पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/३१०

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|| अपमृत २४७ अपहरना । अपसृत---वि० [म०] १ युद्ध में भागा हुअा। मगौडा । २ हटाया अपस्मारी--वि० [अ० अपमारिन्] जिरी अपार रोग हो । ३०--- गया (को०)। ३ नीचे फेंका हुअा या च्युत [को०)। नेत्र टेढे वीके शरनेवाला ऐ7 अपस्मारी रोगी जीये नहीं । विशेष—कौटिल्य के अनुसार अपमृन और ग्रनिक्षिप्त ( मेवा से माघव०, पृ० १३१ । | अलग किए हुए या देश में निकाले हुए ) में निको में अपमृत अपस्मृत-वि० [८] भुलक्कड । बुब्नु नहार किो॰] । अच्छे हैं। उनमें युद्ध में फिर काम लिया जा सकता है। अपस्मृति-वि० [सं०] १ भुलवड । भूने जानेपाना। २. अपसृति-सज्ञा स्त्री० [भ] दे० 'अपमरण (को॰] । । विभ्रमित । धाइया हुश्रा को०) ।। अपसोच--सश) मुं० [न अप +शोच] बुरी चिता। दुश्चितः । उ०- अपरमृति--सज्ञा स्त्री० दे० 'अपस्मार (को०] । | मुचिता मर गया तो सहुग्राइन रोई तो काफी मगर गीतर अपस्वर-सया पु० [सं०] कटु म्वर या ध्वनि (को०] । भीतर उसे उनना अपमोव नही हुप्रा ।-नई०, पृ० ८० । अपस्वारथ -सज्ञा पुं० [हिं० अप +म० स्वार्थ] स्वार्थ । अपना अपसोस -सया पु० [फा० अफ नोप्त] चितः । सोच । दु । मतलब । उ०—(क) ये नैना अपस्वारथ के। और इनहि ३०--(क) तात अवे मरियत अपसोमनि । मयुरा हूँ ते गए पटनर क्यों दीजै जे हैं बस परमारय के !--[र०,१०।२२८३ । मग्बी री। अब हरि कारे कोमनि ।—सूर (शब्द॰) । (ख) (ख) अपम्बार ये सो वढू विधि लीन्हा । परमार्थ काहू नहि काह क अपमोम मरति ही नैन तुम्हारे नाही --मूर०, चीन्हा ।-कवीर रा०, पृ० ५८१ । । १०।२२३५ । अपस्वारथी-वि० [हिं०] दे॰ 'अम्बा' । ३०--नैना लुब्धै रूप अपसोमना--नि० अ० [हिं० अपक्षोम से नाम०] गोत्र करना । को अपने मुख्न माई । प्रपराधी पम्पार यी मो को बिसराई --- चिंता करना । अकमोम करना । उ०—कहा कहू' भुदर घन नृ०, १०1३ २५३ ।। | तोमो । राधा गान्ह एबमेंग बिजनेत मन ही मन अपमोमो । अपस्वार्थी--वि[हिं० अप= अपरा+न० रवा]म्वार्थ साधनेवा वा । --मूर (शब्द॰) । | मतलनी । काम निकालनेवाला । युदगर ज । अपसौन --मज्ञा पुं० [म० अपशकुन] अशगुन । बु मान । अपह-वि० [म०] नाण करनेवादा। बिनाए । उ०—मनोज, वैरि अपसौना --क्रि० प्र० दे० 'अपमवन' ।। वदित, जादि देव सेपित । विशुद्व वध विग्रह, ममस्त पणा- अपस्कर----सा पु० [सं०] १ पहिए के अलावा गाड़ी का कोई भी हि ।—तुलसी (शब्द०) ।। हिस्सा । ढाँचा । २ विष्ठा । मन । ३ योनि । ४ गुदा (को॰] । विशेष ---यहू शब्द को मामान पद के प्रत में प्राय ग्राता है । अपस्कार–सज्ञा पुं० [मं०] घुटने के नीचे का भाग [को०] । जैसे—यलेश।