पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/३०९

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अंपैश्रेय २४६ अपसूक्न अपश्रय--सज्ञा पु० [सं०] तकिया किो०] । अपसरण---संज्ञा पुं० [सं०] १ मग जाना । खिमक जाना 1 निकल अपश्री--वि० [स०] शोभाविहीन । श्रीरहित [को०] । | जाना । २ निर्गम । निकास [को०] । अपश्र ति-मज्ञा स्त्री० [स: अप + श्रुति] एक ही धातु या शब्द में अथवा अपसर्जक -वि० [१०] अपमार्जन करनेवा [को०] ।। एक ही प्रत्यय या विभक्ति के योग में निष्पन्न धातु, शब्द, प्रत्यय अपसर्जन--मया पु० [सं०] १ विम नैन । यगि । २ दान । ३. या विभक्ति में निर्दिष्ट क्रमानुसार स्वरध्वनि में हुए परिवर्तन मोक्ष [को०] । को अपश्रुति कहते हैं।-जैसे—गान, गीत, गेय अादि । अपसर्प-सक्षा पु० [न०] गुप्तचर । जासूस । बुफिया । भेदिया । अपश्वास--सज्ञा पुं० [सं०] अपानवायु (को॰] । | --अनेकार्थ ० ।। अपष्ठ--संज्ञा पुं० [सं०] अकुण का अग्रभाग या नोक [को०] । अपसर्पक-संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अपन' (को०] । अपष्ठु–वि० [सं०]१ विपरीत । उलटा । २ प्रतिकून । वाम [क]। अपसर्पण-सज्ञा पुं० [म०] वि० १ पीछे सरकना । पीछे हटना । २ अपष्टुरे--क्रि० वि० १ विपरीत रूप मे । २ गलत ढग से । निद- जासूसी करना [को॰] । पिता पूर्वक [को॰] । अपसपित--वि० [नं०] पीछे हटा हुग्रा । पीछे खिसका हृया। पीछे अपष्ठ-सज्ञा पुं० [सं०] समय [को०] । सरका हुआ । अपृष्ठुर-वि० [सं०] विपरीत । उनटा [को०] । अपसवना--त्रि० अ० [हिं०] दे० 'अपना'। अपष्ठुल-वि० [सं०] १० ‘अपष्टुर' (को०] । अपसव्य--- वि० [सं०] १ मव्य का उलटा । दाहिना । दक्षिण । २ अपसचय--संज्ञा पुं० [सं० अपसञ्चय] अनियमित रूप से वस्तु का उलटा । विरुद्ध । ३ जनेऊ दाहिने आधे पर रमे हुए । | सग्रह या छिपाकर रखना । अपस --सज्ञा पुं॰ [हिं॰] दे० 'अपशु' । उ०—ऊ करडी डोका यौ०--अपसव्य ग्रहण = जन आ सूर्य व चंद्र के दाहिने होकर चुगइ अपस इँमायड आँण ।-ड्रोला०, दू०, ३३६ । चलता है । अर्थात् गहण दाहिनी ग्रोर ने लगता है तब उसे अप अपसG-सज्ञा पुं॰ [स० अपस्मार] १ मृगी रोग । २ राजस्थानी सव्य ग्रहण कहते हैं । अपसव्य ग्रहयुद्ध = वृहत्नहिता के अनु- सार ग्रहयुद्ध के वार भेदो में मैं एक 1 अपसव्य नीयपितृतीयं । कविता में मान्य एक प्रकार का दोष जिसमें शब्दयोजना निरर्थक हो और अर्थ साफ न हो । उ०—अपस अमूल्यो अरथ क्रि० प्र०—होना= बाएँ सांधे से जनेऊ और अंगोछ। दाहिने कांधे पर रखना वा वदनना ।—करना= किमी के किनारे चारो सवद पिण विण हित साजै ।