पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/३०३

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अपयोग अपवन अपयोग-सज्ञा पुं॰ [सं०] १ कुयोग । बुरा योग । २. कुसमय। अपरता*-सज्ञा स्पी० [सं०] १ दूरी । २ पृथकना । ३ निकटता। कुवेला । ३ कुशकुन । अमगुन । ४ नियमित मात्रा से अधिक समीपता । ४ न्याय मे २४ गुग्गी में पत्र [को०] । वा न्यून औषध पदार्थों का योग । अपरति-मज्ञा स्त्री० [सं०] १ निगाव । विच्छेद । २ ग्रसतोय (को०]। अपरच–अव्य० [सं० अपरश्न] १ अौर भी । २ फिर भी । पुनरपि । अपरती--राज्ञा स्त्री० [हिं० प्रप= आप +मं० रन = लीनता । पुन । ३ दूसरा भी [को०] । | स्वायं । बेईमानी ।। अपरपार-वि० [सं० अपर = दुसरा+ हि० पार = छोर] जिसका अपरतीत -अशा [म० अप्रतीति] पिपाने का अभाव 1 प्रविपारावार या अोर छोर न हो । असीम । बेहद । श्रनत । उ० पवास । उ०——य अपरतीत के उने पादन | चाँद परनीत को खग खोज पाछै नहीं तु तत अपर पार । बिन परचे का जानिएँ घुमड घेर ।-चोवे०, पृ० १६७ । सव झूठे अहकार ।—कवीर ग्र०, पृ० २३० । । प्रपत्र–क्रि० वि० [सं०] १ मरे गमय में 1 और कभी । २ अपर"--वि० [स] १ जो पर न हो । पहला । पूर्व का 1 २. अन्यत्र [को०] । पिछला । जिससे कोई पर न हो ३ अन्य ! दुम । भिन्न। अपरत्व--सज्ञा पु० [म०] १ पिनपिन । अनीनना । २पयापन। और । उ०—-अपर नाम उडुगण विमल, बम भक्त उर व्योम |--- वेगानगी । ३ न्यायशास्त्रानुसार चौवी7 गुग्गी मे में एक । वह 'भक्तमाल (श्री०) पृ० ४६८ । ४ जिससे बढ़कर या बराबर दो प्रकार का है--एक शानभेद ने दूसरा देशभेद मे। दे० का अन्य न हो (को०)। ५ जो दूसरा या पराया न हो। स्व 'अपरता' । पक्षीय । अपना । उ० –को गिनै अपर पर को गिनै। लोह अपरदक्षिण-संज्ञा पुं॰ [स०] दक्षिण और पश्चिम का कोना । छोह छक्के बरन |--पृ० रा०, ३३।२६ । ६ अश्रेष्ठ । जो पर नैऋत्य कोण ।। अर्थात् श्रेष्ठ न हो । निकृष्ट । साधारण (को०)। ७ पश्चिमी । अपरदिशी-सज्ञा ली० [सं०] पश्चिम ।। पश्चिम दिशा का (को०) । ८ दूर का । दूरवर्ती। जो पास न अपना-सा जी० [न० अपण] पार्वती का नाम । वि० २० हो (को०) ।। 'पण'। उ०—-पुनि परिउ मुत्राने: परना। उमा नाम तब अपर- सशा पु० १ हाथी का पिछला भाग, जधा, पैर अादि । २ भयउ अपरन --तु नगी (शब्द॰) । रिपु । शत्रु । ३ न्यायशास्त्र में सामान्य के दो भेदो मे से अपरनाल—संज्ञा पुं० [सं०] वृतमहिना के अनुसार एक देश का नाम । एक । ४. भविष्यत् काल या उस काल में किया जानेवाला अपरपक्षमज्ञा पुं० [भ०] १ कृष्ण पक्ष । २ प्रतिवादी । मुद्दालेह । कार्य [को॰] । | फरीकसानी।। अपरकाय-सज्ञा पुं० [सं०] शरीर का पिछला भाग । अपरपर-वि० [म ०] एक एव अन्य अनेक । विभिन्न वि०] । अपरकाल-सज्ञा पु० [सं०] वाद का समय [को०] । अपरपुरुप-सज्ञा पु० [न ०] बज । वागत लोग [को०] । अपरक्त–वि० [म०] १ बदले हुए रग का । रगहीन । ३ रक्तहीन। अपरप्रणेय-वि० [न०] अन्य से निल्दी प्रभावित होनेवाला (को०] । | पीला । ४ असतुष्ट [को०] । अपुरवली-वि० [<म० प्रयल] बलवान्। बली। उद्धत । वेकही । अपरक्ति--सज्ञा स्त्री॰ [सं०] अपरक्त या असंतुष्ट होना । उ०—चली अपरबल यान पान । उई जात कहि वनेत ने अपरचे--संज्ञा पुं० [हिं०] ६० 'अपरिचय' । उ०—देखा देखी पाकडे बात ।--नद० २०, पृ० ३०५ । जाइ अपरचे छुटि । विरला कोई ठहरै मतगुर सामी मूठिा-- अपरभाव--संज्ञा पुं० [न०] १ अन्म दा भिन्न होने का भाव । अत्र । कबीर ग्न ९, पृ० ५१ । अपरछन'G-वि० [स० अप्रच्छन्त वा अपरिछन्न] वरणरहित ।। भेद । २ अविरल [को०) । जो ढका न हो । विना वस्त्र का । अपरमित--वि० [सं० अपरिभित] इयनाशुन्य । प्रमीम । उ०—ऐगी ऐसी बातो से उसकी अगरभित शक्ति का पूरा प्रमाण मिलता अपरछन” --[स० अप्रच्छन्ने] श्रावृत्त । छिपा । गुप्त । उ०—बाजी है ।--श्री निवास ग्र०, पृ० १६८ । चिहुर रचाइ के रहा अपरछन होई । मायापट परदा दिया ताते लखइ न कोइ ।—दादू (शब्द॰) । अपररात्र--सज्ञा पु० [सं०] रात्रि का अनि नान या प्रहर (फो०] । अपरलोक-सज्ञा पुं० [म ०] दसरा लोक । परन्नो छ । स्वर्ग । अपरज-वि० [सं०] वाद मे उत्पन्न (को०) । अपरज२ -- सशा पुं० विध्वंसक अग्नि । प्रलयाग्नि [को॰] । अपरव--संज्ञा पु० [सं०] १ (स गीत मव वी) झगडा या विवाद । २. अपरतत्र-वि० [ म० अपरतन्त्र ] जो परतत्र या परवश न हो। | कुप्याति को०] । स्वतंत्र । स्वाधीन । अाजाद ।। अपरवक्त्रसज्ञा पुं० [स०] वह वृत जिसके विपम चरण में दो नगण। अपरत-वि० [सं०] विरक्त । उदासीन । (को॰) । एक रगण और लघु गुरु हो तथा समचरण मे एक नगण, दो अपरता--संज्ञा स्त्री॰ [स] परायापन । जगण और रगण हो । यथा--सचे तज रसना गही है। अपरती- सज्ञा स्त्री० [म० =नहीं+परता -परायापन] भेद भाव दुख सर्व भागहि पापहू' जरी। हरि विमुख मग ना करी। जप की शून्यता । अपनापन । दिन रैन हरी हरी (शब्द॰) । - अपरता--दि० [ हि० अप = प्राप+रत= लगा हुआ ] स्वार्थी । अपवक्त्रा--संज्ञा स्त्री॰ [सं०] १० 'अपरबत्र' को०] । मतलवी । अपरवश-वि० [सं०] पराए वश का । परतत्र ।