पहू । तमोपः । दूपणाप । अपस्खल--संज्ञा पुं० [म०] कूदना । फाँदनी [को०] । | अपहG*-- वि० [सं० अ+प्रहत या म० अपहत] दे॰ 'अप्रतिहत' । अपस्तव--संज्ञा पुं० [सं० अपस्तम्भ ] छाती के भीतर एक ग्रोर स्थित उ०—-बड दाता पाता पडा, अपहूड पूरे झास ।-बादाम कोश जिसमें प्राणवायु रहता है (को०] । ग्र ०, भा० १, पृ० ४८ । अपस्तंभ-सज्ञा पुं० [म० अपस्तम्न] २० 'अपम्तव' [को०] । अपहत-वि० [सं०] १ नष्ट किया हुआ । मारा हुआ। । २ दूर किया अपस्तुति--संज्ञा स्त्री॰ [म० अप + स्तुति] दोपवर्णन । निदा । । हुमा । हटाया हुम्री ।। अपस्नात--वि० [सं०] प्राणी के मरने पर उदयः क्रिया के ममय का अपहतपोष्टमा-वि० [सं०] मब पापों मे विमुक्न । जिसके मव पाप | स्नान किया हुग्रा । | नष्ट हो गए हो । पापशून्य । विधताप । अपस्नान-सज्ञा पुं० [म॰] [वि० अपस्नात] १, मृतकस्नान। वह स्नान अपहरण-सज्ञा पुं० [सं०] [वि० अपहरणीय, अपहरित, अपहृत, अप- जो प्राणी के युटुबी उसके मरने पर उदक क्रिया के समय फरते है । २ किसी के नहाने के बाद बचे हुए जन में हर्ता] १ छीनना । ने लेना । हर लेना। उ०---:मा गर्वम्व नहोना को०] । अपहरण करके इसे केवग्न राज्य में बाहर कर दो।—विशा० अपस्पर्श-वि० [स] सञ्जाहीन । चेतनाशून्य (को०] । पृ० ८३ । २ चोरी । रूट। ३ छिपाव। मगोपन । ४ महसून अपस्मार-संज्ञा पुं० [सं०] एक रोगविणेप । मृगी । वाले माल को दूसरी वस्तुओं में छिपायर मन में विशेप--गमे हृदय काँपने लगता है और अखिो के सामने बचाना [को०) । अँधेरा छा जाता है । रोगी कौपकर पृथ्वी पर मूच्छित हो गिर अपहरणीय-वि० [नं०] १ न छीनने योग्य । हर नेने योग्य । २ पडता है । वैद्यक शास्त्रानुसार इमकी उत्पत्ति चितो, शोक अौर | चुराने योग्य । नृटने योग्य । ३ छिपाने योग्य । भगोपन भय के कारण कुपित त्रिदोष से मानी गई है। यह चार प्रकार करने योग्य ।। का होता है--(१) वातज, (२) पित्तज, (३) कफज और अपहरना -क्रि० न० [म० अपहरण मे नाम०] १ छीनना । ने (४) सन्निपाता । यह रोग नैमित्तिक है । वातज का दौरा नना । २ लटना । चुना। उ०—जो ज्ञानिन र चिन प्र- बारहवे दिन, पित्तज का पंद्रहवे दिन और कफज का तीसवें हेरई । बरियाविमोह चम र।-- नुतनी (शब्द॰) । ३ काम दिन होता है । गरना। घटाना। ३५ करना। मान करना । उ॰—ग्दानप ९०----अगचिति । लालधि । नूतविक्रिया । मृगी रोग । निजि गति परः । स म जिउ दान र टर।- २. अपस्मृति । नवकटपन । स्मृतिभ्रे श [फा०] । • तुलसी (शब्द) ।।