--रघु० रू०, पृ० १४ । शोर ऐसी परिप्रभा पारन कि वह दाहिनी अोर पड़े । दक्षिण- अपसगुन५--मज्ञा पुं० [स०अपशकुन] असगुन । बुरा सगुन । उ००० वर्त परिक्रमा करना । अजुन दुखित बहुत तद भए । इहाँ अपसगुन होत नित नए । सूर० १॥२८६ । अपसाधारण--वि० [म० अप +साधारण] माधारण मे भिन्न (अच्छे अपसद-सज्ञा पुं० [स०] वह पुत्र जो अनुपम विवाह द्वारा द्विजो से या बुरे भाव में) –यदि जयती एक नायारणे स्त्री यी उत्पन्न हो । ब्राह्मण पुरुष और क्षत्रिय, वैश्या वा शुद्रा वी०, तो मैं भी एक अप साधारण पुरुप या ।--मन्यायी पृ० ३६६ । अथवा वैश्य पुरुप और शूद्रा स्त्री से उत्पन्न सताने । अपसार-सज्ञा पु० [म० अप = जल +सार] १ अबुकण । पानी का अपसमार- सज्ञा पुं० [स० अपस्मार] तेतीस व्यभिचारी या छोटा । उ०--लेत अवनि रवि अमु कहें, देत अभिप अपमारे । सुचारी भावों में से एक । उ०----प्रपम मार मो कवि उर धरई। तुन्नमी सूखम को सदा रवि रजनीम अधार |-म० सप्नक, –भिखारी प्र०, भा०१, पृ० ७२ ।। पृ० ३६ । २ पानी की भाप ।। अपसना)---क्रि० अ० [स० अपारण = खि नक ना] १ खिसकना। अपमार-सज्ञा पुं० [म०] ० 'अपमरण' [को०] । सरकना । 'मागना । उ०—राते कर्वे न करहिं अनि भव ।। अपसारक-.-० [सं०] दूर करने वाला । हटानेपाना । धुमहिं माति चहि अपसवां ।—जायसी ग्रं॰, पृ० ४२।२ अपसारण--संज्ञा पुं० [सं०][सी०प्रपसारण] निकाल बाहर कर चल देना । चपत होना । उ०—-(क) जीव काढि लै तुम अप- सई । (ख) ले अपसवा जलघर जोगी ।—जायसी (शब्द॰) । | हटा देना । दूरी करण । निवारण (को०] । अपसवना --क्रि० अ० [हिं०] दे० 'अपसना' । अपसारित-वि० [सं०] निष्कासित । निकाला हुअा । दूरीकृत । अपसर-वि० [हिं० अप= अपना+सर (प्रत्य०)। ]श्राप ही अाप । उ०--वाधाएँ अपसारित कर, कहता वर यो वरना । भनमाना । अपने मन का । उ०—लोटत पीत पराग कीच महें - गीतिका, पृ० १०५ । । नीच न अग सम्हारे। बार बार सरक मदिरा की अपसर रहत । | अपसिद्धात-सज्ञी पुं० [म० अपसिद्धान्त] १ अयुक्त सिद्धात । वह उघारे ।—सूर (शब्द॰) । विचार जो सिद्धांत के विरुद्ध हो । २ न्याय में एक प्रकारे का अपसर–सज्ञा पुं० [सं०] १ अपसरण । पीछे हटना । २ भागना। विग्रह स्थान । जहाँ किसी सिद्धात को मानकर उसी के विरुद्ध ३ दूरी (को०)। ४. उचित कारण । स गत तर्क [को०)। बात कही जाय वहाँ यह निग्रह स्थान होता है । ३. जन अपसर)---वि० [फा० अपसर] मुखिया । प्रधान । उ०—अपसर शास्त्रानुसार उनके विरुद्ध सिद्धात । गज दलगजन गाऊ । छ। मऊ नाइ देहि तेहि ठाऊ-चित्रा०, अपसूकन -सज्ञा पुं० [हिं०] ६० अपशकुन'। उ०—-महा अपने पृ० १८६ । सुकन होज्यो ए भुवाल --बी० [सो, पृ० ५६ ।