुति और अर्थापनुति अपहम्त–ता पु० [न०] १ गई निया देकर बाहर निकालना । गर्दन । इसके अतिरिक्त हेत्वपनुति, पर्यस्तापनुति, भ्रातापह्नुति, पर डकर बाहर करना । मलहम्त । गन्नहस्त देकर निकाला छकापह्नुति, व्यग्यापह्नुति भी इसके भेद है । है प्रा पनि । २ फेकना । ले जाना । ३ चोरी करना । अपह्नवान–वि० [स०] १ छिपाता हुआ । छिपानेवाला। २. नटने- लूटना (०३ ।। | वाला। इनकार करनेवाला । अपहस्तित-वि० [स०] १ नहस्त देकर निष्कासित । २ परित्यक्त। अपह्रोता-वि० [स० अपह्रोतृ] १ अस्वीकार करनेवाला । १ फेरा पा [को०] । सगोप्ता । छिपानेवाला [को०] । अपहान-मुझ पु० [सं०] छोडना । त्यागना कौ] । अपाक्त-वि० [अपाङक्त] भोजनकाल में साथ पक्ति में बैठाने के अपहानि–ना ग्री० [२०] १ दे० 'अपहान' । २ गायव होना । ३. अयोग्य । पक्ति या जाति से बहिष्कृत | जातिच्युत [को०] । म होना (को०] । अपाक्त य–वि० [सं० श्रेपाड क्तय] दे० 'अपाक्त' [को०] । अपहार–सजा बु० [सं०] [वि॰ अपहारक, अपहारी, अपहारित, अप- अपाक्त्य--वि० [सं० अपाड क्त्य] दे॰ 'अपाक्त' [को०] ! हार्य] १ चोरी । लूट । २ छिपाव । स गोपन। ३ ले जाना अपाग- सज्ञा पु० स० अपाङ्ग] अाँख का कोना । श्रख की कोर । (को०)। ४ दूसरे की मपत्ति खर्च करना । पराया माल उडाना कटाक्ष। उ०---(क) नेत्रो को अपाग से शृ गारित किया । (को०) । ५ हानि । ति (को०) । ६ प्राप्त करना । लाना –३० न०, पृ० ४४२ । (ख) और फिर अरुण अपागो से देखा [को०] प्राप्ति [को०] । कुछ हँस पड़ी ।--झरना, पृ० २५ 1 अपहारक-वि० [सं०] [वि० सी० अपहारिका] छीननेवाला । वलात् । यौ० अपांग दर्शन = तिरछी चितवन । अपाग दृष्टि= कनखियो से | हरनेवा नी ।। देखना। अपागधारा = कटाक्षगति । कटाक्षप्रवाह । उ०— अपहारक’-- पुं० डाकू । चार । लुटे । (क) किंतु हलाहल भरी उसकी अपागधारा । अाज भी न अपहरित--वि० [स०] १ छीना हुअा। अपहृत । २ लूटा इम्रा ।। जाने क्यों भूलने में असमर्थ हैं।--इ द्र०, पृ० ११ । कामदेव चोरी द्वारा प्राप्त । ३ छिपाया हुआ । सगोपित। (१) संप्रदायमूचक तिलक । (२) अत । समाप्ति । (३) अपहारी-वि० [न ० अपहारिन्] [वि० श्री० अपहारिणी] १ हरण अपामार्ग । करनेवाला । ३ नाश करनेवाला ।। अपाग--वि० अगहीन । अगभग । पगु । अपहारी---नज्ञा पु० चोर । नुटेरा । डाकू। । अपागक-सज्ञा पु०, वि० [म० अपाङ्गक] दे० 'अपाग' (को०] । अपहार्य----वि० [म०] छीनने योग्य । चोरी करने योग्य । अपानाथ-सज्ञा पुं० [म०] १ सागर । समुद्र । २ वरुण [को०] ।। अपहाम–ना पु० [म०] १. उपहन । उ०---अब का यर अपहास री, अपानिधि---सया पु० [स० अपामूनिवि] १ ममुद्र । २ विष्णु [] रचना रचू अगद।---बाँकीदास ग्र०, भा० पृ० १६ । अपापति- सज्ञा पु० [सं० अपाम्पति] दे॰ अपानाथ' [को०] । २ प्रकार हैंन । | अपापित्त---सज्ञा पु० [सं० अपम्पित्त] १ अग्नि । २ चिके अपहत--वि० [सं०] बना हुआ । चुराया हुला। लूटा हुआ ।उ०--- वृक्ष [को०] । हृदय का राजस्व अपहृत, कर अधम अपराध, दस्यु मुझमे चाहते अपावत्स-संझा उ० [म ०] एक बहा तारा जो चित्रा नक्षत्र नक्षत्र से पाँच हैं मु गदा निर्वाघ ।—कामायनी, पृ० ६४ । अश ऊत्तर विलेप में दिखाई पड़ता है ।। य०---अपहृतज्ञान = बुधबुध हीन । बेखवर ! अपाशुला--वि० स्त्री० [सं०] पतिव्रता । अपहृनश्री--विहीन । छविहीन । उ०—–अपहृनश्री सुब्ब म्नेह का अपाषु-सज्ञा स्त्री० [हिं० पा] अात्मभाव । अहक | नग्न –नुनी०, पृ० ३८ । । घमड । उ०—अाम्रो छोडि ऊरघ को जावे । अपा मेटि * प्रेम अपहेना-- मी० [न०] तिरस्कार । फटकार । झिडकी। बढावे |---कवीर (शब्द॰) । दे० 'झापा' । प्रपतवमा धुं० [न ०] [वि॰ अपह्न त] १ छिपाव । दुराव । ३. अपा --मर्द [हिं०] १० ‘अपना' ।। मिन । 'उहाना | दाल मटन । हो । वाग्जाल से असली बात यौ ०–अपापर -- अपना पराया। उ०—प्रपा पर नहीं चिन्होला । को छिपाना । : प्रेम ।पार (को०) । ४ तोपण (को०] । --दक्खिनी॰, पृ० ३४ । अपहन-वि० [९] छिपा हुन । उ०—विविध द्रश्य है छिपे गर्भ में अपाइ(५)----मझा स्त्री० [म० अवाय] ० अपाय' ।। 57के दिन, न वाध्रव के अनेकार है मजु अपनून |-- अपाउ -मा पु०सं० अपाय, प्रा० अबाय] अनरीनि। अन्यथाचा' प्रेन्जर, ०४। उपद्रव । ३०-खेलत मा अनुज बालक नित जोगवत अनः माति --" ? [न०] १ दृ71 छिपाव । २ वहाना । टाल- अगाउँ । जति हरि चुचकारि दुलारत देत दिबावत दाउ !-- भटू । हीना बाना। ३ एकः कायात कार जिसमें उपमेय का तुसमी ग्र०, पृ० ५०६।