पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/२९९

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अपनपी अपथगामो २३६ अपथगामी--वि० [सं० अपथगामिन्] १ कुमार्गगामी । बुरे रास्ते पर अपदेवता–संज्ञा पुं० [म०] १ दुष्ट देव । २ दैत्य । राक्षसे । प्रमः । । उ०—-अरे कोई अपदेवता न हो !--चद्र०, पृ० १७४ । | जानेवाला । २ चरित्रहीन कि] । अनक्षित मार्ग पर जानेवाला (ब्यक्ति)। अपदेश---सज्ञा पुं० [सं०] १ व्याज । मिस । वहाना । २ लक्ष्य । उद्देश्य । ३ अपने स्वरूप को छिपाना। भेष बदलना (Y | २ दुरुपयोग या दुष्कार्य में लगा हुआ (धन) (को०] । छन् । ओखा (को०) । ५ अस्वीकार । इनकार (को०) । ६ अपथ्य-संज्ञा पुं० [स०]व्यवहार जो स्वास्थ्य का हानिकारक हो । प्रसिद्धि । च्याति (को०)। ७ खतरा [को०] । ८ दुग म्थान । रोग बढ़ानेवांना आहार विहार.1 पाय जगह (को०)। ६. निर्देश (को॰) । १० बैशेषिक न्याय अपथ्य–वि० १ जो पथ्य न हो । स्वास्थ्यनाशक । २ अहितकर। के अनुसार पाँच अनुमान वाक्यों में दूगर । हेतु [को०] । ३ बुरा। खराव । अयुक्त (को॰) । अपद्रव्य-संशा पु० [म° J१ निकृष्ट वस्तु । बुरी चीज । कद्रव्य । अपथ्यानिमित्त-वि० [सं०] अनुचित खानपान से उत्पन्न [को०)। | कुवस्तु । २. बुरा धन ।' अपदसशा पु० [सं०] १ विना पैर के रेगनेवाले जतु । जैसे-माँप, अपद्वार—सज्ञा पुं० [सं०] छिपा हुअा दरवाजा । घोर दरवाजा। केनुया, जोक प्रादि । उ०—ाजा इक पडित पौरि तुम्हारी ।। बगली खिडकी। अपद दुपद पसु भापा बुझत अविगत अल्प अहारी |---सूर० अपघावन-सज्ञा पुं० [अ०] वाकूछने । सत्य का अपनाप [को०] 1 ८१४ । २ गलत या बुरा स्थान (को०)। ३ आकाश । अपघूम-वि० [सं०] घु रहिन । धूमविहीन [को॰] । नभोमंडल (को०)। ४ व्याकरण मे शब्द जो पदसज्ञक नहीं । अपध्यान-सज्ञा पु०[म०] निकृष्ट चिंतन । बुर विचार । अनिष्ट है (को०)। चितन । जैन शास्त्रानुसार बुरा ध्यान । यह दो प्रकार का अपद-वि० १ विना पैर का पादविहीन । बिना किसी पद या होता है, अातं अौर रौद्र । । " ओहदे का। अंपध्वस-नश पुं० [म०] [वि॰ अपध्वसी, अपध्वस्त ] १ अध:पतन । अपद’--क्रि० वि० विना पद या अधिकार के । गिराव। २ वेइज्जती । निरादर । अवजा । अपमान । हार। अपदम--वि० [स०]१ अात्मनियत्रणहीन । २ जिसकी स्थिति। नाश । क्षय ।। अस्थिर या परिवर्तनशील हो [को०] ।। अपध्वसज-संज्ञा पुं० [म०] वह जिसकी माता का वर्ण या जाति अपदरुहा-सज्ञा स्त्री० [न०] अन्य वृक्ष के आश्रय में पनपनेवाला । पिता ने ऊँची हो । 