पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/३०४

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अपरस २४१ अपरावती अपरस-वि०म० अ = नहीं+स्पर्श, हि० परम] १ जो छुप्रा न जाय । तया एक लघु और एक गुरु होता है। न न र स ल ग-- जिसे किसी ने छुपा न हो । उ०—ऊधौ तुम ही अति वड ॥ | SS 15 जैसे—न विरस लग राम की जन को कया । भागी । अपरस रहत सनेह तगा ते नाहिन मन अनुरागी । | सुनत वढन प्रेम मिनु शशी यथा । रघुकुल करि पावनो सुख मूर०, १०१३९५८ । २ न छूने योग्य । अस्पृश्य । उ०—-अपरस साजिता । जिन किय यित कौरती अपराजिता (शब्द०)। ठौर तहाँ सपरस जाइ कैसे, बासना न धोबै तौ लौ तन के ५. एक प्रकार का घूप । पखारे कहाँ ----बनानद, पृ० १६६ । अपराजिता--वि० जिसमे पर को जीता न जा सके । अनिर्णीत ! अपरेस–सझा पु० एक चर्मरोग जो हुयेली अौर तलवे में होता है । अपराजेय---वि० [सं०] १ जो जीता न जा सके। उ०—रह गया इममे खुजलाहट होती है और चमडा सुख सुखकर गिरा राम रावण का अपराजेय युद्ध --अपरा, पृ० ३७ । । करता है ।। अपराझी -वि० [सं० अपराद्ध, प्रा० अयरल +ई (प्रत्य०)] ६० अपरस –सझा पुं० [सं० श्राम +रस] अात्मानद । अत्मरस । ‘अपराधी' । उ०—मानुस जन्म चुकेहु अपराझी । यह तन केर उ०-~-पाछे श्री गुसाई जी स्नान करि धोती उपरेना परि वहुत है साझी -कवीर वी० । । अपरस की गादी पर विराजि कै सख चक्र धरत हुते।--दो अपराद्ध-वि० [स०] १ जिसने अपराध किया हो। दोपी । अपराधी । सौ बावन ०, पृ० ६ ।। २ चूकनेवाला । ३ अतिक्रात । अतिक्रमित [को॰] । अपरस --सा पु० [स० अप = बुरा+रस] बुरा रस । विकृत अपराद्ध-सज्ञा पुं० १ दोष । अपराध [को॰] । रस । उ०—-जनम जनम ते अपावन असाधु महा, अपरम पूति अपराद्धि--संज्ञा स्त्री॰ [सं०] १ गलती। दोप । अपराध । २. सो न छाडे अर्जी छूति कौं १–वनानद, पृ० १९८ । | पाप को॰] । अपरस्पर-वि० [सं०] १ निरक्षर । लगातार । २ अन्योन्य । ३ जो अपराव--संज्ञा पुं॰ [सं०] १ दोप। पाप । २ कसूर'। जुर्म । ३. अापस का नै हो । जिसमें अापसदारी न हो कोई । भूल । चुके ! अपराग--- मक्का पु० [न० अपराङ्ग] गणीभूत व्यग्य के ८ भेदों में से अपरावभजन-सज्ञा पु०म० अपराधभञ्जन]अपराध का नाश करनेवाले | शिव को०] । एक जिसमे व्यग्यार्थ अन्य शब्द के अधीन हो । अपराधविज्ञान---सज्ञा पुं० [सं०] अपराध के कारण और उसे निवारण अपरात-मज्ञा पुं० [सं० अपरान्त] पश्चिम का देश । करनेवाला विज्ञान (ले०] । अपरातक--सज्ञा पुं० [मै० अपरान्तक] वृहत्महिता के अनुसार पश्चिम अपराधी--वि० पुं० [सं० अपराधिन्] [स्त्री० अपराधिनी] दोषी । दिशा में एक