पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/३०१

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अॅपैना अंपादत्रं सर कू०, पृ० ३४ । अपनेपन पर आना = अपने दू स्वभाव के अपनापा-संशा पुं० [हिं० अपना+पा (प्रत्प०) 1 अप नापत। अनुसार कार्य करना । अपने पाँव पर खड़ा होना = स्वावलवी 'अपनत्व ।। होना । उ०—क्यों न हो पाँव पर खड़े अपने । और का पाँव अपनाम---सज्ञा पु० [सं०] बदनामी । निदा । शिकायत । किमलिये पकड़े ।—चुभते०, पृ० १० । अपने भावें = अपने अपनामा–वि ० [सं० अपनामन] निदित । वदनाम [को०] । अनुसार । अपनी जान है। जैसे,—अपने भावें तो मैंने कोई बात अपनायत अपनायत-सच्चा स्त्री॰ [हिं० अपना+पत (प्रत्य॰)] १ अपना होने उठा नही रखी (शब्द०)। अपने मन की करना = दूसरो का भाव । अपनापन । अात्मीयता । उ०—(क) देखी सुनी न की सलाह न मानकर अपनी सोची वात करना । अपने मुह आजु लौं अपनायत ऐसी । केहि सवे, सिर मेरे ही गिरि परे मियां मिट्ठू बनना = अपनी प्रशसा आप करना । अपने लिये अनैसी ।---- तुलसी ग्र०, पृ० ५३३ ।। (ख) जो, लोग अपनायत वला बनना=अपनी विपत्ति का स्वय कारण वनना । जान की रीति से कहते हैं ।---श्रीनिवास ग्र०, पृ० ३६६ । २ बूझकर सकट बुलाना । उ०—आप अपने लिये वला न वने । श्राप सदा री का सवध । वहुत पास या नजदीकी रिश्ता । जो न सिर पर पडी बला टाले ।—चुभते०, पृ० ५५ । अपने अपनाव-सञ्ज्ञा पुं० [हिं० अपना+आव (प्रत्य०}] अपना बना लेने की रग मे मस्त रहना = दूसरे की चिंता न कर अपने ही कामकाज | क्रिया । ऐक्य का भाव ।। या शानद में पड़े रहना। अपने सिर वला मोल लेना= अपने लिये झझट, बाधा या वखेडा खडा करना । स्वयं को झगडे मे । अपनाश -मज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अप नास' । डालना । अपने सिर पड़ता= अपने पर बीतना। उ०—जौ । अपनास -सज्ञा पुं० [हिं० अप +नास] अपना नाश । उ०--हाथ पहिले अपुने सिर परई । सो का काहू के घरिहरि करई । चढौं मैं तेहि के प्रथम कर अपनास !-—जायसी ग्र० पृ० १०० । जायसी ग्र० (गुप्त) पृ० २५७ । अपने से बाहर होना= रुष्ट या अपनाहट—संज्ञा स्त्री० [हिं० अपना+अाहट (प्रत्य०) ] अपनापन क्रोधित होना । वेकाबू होना। अपने हलुए मॉडे से काम होना नि नत्व । उ०—खादी की वह मोटी चादर नहीं चित्त को अपने मतलव से मरोकार रखना । अपने हाँथ पाग सँवारना= माती थी । अनमिल जने की अप नाहट सी रुचि मे मेल न खाती अपने हाथो अपना काम पूरा करना । अपने हिसाब से अपने थी ।—प्रा, पृ० ६६ ।। विचार से । अपने विवेक से ।। अपनि----सर्व० [हिं०] दे॰ 'अपना' । उ०---प्रपनि प्रतिज्ञा तन यौ॰—अपने श्राप =(१) स्वत । खुद । उ०—अब कुछ दिन किन चहौ । वेद पुरानन मैं जो कहौ ।