'वर्णमकर [को०] । | पौदा [को०] । अपध्वसी–वि० [सं० अपध्वसिन्][विलीअपवसिनी १ गिनेअपदरोहिणी--संज्ञा स्त्री० [सं०] दे॰ 'अपदरहा' (को०] ।। वाना । अपमान करनेवाला । निरादरकारी । अपमानकारी। अपदव–वि० [म०] जगल की आग मुक्त । दावाग्निमुक्त [को०] । २ नाश करनेवाला । क्षयारी । ३ पराजित करनेवाला । अपदस्थ–वि० [म.] स्थान वा पद से हटाया हुआ । पदच्युत । उ०— विजयीं। इधर मौर्य कारागार में, वररुचि अपदस्थ, नागरिक लोग नद अंपध्वस्त–सच्चा पु० [म०] १ पराजित । हारा हुग्रा । परास्त की उच्छ खुलताशो से असंतुष्ट हैं ।--चंद्र०, पृ० १५७ ।। • निंदित । अपमानित । बेइज्जत किया हुआ । ३ नष्ट । अपदातर–वि० [सं० अपदान्तर]१, मिलाजु-ना। सयुक्त । अव्यवहित । अपध्वात--वि० [स०अपवान्त] सदोष स्वर छोडनेवाला । ककन २ नमीप । सनिकट । ३. समान । वरावर । । स्वरवाला [को॰] । अपदातर–क्रि० वि० शीघ्र । जल्द । तत्क्षण । अपध्वात—संज्ञा पुं० कर्कश स्वर । गलत स्बर [को०] । । । अपदव —सञ्चा पु० [सं० अप = चुरा+हिं० ‘दव] बुरा दाँव । अपन--सर्व० [स०आत्मन. प्रा० अप्पणो = अपना]१ दे० 'अपना । । चालवाजी । कुवात (को०)। उ०-दूसरे आइ के इद्रियनि ले 3०-मद मद हँसि नद महर तद | अपन तेति स बात कही। गयौ, ऐसौ अपदांव सव.इनहिं कीन्हे । मैं कह्यौं नैन मोक सँग सव 1-नैद अ०, पृ० १६० । २ हम । (मध्यप्रदेश) । देहिंगे, इनहु ले जाई हरि हाथ दीन्हे ।—सूर०, १०२२४० । अपनपो----संज्ञा पुं० [हिं०] १० ‘अपनपौ' । उ०----हितहि परयो अपदान--सज्ञा पुं० [सं०] १ परिशुद्ध आचरण । सदाचारी जीवन । । आपनो अहित अपनप जाय । वन की औपछि प्रिय लगत तन | २ उत्कृष्ट कार्य 1 ३ पूर्णत संपन्न कार्य कि]।.।। को दुख ने सुहाय !-श्रीनिवास ग्र० पृ. २०७।। प्रपदार्थ-वि० [सं०]तुच्छ । नाचीज । उ०---अवकाश शून्य फैं ना है। अपनपी -सच्चा ५० [ हि० पपना+पौ वा पा (प्रत्य॰)] १. ।। है शवित न और महारा। शपदार्थ तिरूगा मैं क्या, हो भी कुछ अपनीयत । अत्मीयता । सवंध । उ०—-भरतहिं विसरेउ पितु { - कुल किनारा ।—असू, पृ० ४१ ।। मरन, सुनते राम वन गौन । हेतु अपनप जानि जिय थकित अपदार्थ—सच्चा पु० १ अस्तित्व का अभाव । २ तुच्छता । ३ बाका भए धरि मौन [-तुलसी (शब्द०)। २. अत्मिभाव । ग्राम| में प्रयुक्त शब्द के ठीक अर्थ का अभाव या न होना [को०] । स्वरूप । निज स्वरूप । उ०--(क) अपनप आपुही विसरी-- अपदिष्ट--वि० [सं०]तर्कना या बहाने से कयित या प्रयुक्त [को०] । कवीर (शब्द०)। (ख) सब, हित तर्ज अपनपी चैते । तुलसी अपदेखा -वि० [हिं० अप = अपने को+देखा-देखनेवाला] १ (शब्द॰) । ३. सच्चा । सुघ । ज्ञान ! उ०--(क) अद्भुत इक अपने को वडा माननेवाला । आत्मश्नापी । घमडी। २ स्वार्थी चितयो रे सजनी नद महरि के आंगन री। तो मैं निरखि उ०—पदेखा जे अहहि तिनहि हित गुनि मुह जोहहिं(शब्द॰) । अपनपौ खोयो गई मॅथनियाँ माँगन री ।--सूर (शब्द॰) ।