पर्वत । पापी । मुलाजिम ।। अपरातिका–संज्ञा जी० [स० अपरान्तिका] वैताली छद का एक भेद अपराधीसाक्षी---सज्ञा पुं० [म० अपराधीसकिन किसी अपराध के जिसमे वैतानी छद के मम चरणो के समान चारो पद हो और मामले का वह अभियुक्त जो अपना अपराध स्वीकार कर लेता चौथी और पाचवी मात्रा मिलकर एक दीर्वाार हो जाय । है और अपने साथी यी साथियो के विरुद्ध गवाही देता है। वह जैसे---श मे को मजहू ने सवै धरी । तेज सबै काम रे हिये धरी अभियुक्त या अपराधी जो सरकारी गवाह हो जाती है । (शब्द॰) । इकबाली गवाह । मुजरिम इकरारी । सरकारी गवाह । अपरा--संज्ञा स्त्री० [सं०] १ अध्यात्म वा ब्रह्मविद्या के अतिरिक्त अन्य अपरापतपु–सज्ञा पुं०स० अप्राप्नो भाग्य । किस्मत । विधि । उ०—- विद्या । लौकिक विद्या। पदार्थ विद्या । २ पश्चिम दिशा । काहू मी नाही मिट, अपरापत के अक। ईस के मीस तरी, ३ एकादश जो ज्येष्ठ के कृष्ण पक्ष में होती है । भयो न पुर्न मयक ।—स० सप्तक, पृ० ७१० ।। अपरा--वि० मी० दूसरी । अपगपति---सज्ञा स्त्री॰ [स० अप्राप्ति] प्राप्ति का अभाव । अलाम । अपराग-सज्ञा पुं० [सं०] १ असतोप । २ शत्रुता । ३ अरुचि (को०] अभाग्य । उ०---अपरापति के दिनन में खरच होत' अविचार। अपराग्निसशा ज़ी० [म०] १ दक्षिण एव गार्हपत्य अग्नि । २ घर अवतु है पाहुनौ, बिन जन लाभ लुगार |---स० सप्तक, चिता की अग्नि [को०] । पृ० ३३१ ।। अपराजित--वि० [स०] [वि० सी० अपराजिता] जो पराजित न हुआ। अपरापरण--वि० [सं०] मतानहीन । निम्मतति [को०] । | हो । अविजित ।। अपरामृष्ट--वि० [म०]१. अछूता । अस्पष्ट । जिसको किसी ने ने छु। अपराजित-सच्चा पु० १ विष्णु । २ शिव । ३ कृष्ण का एक पुग्न हो । २ अव्यवहृत । कोरा । जिसे व्यवहार में न लाया गया हो। (को०)। ४ एक विपैला कीट (को०)। ५ एकादश रुद्रो में अपराक'–वि० [१०] द्वितीय सूर्य जैमा । सूर्य तुल्य तेजस्वी को०)। से एक । अपरार्क-संज्ञा पुं० [सं०] याज्ञवल्क्य स्मृति के प्रसिद्ध प्राचीनतम अपराजिता-सझा स्त्री० [सं०] १ विष्णक्राता लेता। कोयल लता । टीकाकार जिनकी अपरार्कचद्रिका टीका विख्यात है। २ दुर्गा । उ०—-मरन सरन है सदा सुख साजिता । द्रउहि द्रवह अपरार्ध-मज्ञा पुं० [स०] द्वितीय अाधा भाग । उत्तरार्ध (फो०] । दाम को अपराजिता --भिखारी ग्र०, भा० -१, पृ० २५४ । अपरावर्ती--वि० [सं० अपरावतिन्] [वि० वी० अपरातन१ जो ३ अयोध्या का एक नाम । ४ चौदह अक्षर का एक वृत्त विना काम पूरा किए न नौटे । काम करके एनटनेवाला । २ जिसके प्रत्येक चरण में दो नगण, एक रगण, एक मगण जो पीछे न हटे । जो किसी काम से मुंह न मोडे । मुस्तैद ।