पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/२९५

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अपकाजी २३२ अपनी अपकाजी(५) --वि० [हिं० अप +काज] अपस्वार्थी । मतन्नवी । ३०-- अपक्रिया- सशा री० [सं०] १ क्षति । दूक में । अहित । २ श्रा श्याम विरह वन माँझ हेरानी। अहकारि लपट अवकाश सग । परिशोध [को॰] ।। न रह्यो निदानी ।—सूर (शब्द॰) । अपक्रोश--संज्ञा पुं० [स] गाली देना । निंदा करना। कुवाच्य अपकार--सरा पु० [स०] [वि० अपकारक अपकारी] १ अनिष्ठसाधन। कहना [को०] । द्वेप । द्रोह। बुराई ! अनुपकार । हानि । नुकसान । अन भन। अपक्व-वि० [सं०] १ विना पका हुआ कच्चा। उ०—फन अपक्व अहिन । उपकार का विलोम । उ०—मम अपकार कीन्ह तुम जो बृक्ष ते तोर लेत नर कोय । फूल को रस पावे नही, नास भारी । नारि विरह तुम होब दुखारी ।--17सी (शब्द०)।२ वीज को होय ।--श्रीनिवास प्र ०, पृ० २०१ । २ अनभ्यम्त । अनादर । अपमान । ३ अत्याचार । असद्गवहार। प्रसिद्ध । अनुभवहीन । अपकारक --वि० [न०] १ अपकार करनेवाला । क्षति पहुंचानेवा। यौ॰—अपवबुद्धि । हानिकारी। २ विरोधी। द्वेपी । अपक्वकलुष--सज्ञा पुं॰ [सं०] शैव दर्शन के अनुसार सकन के दो अपकारी---वि० [म० शृपकारिन्] [झी० अपकारिणी] १ हानिकारक। भेदो मे से एक । वद्धजीव, जो समार में बार बार जन्म बुराई करनेबाला । अनिष्टभावक । उ०—खल विनु स्वारथ । ग्रहण करता है। पर अपकारी ।--नान, ७॥१२१ । २ विरोधी? द्वेपी । अपक्वज्वर--सज्ञा पुं० [सं०] वैद्यक मे ज्वर की वह दशा जिसमे लार अपकारीचार---वि० [म० अर कार+प्राचार]हानि पहुँचानेवा ना ।। गिरना, उबकाई प्राना, अरुचि,अनस्य, देह का जकडनी आदि हानिकारी । विघ्नकारी । उ०—जे अपकारीचार, तिन्ह कहूँ । उपद्रव होते है। गौरव मान्य वहु । मन क्रम बचन लुवार, ते वकना कलिकाल अपक्वता--सज्ञा स्त्री॰ [स] पका हुआ न होना । कच्चापन । २३ मँह !—तुलसी (शब्द॰) । अनभ्यस्तता । अभिद्धता । अपक्ष-- संज्ञा पुं० [सं०] १ वह जो राज्य के पक्ष में न हो। २ अपकिरण---संज्ञा पुं० [म०] विबराना । छितराना [को०] । जिससे राज्य को कोई लाभ न हो । ३ वह, जिमका किसी से अपकीरति ---मंझा म्बी० [हिं०] ० 'अपकी।ि उ०—-मैं अपनी हेलमेल न हो । वह, जो किसी के साथ मिल जुल कर न रह अपकीरति को डर वात मह मय दैव महावे-हम्मीर०,पृ०२०॥ सकती हो । निष्पक्ष । उ०--लक्ष अक्ष प्रदर्भ न दक्ष, न पक्ष अपकीर्ण-वि० [न] विश्वेरा या छितराया हुआ। अपक्ष, न तुल ने भारी ।