-नद० ग्र०, पृ॰ ३०३ । धक्के खाने से उसकी अकन अपने आप ठिकाने हो जाएगी। अपनि धि-वि० [सं०] गरीव । –श्रीनिवास नं ० पृ० २४६ । (२) अपि । निज । जैसे- अपनीत---वि० [सं०] १ दूर किया हुआ । हटाया हुआ । २ निकाला अपने को । अपने में । अपने पर ।। | हुआ।। ३ खडित (को०)। ४ जिसका अपनयन किया गया हो । अपना–सज्ञा पु० अात्मीय । स्वजन । जैसे-आप लो। तो अपने ही अपनीत–संज्ञा पुं० १ धोखा। फरेब । २ बुरा आचरण [] हैं, आपसे छिपाव क्या ?—(शब्द०)। उ०---जब ल न अचनक (५)--वि० [हिं०] १० 'अपना' । उ०-~-ए सखि कहब अपना सुनौ अपने जुन को । अति प्रारत शब्द हुत्ते तन को ।- दद, सप नहु जनु हो कु गुरुम सग ।—विद्यापति, पृ० १२ ! रामच०, पृ० १७ । । अपनुत्ति--संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'अप नोदन' (को०] । अपनाईत --सज्ञा स्त्री० [हिं०] दे॰'अपनायत' । उ०—अपनाइत हैं। अपनोद-सज्ञा पुं० [सं०] दे॰ 'अपनोदन' [को०] । सो नही अब परतीत विवारि। मो नैननि मनु मेरेई राख्यौ हरि में डारि ।—भिखारी ३ ०, भा० १, पृ० १७ ।' अपनोदन--सज्ञा पु० [सं०] १ दूर करना । दाना । ३ खटन । अपनाइयत-संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'अपनायत' 1 प्रतिवाद । ३ प्रायश्चित्त (को०)। ४ नष्ट करना । खराव करा [को॰] ।। अपनाना—क्रि० स० [अपना से नाम०] १ अपने अनुकूल करना । अपहृव(५)—सज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अपह्नव' ।। अपने वश में करना । अपनी ओर करना । उ०—(क) रचि अप इति५--सुज्ञा पुं० [हिं०] १० 'अपह्नुनि' । उ०-मिसु कारा प्र पच भूपहि अपनाई । म ति तक हित लगन धराई । मानस, २।१८। (ख) सूर स्याम विन देखे सजनी कैसे मन कथन छ विधि, होत अपन्हुति भाइ ।--भिखारी ग्र ०, भा॰ २, अपनाऊँ !-—सूर (शब्द॰) । २ अपना बनाना। अगी पृ० ६० ।। कार करना । ग्रहण करना । अपनी शरण में लेना । उ०—। अपपाठ सज्ञा पुं० [सं०] भ्रष्ट या गनत पाठ। अशुद्ध पाठ कि] (क) सर्व विधि नाथ मोहि अपनाइये । पुनि मोहिं सहित अपपात्र-वि०[सं०] १ जिसे सब लोगो के व्यवहार का सामान, बेतन अवधपुर जाइयं ।—मानस, ६।११६ । (ख) नी हुमको कछु |' या पात्र न दिया जाय । किसी दोष के कारण जातिच्युत । सुदरताई । भक्त जानि के सब अपनाई ।—सूर (शब्द॰) । ' २ हीन जाति का [को०] । अपमापन संज्ञा पुं० [हिं० अपना +पन (प्रत्य०) ] १ अपनायत । अपपात्रत--वि० [सं०] दे० 'अपात्र' [को०] । मात्मीयता । उ०--ग्रंप नापन चेतन का सुखमय, खो गया नहीं अपवाद-वि० [सं०] खराब या बुरे पैरोवाला । जिमके पर विकृत आनोक उदय ।—कामायनी, पृ० २४१ । २ अात्मभिमान । ' हो [को०] । उ०—भूल न जावे कभी न अपनापन, जान दे, पर न मान को 'अपपादत्र-वि० [सं०] उपानहविहीन । पादत्राण रहित । नगे पर में खो --चोवे, १० १५ । । वाला [को॰] ।