--सुदर ग्र ०, पृ० ६४४ ।। अपकोति- सज्ञा स्त्री० [म०] अपयश । अयश । वदन भी। निदा । विशेष—-चाणक्य ने ऐसे मनुष्यों के लिये लिखा है कि उन्हें कहीं अपकृत-वि० [सं०] १ जिमका अपकार किया गया हो। जिसे अलग अपनी उपनिवेश बसाने के लिये भेज देना चाहिए । हानि पहुची हो । जिसकी बुराई की गई हो। २ अपमानित। अपक्ष---वि० [सं०] १ पखहीन । पखरहित । २ निष्पक्ष (को॰) । वदनाम' । ३ जिसका विरोध किया गया हो । उपकृत का। अपक्षपात्तसंज्ञा पुं॰ [सं०] पक्षपात को अभाव । न्याय ! खरीपन । उनटा । अपक्षपात--पुक्ष तिविहीन । निःपक्ष । वरी । उ०--परंतु नशिरवा अपकृन-सज्ञा पुं० बुराई । हानि । क्षति [को०] । खजाची के इस पक्ष त काम से ऐसा प्रसन्न हुआ कि उसे अपकृति-सज्ञा स्त्री॰ [मं०] १ अपकार । हानि । बुराई। २ अपमान । | निहाल कर दिया ।---श्रीनिवास ग्र ०, पृ० २२८ । | निंदा। बदनाम।। अपक्षपाती--वि० [स० अयशपाई रन्] [स्त्री० अपक्षयाति ती] पक्ष गातेअपकृष्ट -वि० [सं०] १ गिरा हुग्रा । पति । भ्रष्ट । २ अधम ।। रहित । न्यायी । खरा ।। | नीच । निछ । ३ वृणित । वुः । खराव । यौ० - अपकृटचेनन = बुरे विचारोवाली। अपक्षय--सज्ञा पु० [सं०] [वि॰ अपक्षीण] १ छीजना । हाम। नाश । २ कृष्णपक्ष (को०] । अपकृष्टता-सशी जी० [अ०1१ अधमता । नीचना । २ वुराई । अपक्षिप्त_वि०में 1१ अपने की क्रिपा द्वारा पलड़ाया था फेका बरावी । हुग्रा । २ फेंका हुआ । गिराया हुआ। पतित । अपकी गली-मज्ञा स्त्री० [१०] समाचार । सवाद । मूत्रना [को०] । अपक्षीण---वि० [सं०] न। छीजा हु प्रा। विनष्ट [को०] । अपक्ति-नशा ० [सं०] १ कच्चापन । अपरिपक्व । २ 'अजीर्ण [को०]t अपक्षेप-सज्ञा पुं० [सं०] दे॰ 'अपक्षेपण' (०. ! अपक्रम-सज्ञा पुं० [म ०] १ व्यनिकम् । क्रमभग । अनि प म । गडबड। अपक्षेपण --संज्ञा पु० [सं०][वि० प्रदक्षिन] १ फेंकना । पलटाना। उलट पट । २ दौडना । पीछे हटना (को०)। ३ पीछे हटने २ गिराना । चनुत करना । ३ पदार्थ विज्ञान के अनुसार का स्थान या सीमा (को०)। ४ (समय) बीतते । व्यतीत प्रकाश, तेज और शद व गति में किसी पदार्थ से टक्कर होना (को॰) । खाने से पावर्तन होना । प्रकाशादि का किमी पदार्थ से टकराअपक्रम ---वि० अप्रचयित । क्रमविहीन [को०] । कर पलटना। ४ वैशेपिक शास्त्रानुसार श्राकुचन, प्रसारण अपक्रमण--सज्ञा पुं० [सं०] 'o ‘अाक्रम [को०] । आदि पाँच प्रकार के कम में से एक है 'पक्रमी--वि० [म ० अपकनिन् ] १ जानैबाना। हटनेवाला । २. अपखोरा--संज्ञा १० [फा० बोरा, हि० प्रमखोर] जल पीने का | तोता ते न जानेवाला [को०] । पात्र या वरतन । अपक्राम–नज्ञा पुं० [स०] दे॰ 'ग्रपक्रम' [को०] । अपगड-वि० [ स० अपगण्ड ] दे० 'प्रपोगड' ' [क] ।